थोड़ा कुमाऊँ घूम आते हैं...भाग-2

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थोड़ा कुमाऊँ घूम आते हैं...भाग- 2   पिछले लेख में हम हरिद्वार स्थित चंडी देवी के दर्शन करके आगे बढ़ रहे थे यानी कि उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल से अब कुमाऊँ मंडल की सीमाओं में प्रवेश कर रहे थे बता दें कि उत्तराखंड के इस एक मंडल को दूसरे से जोड़ने के लिए बीच में उत्तर प्रदेश की सीमाओं को भी छूना पड़ता है इसलिए आपको अपने आप बोली भाषा या भूगोल या वातावरण की विविधताओं का ज्ञान होता रहेगा।     कुमाऊँ में अल्मोडा, नैनीताल, रानीखेत, मुक्तेश्वर, काशीपुर, रुद्रपुर, पिथौरागढ, पंत नगर, हल्दवानी जैसे बहुत से प्रसिद्ध स्थान हैं लेकिन इस बार हम केवल नैनीताल नगर और नैनीताल जिले में स्थित बाबा नीम करौली के दर्शन करेंगे और साथ ही जिम कार्बेट की सफ़ारी का अनुभव लेंगे।   225 किलोमीटर का सफर हमें लगभग पांच से साढ़े पांच घंटों में पूरा करना था जिसमें दो बच्चों के साथ दो ब्रेक लेने ही थे। अब जैसे जैसे हम आगे बढ़ रहे थे वैसे वैसे बच्चे भी अपनी आपसी खींचतान में थोड़ा ढ़ीले पड़ रहे थे। इसलिए बच्चों की खींचतान से राहत मिलते ही कभी कभी मैं पुरानी यादों के सफर में भी घूम रही थी।     कुमाऊँ की मेरी ये तीसर

बचपन की खट्टी मीठी कैंडी...पोप्पिंस (Poppins)

बचपन की खट्टी मीठी कैंडी...पोप्पिंस (Poppins)

आ गई न अपने बचपन की याद। पोप्पिंस नाम ही ऐसा है जिसे सुनकर बचपन की इंद्रधनुषी फलों की गोलियां याद आ जाती है। इसके साथ टैग लाइन भी जुड़ी थी,,,'पारले पोप्पिंस... दूं क्या।' अब तो याद आ ही गया होगा।

  इसबार जब मैं एक सुपरस्टोर में गई तो एक कोने में जाकर ठहर गई क्योंकि ऐसा लगा कि शायद मेरा बचपन भी वहीं कहीं कोने में छिपा हुआ है।
    इस रंग बिरंगे बचपन से मिलकर कुछ समय के लिए मैं भूल गई कि मैं कहां हूं और उसे ऐसे समेटने लगी जैसे कि अब ये फिर से मुझे कभी नहीं मिल पाएगा। 
   अब अपनी इस हरकत पर मुझे थोड़ी शर्म भी आ रही है क्योंकि जिन लोगों ने मुझे देखा होगा उन्होंने मुझे पक्का भूखी भीखारन समझा होगा क्योंकि उन्हें मैं ऐसे समेट रही थी जैसे की भंडारे में हलवा इकट्ठा कर रही हूं कि थोड़ी ही देर में ये खतम हो जाएगा इसलिए जल्दी से ले लो। इसी सोच से मैंने एक नहीं दो नहीं बल्कि जितनी भी उस डिब्बे में बची थी सब अपनी गाड़ी में भर ली।
  खैर, छोड़ो! किसी ने चाहे जैसा भी सोचा हो सच तो यह है कि बचपन तो हर किसी का निराला ही होता है और उससे जुड़ी हर याद एक खजाना ही होती है और इस बार मुझे बचपन की टॉफियों का खजाना पोप्पिंस के रूप में मिला। बस जैसे ही ये दिखा मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। इसे देखते ही मुझे अपने बचपन के दिन याद आ गए कि कैसे इसे खरीदते हुए हम अपने को राजा समझते थे और इसको खाते हुए लगता था कि कोई शाही कैंडी का मजा ले रहे हैं। 
  हां ये बात अलग है कि ऐसा शाही अनुभव का मौका थोड़ा काम ही मिलता था। याद पड़ता है कि उस समय इसकी कीमत शायद एक रुपया थी। एक रुपए में एक पोप्पिंस के अंदर 8 या 10 छोटी छोटी रंग बिरंगी अलग अलग स्वाद की गोलियां मिलती थी जिसे चूस चूस कर खाने में आनंद आता था लेकिन इतना धैर्य बच्चों में कहां इसलिए दांतो से तोड़कर पीसकर खाकर ही तसल्ली होती थी। तब एक रुपए की कीमत भी बहुत हुआ करती थी इसलिए बच्चों को आसानी से नहीं मिलता था और आज के समय में एक रुपए का सिक्का कभी घर में तो कभी सड़क पर भी यहां वहां लुढ़कता हुआ मिल जाता है लेकिन आज के इस महंगाई में दो रुपए में 8 रसभरी गोलियां का मिलना सच में बड़ी बात ही है।

   टॉफी या चॉकलेट तो बच्चे वैसे भी साझा करने में झिझकते हैं लेकिन पोपिंस में एक साथ इतनी मीठी फलों की गोली मिल जाती थी कि अगर किसी को देनी पड़े तो दर्द नहीं होता था इसलिए अगर पोप्पिंस को अपने भाई बहन या सहेली के साथ साझा करनी होती थी तो इसे बिना छिले बीच से तोड़ देते थे क्योंकि इन गोलियों को एक पंक्ति में सलीके से कागज में लपेटा जाता था जो आसानी से टूट जाती थी। फिर बस आधी गोलियां एक के पास और आधी दूसरे के पास। उसके बाद खाते समय एक दूसरे को चिढ़ाना भी जरूरी होता था कि मेरे पास तो इस रंग को आई है और इस स्वाद की आई है। गजब थे बचपन के दिन इन नन्ही कैंडी के साथ भी शरारत ही सूझती थी।

  सामान घर लाते ही बच्चों को सबसे पहले यही पोप्पिंस दिखी और देखते ही उनकी खुशी भी दुगनी हो गई क्योंकि उनके लिए ये कैंडी का एक नया आइटम था और दूसरा मैं उन्हें खुशी खुशी दे रही थी जबकि अन्य समय पर हर बार दांतों की सलाह के साथ ही टॉफी या चॉकलेट दिया जाता रहा है। 
आज के बच्चे ज्यादा होशियार हैं तभी तो जिया ने हर एक कैंडी के रंग देखकर ही बता दिए कि ये किस स्वाद की होगी जबकि हमें तो शायद रंग से ही मतलब होता था स्वाद तो सभी का अच्छा ही लगता था। जिया ने तो खाते ही बता दिया कि पीली गोली का स्वाद अनानास और नींबू वाला, संतरी रंग में संतरे का स्वाद, गुलाबी में रसबेरी का, हरे में तरबूज का और बैंगनी में ब्लूबेरी का स्वाद था लेकिन भोले जय के लिए तो हर गुलाबी या लाल रंग केवल स्ट्रॉबेरी और पीला रंग नींबू का होता है इसलिए वो बस खाने में मस्त था।

      (पारले पॉपिंस 1950 से बाजार में है।)

  सिर्फ दो रुपए के दाम में आज अपने बचपन की कई कीमती यादें ताजा हो गई। फुरसत से याद की जाएं तो और भी बहुत से ऐसे चुटपुट चीजे थी जो 90 के दशक में हमनें अपने बचपन में खूब खाई लेकिन आज कहीं गायब हैं। कभी फिर से वो मुझे दिखेंगी या मिलेंगी तो जरूर अपने बच्चों के साथ साथ आपको भी साझा करूंगी।


एक - Naari

Comments

  1. Sach mei mujhe bhi bachpan ke din yaad aa gaye...hum laal kala churan bhi khate they or ek cigrette jaise candy bhi aati thi...ab yaad karte hain to gold coin mei chocolate bhi hoti thi or haan Guru chela bhi tha,,jiska wrapper ko ulta sidha karte hue bhi ek hi shakal dikhti thi...waah...gajab ke din they or gajab ka post...

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  2. My favourite childhood candy...Poppins..

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  3. That's nostalgia ....so wonderful mam

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  4. Truly Reena , you brought our childhood days' memories back ..nostalgia...couldn't stop smiling ...
    Neelam Thapliyal

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  5. Bachpan ki yaadein wapas yaad aagai.aur chere pai muskan dilagye.

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