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Showing posts from December, 2020

Travelogue... यात्रा के रंग: परिवार, धर्म, अध्यात्म

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  यात्रा के रंग: परिवार, धर्म, अध्यात्म    आखिर भागते भागते ट्रेन पकड़ ही ली भले ही पांच मिनट पहले ही लपकी लेकिन एक्सप्रेस ट्रेन सी चलती धड़कनों को अब जाकर राहत मिली !!     सच में DDLJ फिल्म के ट्रेन का सीन याद आ गया। लग रहा था कि ट्रेन चलने ही वाली और हमें भागते हुए इसे पकड़ना है। बस, इस सीन से हीरो शाहरुख़ खान गायब था, या यूँ कहें कि हीरो के किरदार में हम स्वयं ही थे। अपना पर्स, खाने के डिब्बे से भरा बैग, एक बड़ा सा सूटकेस और उसके साथ एक और बड़ा बैग।  इन सबको लादे हुए भागना, ये हीरो से कम काम था क्या?? वो तो गनीमत है कि अब सामान की पेटियों में पहिये लगे होते हैं जिनसे थोड़ी राहत मिल जाती है नहीं तो DDLJ  की जगह कुली फिल्म याद आती!!    चलो ये काम तो था ही इसके साथ सबसे बड़ा काम था कि अपनी नज़रें अपने नटखट जय के ऊपर रखना जिसकी उत्सुकता हमारी धड़कनो जैसी ही तेज थी। ये सामान तो केवल मेरे पास था, मां के एक हाथ में एक बड़ा बैग और अपना हैंड बैग, जिया के पास अलग ट्राली बैग। सब अपना अपना सामान लेकर दौड़ लगा रहे थे। लग रहा था कि इस समय सब हीरो के किरदार में...

हम पढ़ तो रहे हैं लेकिन पढ़ना नहीं चाहते।।

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     ( क्रिसमस और नये साल का समय है और इस समय जो सबसे अधिक खुश और उल्लास से भरे होतें हैं वो हैं, बच्चें। इसीलिए आज का लेख बच्चों के विषय से संबंधित ही है, कि यही हर्षोल्लास से भरे बच्चें पढ़ने के प्रति इतने उदासीन क्यों हैं? क्यों आजकल बच्चें धीरे-धीरे स्कूली किताब ही क्या, कुछ भी पढ़ने में रुचि नहीं लेते हैं। )       कहीं ये शीर्षक मेरे लिए तो नहीं। आप ऐसा बिल्कुल ना सोचें कि यह लेख आपके लिए है। ये लेख उनके लिए है जिनके लिए पढ़ना सिर्फ एक मजबूरी है और वे लोग इस मजबूरी को मजदूरी समझ कर बस कर रहे हैं। उनके लिए पढ़ना जरूरी नहीं, एक औपचारिकता है। उनके लिए हर दिन और हर एक वर्ष पढ़ना एक पहाड़ पर चढ़ने जैसा कार्य होता है। अब चाहे ये विद्यालय जाते हुए छोटे बच्चे हों या महाविद्यालय के समझदार युवा। वो सिर्फ पढ़ रहे है खानापूर्ती के लिए लेकिन पढ़ने के लिए बिल्कुल भी इच्छित नहीं हैं।    इन बच्चों और युवाओं के अगर मनःस्थिति को समझा या देखा जाय तो आप इस शीर्षक से अधिक दूर नहीं जा पायेंगें। ' हम पढ़ तो रहे हैं लेकिन पढ़ना नहीं चाहते' इन विद्य...

शॉर्टकट्स (Shortcuts)

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              कमाल का शब्द है, शॉर्टकट।। इस शब्द की खासियत तो ये है कि, इसका हिंदी में भाव 'छोटा रास्ता' या 'संक्षिप्त रूप' से लिखने के बजाय शॉर्टकट लिखना अधिक आरामदायक और संतोषजनक लगता है, क्योंकि हमें भी शायद शॉर्टकट में जीना अच्छा लग रहा है।  वैसे शॉर्टकट को अगर हम सुविधाजनक कहें तो भी कुछ गलत नहीं है, क्योंकि सारे शॉर्टकट तो हम अपनी सुविधा के लिए ही करते है, जैसे शहर को जाने के लिए बायपास वाली सड़क का शॉर्टकट, कुछ के लिए नाश्ता और लंच छोड़कर सिर्फ ब्रंच (नाश्ता और दिन के भोजन के बीच खाया जाने वाला आहार) खाने वाला शॉर्टकट, जाम से बचने के लिए गली मोहल्लों में घूमकर घर पहुँचने वाला शॉर्टकट, गर्मियों में ग्लास छोड़कर सीधा बोतल से पानी पीने का शॉर्टकट, सर्दियों की कड़कड़ाती ठंड में पानी के छींटे से नहाने का शॉर्टकट, प्रश्न भी शॉर्टकट तो उत्तर भी शॉर्टकट, वजन बढ़ाने और घटाने का शॉर्टकट। अब तो मोबाइल के चैट के लिए भी इमोजी वाला शॉर्टकट।। क्या है ये शॉर्टकट,?? सुविधा या कौशल या काम का नया तरीका या समय बचाने की कला!     ...

किसान बिल पर किसान की सहमति या विरोध (किसान और सरकार दोनों के लिए अभी दिल्ली दूर है। ) (Farmer's consent or opposition to the Kisan Bill (Delhi is far away for both farmer and government.)

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              किसान को कौन नहीं जानता। हमारे देश की लगभग 70 प्रतिशत जनता तो किसान ही है। हर किसी को पता है कि जो खेत में हमारे लिए रबी और खरीफ़ की फसल के बीच में ही झूलता रहता है, दिन रात मेहनत करता है और बन्ज़र धरती को भी हरा बनाता है, वही किसान है। लेकिन आज के समय में एक आदमी जो खेत से उठकर आज सड़क पर तो कल किसी मैदान में जमा हुआ है क्या वो किसान है? दो महीनों से जो अपने खेत खलिहान को छोड़कर अपने हक और आंदोलन  को लेकर कभी पैदल तो कभी ट्रैक्टर ट्राली में बैठकर शहरों की सीमाओं में पहुँच चुका है, क्या वो किसान है? या फिर जो अपने खेत में बोआई और रोपाई को छोड़कर दो महीनों का राशन पानी का इंतज़ाम करते हुए किसी कारवां में शामिल हो चला है, वो किसान है। समयानुसार अब किसान को पहचानना बहुत ही मुश्किल हो चला है क्योंकि अब बहुत कुछ बदल रहा है। वो कह रहे हैं कि मेरा देश बदल रहा है।           सितंबर माह में कृषि संबंधित तीन बिल सदन में पास हुए। लेकिन इस बिल का विरोध सड़क पर लगातार हो रहा है। कभी रोड़ जाम तो कभी रेल पटरी ...

बाल:- कच, केश, कुन्तल (लोम्बा लोम्बा चूल , long hairs)

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   मनुष्य अपने हर एक अंग से प्यार करता है। प्यार से कहीं अधिक शरीर के अंगों पर अपना अधिकार होता है, जिसे हम कहते हैं कि ये मेरा है। ईश्वर ने बड़े ही तसल्ली से मानव रचना की है। हर एक अंग को सिर्फ बनाया ही नहीं अपितु उस अंग का कार्य भी निश्चित किया है। तभी तो जब सृष्टि का निर्माण हुआ तो सबसे खूबसूरत संरचना मानव को ही माना गया। ईश्वर की ये कला हाथ से अधिक दिमाग की रही है क्योंकि सिर्फ बहरी रंग रूप से कहीं अधिक तो अंगों की कार्यप्रणाली का कार्य था।  वो कहते हैं न कि बाहर से अधिक अंदर का काम जटिल होता है। वैसे ही हमारे नैन नक्श कद काठी रंग रूप से कहीं अधिक तो हमारी भीतरी संरचना है।    आँख नाक कान आदि अंग मानव में बाहर से दिखते हैं लेकिन हमें दिखाई क्या और कैसा दे रहा है उन सभी का निर्धारण तो हमारे मस्तिष्क और आँख की आंतरिक कार्य से होता है। दिल बनाया, फेफड़े बनाये, उदर बनाया, लिंग बनाया, मेरु तंत्र बनाया,अंत:स्रावी ग्रंथियां बनाई, यहाँ तक की पाचन रस तक बनाया की जो कुछ भी खाओ सबको सहन करो, पौष्टिक तत्व खून में और व्यर्थ तत्व शरीर के बाहर। ऐसी वैज्ञानिक सो...