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शांत से विकराल होते पहाड़...

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शांत से विकराल होते पहाड़...   क्या हो गया है पहाड़ में?? शांत और स्थिरता के साथ खड़े पहाड़ों में इतनी उथल पुथल हो रही है कि लगता है पहाड़ दरक कर बस अब मैदान के साथ में समाने वाला है। क्या जम्मू, क्या उत्तराखंड और क्या हिमाचल! दोनों जगह एक सा हाल! कभी बादल फटने से तो कभी नदी के रौद्र् रूप ने तो कभी चट्टानों के टूटने या भू धंसाव से ऐसी तबाही हो रही है जिसे देखकर सभी का मन विचलित हो गया है। प्रकृति के विनाशकारी स्वरुप को देख कर मन भय और आतंक से भर गया है। इन्हें केवल आपदाओं के रूप में स्वीकार करना गलती है। असल में ये चेतावनी है और प्रकृति की इन चेतावनियों को समझना और स्वयं को संभालना दोनों जरूरी है।     ऐसा विकराल रूप देखकर सब जगह हाहाकार मच गया है कि कोई इसे कुदरत का कहर तो कोई प्रकृति का प्रलय तो कोई दैवीए आपदा कह रहा है लेकिन जिस तेजी के साथ ये घटनाएं बढ़ रही है उससे तो यह भली भांति समझा जा सकता है कि यह प्राकृतिक नहीं मानव निर्मित आपदाएं हैं जो प्राकृतिक रूप से बरस पड़ी हैं।    और यह कोई नई बात नहीं है बहुत पहले से कितने भू वैज्ञानिक, पर्यावरणविद और ...

दून घाटा

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दून घाटी का दून घाटा  भीषण गर्मी के बाद बरसात का आना बहुत बड़ी राहत होती है। वो भी तब जब समान्यत: तापमान 40डिग्री से ऊपर चल रहा हो। ऐसे में सूखी धरती पर बारिश की बूंदें पड़ना मन को पूरी हरियाली से भर देता है।    इस गर्मी में एक समय पर लग रहा था कि हम गढ़वाल के चोली (चातक पक्षी, पपीहा) बन गए हैं जो आसमान की ओर बेचैनी से देखता रहता है और यही बोलता रहता है कि ‘सरग दिदा पाणी दे पाणी दे’ (आसमान भाई पानी दे , पानी दे)।    कहा जाता है कि चातक पक्षी के लिए स्वाति नक्षत्र की बूँद ही काफी होती है जो धरती पर बिना गिरे ही उसके गले को तृप्त करती है। उसके लिए केवल वही बूंद आवश्यक है फिर किसी साफ पानी की झील भी उसके कोई मायने नहीं रहती वैसे ही हमारे लिए भी बरसात का मौसम वर्ष भर के लिए हमें संतुष्ट करता है लेकिन समय से पहले और अधिक वर्षा हमारे लिए व्यर्थ है और साथ ही घातक भी।    झुलसा देने वाली गर्मी के बाद गीली धरती, नीला-काला आसमान, नहाये हुए पशु पक्षी, झूमते पेड़ और उसके साथ ही उड़ती हुई भीनी खुशनुमा हवाएं भला किसके मन को हर्षित नहीं करती!...