Rainy Season: Enjoy the greenery, but stay safe बरसात: हरियाली के साथ सावधानी भी

Image
    बरसात: हरियाली के साथ सावधानी भी   तपती धरती पर जब बारिश की बूँदे गिरती है तभी से आशा बंध जाती है कि अब गर्मीं से राहत मिल जाएगी। रूखा सूखा मन इन बूंदों की खुशबू से ही भीग जाता है। सच में, ये बरसात ही कुछ ऐसी होती है जो केवल धरती ही नहीं अपितु हमारे मन को भी हरियाली से भर देती है। इसीलिए पेड़ पौधे, पशु पक्षी, मनुष्य सभी बरसात में खिले खिले लगते हैं।     अब इस मौसम में जहाँ हमें गर्मी और निराशा से निजात मिलती है वही साथ में अपने स्वास्थ्य के लिए भी लिए कई  चुनौतियाँ मिलती है क्योंकि ये बारिश पेड़ पौधे, पशु पक्षी सभी के लिए एक टॉनिक की तरह काम करती है इसीलिए इसमें केवल ये ही नहीं अपितु सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव भी खूब फलते फूलते है। जिस कारण से बैक्टियरिया, वायरस, फंगस आदि के कारण कई रोग फैलते हैं।  बरसात में होने वाले रोग  वायु मे नमी, आद्रता के कारण रोगाणुओं को एक ऐसा उपयुक्त वातावरण मिलता है जिसमें ये बहुत तेजी से पनपते हैं और  जल्दी ही संक्रमित करते है। असल में यह संक्रमण काल होता है इसलिए इस समय पर हमें अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देना आवश...

ल से लट्टू....बचपन का खिलौना

ल से लट्टू....बचपन का खिलौना

   कुछ याद आया! हां हां अपना बचपन का खिलौना, लट्टू। लकड़ी का बना अंडाकार आकार का, जिसके बीच में एक कील रहती थी और उस कील के चारों ओर एक सुतली लपेट कर झटके से खींचते थे और फिर ये लट्टू गोल गोल घूमने लगता था। 
    पता नहीं जय को कौन कौन सी धुन सवार हो जाती है। पिछले कई दिनों से लट्टू के पीछे पड़ा हुआ है। 
    जितनी बार हम घर से बाहर निकले उतनी बार "लट्टू लेकर आना" और जैसे ही घर पहुंचे "मेरा लट्टू लाए?" सुनने को मिलता है। हर बार हम यह कहकर टाल देते हैं कि अब ये किसी दुकान में नहीं मिलता है। 
   पता नहीं हम क्यों भूल जाते हैं कि आजकल बच्चे जितने जिद्दी हैं उतने सयाने भी इसलिए जय ने तुरंत गूगल के कान में कहा "ल से लट्टू" और गूगल ने भी उतनी ही तेजी से अनेकों लट्टू के चित्र दिखा दिए। बस फिर क्या था अब तो लट्टू लाना ही पड़ेगा।
  वैसे जितना उत्साही जय है अपने लट्टू के लिए उतना ही उत्साह मुझे भी है लट्टू को देखने के लिए क्योंकि इसे मैंने अपने बचपन के बाद केवल किताब में ही देखा है। बचपन में मोहल्ले के सभी बच्चे अपने लट्टू के साथ आते थे और उसे देर तक घुमाने की आपस में प्रतिस्पर्धा भी करते। गोल गोल तेजी से घूमते हुए लट्टू को फिर दोनों उंगलियों के बीच से उठाते हुए हथेली में भी नचाते थे। ये देखकर हम बच्चे बहुत खुश होते थे। हां, लेकिन ये बात भी सत्य है कि बचपन में मैंने कभी लट्टू नहीं चलाया क्योंकि इसे चलाना आसान नहीं होता था। 
    लट्टू को सुतली से बड़े ही सलीके से बांधना और अपने विशेष हुनर के साथ उसको झटके से स्पिन (घुमाना) कराना हर किसी बच्चे के बस की बात नहीं थी इसलिए हमें केवल उसे देखकर या कभी हथेली में रखकर ही खुश होना पड़ता था।
    मुझे याद है कि यह पहले किसी खिलौने की दुकान में क्या पड़ोस में परचून की दुकान में सुतली से बंधा हुआ भी बिकता था लेकिन बहुत सालों से इसे खिलौनों की बड़ी दुकानो में भी ढूंढना कठिन है। इसलिए बहुत खोजने पर भी हमारे शहर में तो लकड़ी के इस घनचक्कर का कोई वजूद नहीं मिला। जय ने तो लट्टू के लिए तोते की तरह रट पकड़ रखी थी तो आजकल की तकनीक 'ऑनलाइन ऑर्डर ' केे विकल्प से ही लट्टू मंगवाया गया लेकिन क्या बोले,, लाला जी होते तो झट से दे देते या मना कर देते लेकिन ऑनलाइन में तो कभी कभी ऑर्डर करके इंतजार करो और उसके बाद कब कैंसल का मैसेज आ जाए उसको भी सहन करो। इसलिए कुछ कारणवश ऑर्डर कैंसल हो गया। 
  एक वेबलेट नामक चाइनीज खिलौना तो पहले भी बहुत लाए जा चुके हैं इसलिए उसे अब वेबलेट नहीं 'ल से लट्टू' ही चाहिए। ढूंढते हुए हमें एक दुकान से लट्टू का एक विकल्प भी मिल गया। हमें मिला प्लास्टिक का एक लट्टू जो रंग बिरंगी लाइट के साथ घूमता है बस उसको किसी सुतली से नहीं बांधा जाता अपितु एक लीवर की सहायता से मरोड़ कर जमीन में घुमाया जाता है। इस लट्टू से तो जय भी खुश हो गया और हम भी।
     इसमें कोई शंका नहीं कि चलते हुए दिखने में इसकी रोशनी खूब भाती है लेकिन सच कहूं जितना संतोष लकड़ी के लट्टू चलाने में मिलता होगा वो इसे देखने में भी नहीं मिलता क्योंकि लट्टू घुमाना भी एक कला है। फिलहाल प्लास्टिक के लट्टू से जय थोड़ा शांत तो है लेकिन संतुष्ट नहीं इसलिए एक बार फिर से दूसरी साइट से लकड़ी के लट्टू का ऑर्डर दे ही दिया।
   एक और पुरानी जगह इसको ढूंढा गया। 25 दिसंबर को किसी काम से हरिद्वार जाना हुआ। वहां सड़क से लेकर गंगा के ऊपर बने पुल और घाट पर भी तरह तरह की छोटी छोटी दुकानें सजी थी जहां लकड़ी के समान मिल रहा था लेकिन लट्टू तो गायब था। यहां तक कि हरिद्वार के पुराने बाजार में हैंडीक्राफ्ट के समान के साथ लकड़ी के समान और खेल खिलौने की दुकानों में भी लट्टू का पता किया गया लेकिन वहां भी इसका कोई अस्तित्व नहीं मिला।   
   ऑनलाइन खरीदारी में आज एक नहीं दो लट्टू एक साथ मिले हैं। जिन्हें देखकर अपने बचपन भी याद आ गया। आज ऑफिस में मैं अपने बचपन के खेल से मिल रही थी इसलिए आज फिर से इसमें सुतली बांध कर चलाने की कोशिश कर रही हूं। अब तो रस्सी कैसे बांधते हैं इसमें भी उलझ रही हूं। खैर, कैसे भी करके रस्सी तो कस ही रही हूं।

    बचपन में तो इसे नहीं चला पाई लेकिन शायद अब इसे घुमा पाऊं इसलिए कोशिश जारी है। कभी तिरछा कभी उल्टा गिर रहा है लेकिन लट्टू तो कतई घूमने का नाम नहीं ले रहा है। बस जो घूम रहा था वो है विकास का दिमाग क्योंकि विकास को चिंता थी तो बस अपनी ऑफिस की टाइल्स की इसलिए चुप चाप विकास के सामने से खिसक कर मुझे इसे ऑफिस की छत पर जाकर थोड़ा प्रयास करना पड़ा लेकिन वहां भी सफलता नहीं मिली। निराशा तो हो रही थी लेकिन कुछ जिद्द भी थी इसलिए जैसे ही विकास बाहर निकले तो झट से मौके का फायदा उठाकर फर्श पर प्रयास करती गई। (साथ ही सोच रही हूं कि ऑफिस में कभी 'स्पिन दी टॉप एक्टिविटी' कराऊंगी जिसमें सभी लोग खूब मजे से प्रतिभाग करेंगे लेकिन हां देर तक लट्टू नचाने में बाजी तो मैं ही मारूंगी!)
  और कुछ प्रयासों के बाद ही मैंने सफलता प्राप्त कर ली वो भी बिना फर्श तोड़े। अब लट्टू घूम रहा था जिसे चलाकर जय से अधिक संतुष्टि तो मुझे मिली लेकिन इस लट्टू को मैं घर नहीं ले जा सकती क्योंकि खुशी से अधिक डर इसे घर ले जाते हुए लग रहा है।        

     डर इसलिए कि जय अभी छोटा है और लकड़ी के बीच लगी इस नुकीली कील से जय कहीं अपने को घायल न कर बैठे। एक और डर भी है कि खेल खेल में जय घर के शीशे या अन्य सामान को भी नुकसान पहुंचा सकता है। (क्या करें जैसे जैसे समय आगे बढ़ रहा है पहले के मां बाप की तरह दिलेर और सकारात्मक सोच मुझमें थोड़ा घट रही है और मेरे जैसा शायद आपका मन भी बचपन की खुशी से अधिक प्रैक्टिकल बातों का सोचे!) इसलिए कुछ सालों के बाद जब जय थोड़ा सा और सायना होगा तब इस खिलौने को दूंगी। बस सोचती हूं कि तब जय इतना भी सायना न हो जाए कि उसे वर्चुअल दुनिया के खेलों के आगे ये केवल एक फालतू लकड़ी का गोला लगे जिसके लिए वो आजकल हमें चक्कर घुमा रहा है।



   बचपन की इन छोटी छोटी चीजों को कभी आप भी याद करना। हमारे बचपन के दिन शानदार और साथ ही यादगार भी थे। समय के साथ सब बदल रहा है इसलिए अपने बच्चों के बचपन को भी छोटी छोटी चीजों से भी शानदार बनाए ताकि वो भी कभी ऐसे ही याद करें।

एक - Naari

Comments

  1. Purane khilone apne hunar or mehnat se khele jaate the aaj ki tarah batan dabakar nahin...sach mein lattoo chalana aasaan nahin hota tha.. appreciate your thoughts

    ReplyDelete
    Replies
    1. बचपन की याद ताजा हो गई

      Delete
  2. बढिया है लेख 😀 मैंने भी खेला है लट्टू अपने भाइयों के साथ 😀😀😀😀

    ReplyDelete
  3. बहुत सुंदर। बड़े सरल शब्दों में इतना अच्छा लेख लिख डाला। पुरानी यादें भी ताजा हो आई। साधुवाद

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

उत्तराखंडी अनाज.....झंगोरा (Jhangora: Indian Barnyard Millet)

मेरे ब्रदर की दुल्हन (गढ़वाली विवाह के रीति रिवाज)

अहिंसा परमो धर्म: