The Spirit of Uttarakhand’s Igas "Let’s Celebrate Another Diwali "

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  चलो मनाएं एक और दिवाली: उत्तराखंड की इगास    एक दिवाली की जगमगाहट अभी धुंधली ही हुई थी कि उत्तराखंड के पारंपरिक लोक पर्व इगास की चमक छाने लगी है। असल में यही गढ़वाल की दिवाली है जिसे इगास बग्वाल/ बूढ़ी दिवाली कहा जाता है। उत्तराखंड में 1 नवंबर 2025 को एक बार फिर से दिवाली ' इगास बग्वाल' के रूप में दिखाई देगी। इगास का अर्थ है एकादशी और बग्वाल का दिवाली इसीलिए दिवाली के 11वे दिन जो एकादशी आती है उस दिन गढ़वाल में एक और दिवाली इगास के रूप में मनाई जाती है।  दिवाली के 11 दिन बाद उत्तराखंड में फिर से दिवाली क्यों मनाई जाती है:  भगवान राम जी के वनवास से अयोध्या लौटने की खबर उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में 11वें दिन मिली थी इसलिए दिवाली 11वें दिन मनाई गई। वहीं गढ़वाल के वीर योद्धा माधो सिंह भंडारी अपनी सेना के साथ जब तिब्बत लड़ाई पर गए तब लंबे समय तक उनका कोई समाचार प्राप्त न हुआ। तब एकादशी के दिन माधो सिंह भंडारी सेना सहित तिब्बत पर विजय प्राप्त करके लौटे थे इसलिए उत्तराखंड में इस विजयोत्सव को लोग इगास को दिवाली की तरह मानते हैं।  शुभ दि...

नवरात्रि विशेष: शक्ति का स्वरूप (ज्वाल्पा देवी)

 देवी दुर्गा, शक्ति का स्वरूप: माता ज्वाल्पा देवी

   सृष्टि की सर्वोच्च शक्ति का स्वरूप ही देवी दुर्गा है। इन्हीं देवी की अपार कृपा प्राप्त करने का विशिष्ट समय होता है नवरात्रि के नौ दिन।
   इन पावन दिनों में महादेवी माता दुर्गा की पूजा, पाठ, तप, साधना एवं नाम से ही अपार ऊर्जा मिलती है और घर परिवार में सुख शांति बनी रहती है।  यह समय ऐसा होता है जब भगवती की उपासना से जीवन की नकारात्मकता का अंत होने लगता है और हमें सकारात्मक ऊर्जा से मानसिक व आत्मिक बल की प्राप्ति होती है। इस ऊर्जा को संचित करने के लिए अश्विन मास के शारदीय नवरात्रि का आगमन हो चुका है।
   नवरात्रि के इन विशेष नौ दिनों में माता के नौ रूपों की पूजा तो होती ही है साथ ही लोग अपने कुल देवी या लोक देवी की पूजा भी नवरात्रों में उसी श्रद्धा से करते हैं जैसे कि माता दुर्गा की क्योंकि हर विशेष स्थान की लोक देवी भी देवी दुर्गा का स्वरूप है। माता का कोई भी रूप एक दूसरे से भिन्न नहीं है। शक्ति के सभी स्वरूप अपने भक्तों का कल्याण करने वाला और मंगलकारी है इसलिए हर एक देवी को नवरात्रों में विशेष फलदाई माना जाता है।

ज्वाल्पा देवी मंदिर 
  ऐसे ही शक्ति के एक और स्वरूप है उत्तराखंड के पौड़ी जिले के कफोलस्यूं पट्टी में स्थित माता ज्वाल्पा देवी का मंदिर। यहां पर की नवरात्रों में की गई पूजा भी विशेष कल्याणकारी है। ज्वाल्पा देवी का मंदिर एक शक्तिपीठ है जो पौड़ी कोटद्वार मार्ग में स्थित है। कोटद्वार से इसकी दूरी लगभग 73 किमी के आसपास है वहीं पौड़ी मार्ग से 33 किलोमीटर है। यहां यह पश्चिमी नयार नदी के तट पर बना हुआ है।
  उत्तराखंड में भगवान शिव और माता पार्वती 
को विशेष रूप से पूजा जाता है। माता ज्वाल्पा देवी माता पार्वती का ही स्वरूप है। यहां लोग दूर दूर से आकर अपनी कुल देवी माता ज्वाल्पा की पूजा अर्चना करते हैं और फलस्वरूप माता के आशीर्वाद की कामना करते हैं। माता ज्वाल्पा देवी के शुभ और दिव्य स्वरूप के दर्शन से भक्तों की मनोकामना पूर्ण हो जाती है। पहले यहां भक्त अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर पशु (बकरा, खाड़ू) की बलि भी देते थे किंतु अब मंदिर परिसर में बलि प्रथा पूर्णतः निषेध हो चुकी है। 
कैसे प्रकट हुई देवी ज्वाल्पा ...
  उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर जागर गाथाओं के अनुसार इंद्रप्रस्थ (दिल्ली) में सभी देवी देवताओं का वास था। जब इंद्रप्रस्थ में यवनों ने आक्रमण किया तो देवालय और देव वन भी नष्ट भ्रष्ट हो गए। तब देवी देवताओं ने दिल्ली से पलायन कर उत्तराखंड की ओर प्रस्थान किया।
   नजीबाबाद जो कि गढ़वाल के लिए एक बड़ा व्यापारिक केंद्र था जहां से गढ़वाल के ग्रामीण अपनी आवश्यकतानुसार वर्ष भर का सामान (गुड, कपड़ा, नमक आदि) ढोकर अपने घर ले जाते थे। इन लोगों को ढांकर कहते थे और ये सभी दल में चलते थे। उसी समय जब देवताओं ने पलायन किया तो एक ढांकरियों का दल भी नजीबाबाद पहुंचा। 
 जिस दल के मुखिया श्री दयानंद थपलियाल थे। वे वहां अपनी खरीदारी करने लगे। उसी समय मां ज्वाल्पा देवी मातृलिंग के रूप में दयानंद थपलियाल जी के किंजोरे में प्रतिष्ठित हो गई। जब ढांकरियों ने अपनी खरीदारी पूरी कर ली तो अपना सामान पीठ पर बांध कर नजीबाबाद से अपने गांव की और चल पड़े। चूंकि थपलियाल जी ग्राम ख़ैड़ मगलस्यूं के रहने वाले थे इसलिए इनका दल दुगड़डा, डाडामंडी से द्वारीखाल होते हुए बांघाट पहुंचे यहां से इनका दल पश्चिमी नयार नदी के किनारे चलता रहा और एक समतल भूमि दलदेर खेत (दरिद्र लोक) पर पहुंचा। यह स्थान बहुत से गांव के लिए विश्राम का स्थान (बिसोण) था।
   जैसे ही थपलियाल जी ने अपनी किंजारी रखने लगे तो उसका वजन बढ़ने लगा। वहां पर अपना सामान लेने पहुंची गांव की युवतियों ने अपने भार लायक सामान भी निकाला तब भी किंजारे का वजन कम न हुआ। तब उसी समय माता ज्वाल्पा देवी का मातृलिंग उस किंजारे से निकल कर वहीं अचल हो गया और श्री दयानंद थपलियाल जी की किंजारी हल्की हो गई। 
  थपलियाल जी माता का संदेश समझ गए और वहीं पर देवी की प्रतिष्ठा कर दी। जहां यह स्थान है वह भूमि अणेथ के अणथ्वालों (अन्थवाल जात) की थी इसलिए अणथ्वालों को माता ज्वाल्पा का पुजारी बना दिया गया और इस प्रकार से देवी भगवती मां ज्वाल्पा अपने क्षेत्र की कुल देवी बनकर अपने भक्तों की रक्षा करने लगी। 
  एक और पौराणिक मान्यतानुसार दानवराज पुलोम की पुत्री शचि ने देवराज इंद्र से विवाह करने के लिए इसी स्थान पर कठोर तप किया था। उस समय देवी ने प्रसन्न होकर उन्हें ज्वाला के रूप में दर्शन दिए और उनकी मनोकामना पूर्ण की। इसलिए इस पवित्र स्थान पर माना जाता है कि ज्वाल्पा देवी की पूरी श्रद्धा के साथ पूजा अर्चना करने से देवी प्रसन्न होती है और अपने भक्तों के कष्टों को दूर करके उनके सभी मनोरथ पूर्ण करती है। 
  
  माता ज्वाल्पा का नाम सब कार्यों को सिद्ध करने वाला एवं कल्याणकारी है। नवरात्रि के इन पावन दिनों में शक्ति के दिव्य स्वरूपों की आराधना करें और उनकी कृपा प्राप्त करें। 
जय मां ज्वाल्पा देवी!!

 एक -Naari 
 

Comments

  1. मां ज्वालपा देवी की दीप्तिमान ज्वाला सदैव प्रज्ज्वलित रहे, "जय माता दी"

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