थोड़ा कुमाऊँ घूम आते हैं...भाग-2

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थोड़ा कुमाऊँ घूम आते हैं...भाग- 2   पिछले लेख में हम हरिद्वार स्थित चंडी देवी के दर्शन करके आगे बढ़ रहे थे यानी कि उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल से अब कुमाऊँ मंडल की सीमाओं में प्रवेश कर रहे थे बता दें कि उत्तराखंड के इस एक मंडल को दूसरे से जोड़ने के लिए बीच में उत्तर प्रदेश की सीमाओं को भी छूना पड़ता है इसलिए आपको अपने आप बोली भाषा या भूगोल या वातावरण की विविधताओं का ज्ञान होता रहेगा।     कुमाऊँ में अल्मोडा, नैनीताल, रानीखेत, मुक्तेश्वर, काशीपुर, रुद्रपुर, पिथौरागढ, पंत नगर, हल्दवानी जैसे बहुत से प्रसिद्ध स्थान हैं लेकिन इस बार हम केवल नैनीताल नगर और नैनीताल जिले में स्थित बाबा नीम करौली के दर्शन करेंगे और साथ ही जिम कार्बेट की सफ़ारी का अनुभव लेंगे।   225 किलोमीटर का सफर हमें लगभग पांच से साढ़े पांच घंटों में पूरा करना था जिसमें दो बच्चों के साथ दो ब्रेक लेने ही थे। अब जैसे जैसे हम आगे बढ़ रहे थे वैसे वैसे बच्चे भी अपनी आपसी खींचतान में थोड़ा ढ़ीले पड़ रहे थे। इसलिए बच्चों की खींचतान से राहत मिलते ही कभी कभी मैं पुरानी यादों के सफर में भी घूम रही थी।     कुमाऊँ की मेरी ये तीसर

मजेदार यात्रा या जाम की उलझन...

मजेदार यात्रा या जाम की उलझन...


पिछले रविवार को रुड़की जाना हुआ और वो भी बच्चों के साथ। लंबे समय के बाद बच्चों की दूसरे शहर जाने की पहली यात्रा थी इसलिए बच्चे तो अपनी पूरी मस्ती में होंगे ही। उनके लिए तो यात्रा का कारण चाहे कुछ भी हो उद्देश्य तो पिकनिक पर जाने वाला होता है लेकिन बच्चों के साथ मेरे लिए भी ये एक नया अनुभव था क्योंकि मैं भी बहुत समय के बाद इस तरफ जा रही थी। सुना था कि दिल्ली जाते समय डाट काली मंदिर के पास अब जाम नहीं लगेगा क्योंकि अब दिल्ली जाने के लिए मंदिर के साथ एक नई डबल लेन टनल का निर्माण हो चुका है। जहां पहले सहारनपुर या दिल्ली जाते समय डाट काली की पुरानी सुरंग में कई बार जाम में फंसना पड़ता था वहीं अब डबल लेन में सरपट आगे बढ़ा जा सकता है।
   चूंकि हम लोग हिंदू हैं तो रास्ते में आने वाले सभी मंदिरों में सिर अपने आप ही झुक जाता है इसीलिए इस रास्ते के जाम का तो पता नहीं लेकिन मंदिर के आगे से गुजरना जरूर याद आया। 

    डाट काली मंदिर 2011

    खैर, मोहंड के जंगलों से आगे निकलकर बिहारीगढ़ के पकौड़े भी याद आए लेकिन हाइवे की शानदार सड़क पर गाड़ी ने जो रफ्तार पकड़ी थी वो रुड़की पहुंच कर ही धीमी पड़ी इसीलिए बस बच्चों का खाना पीना रुड़की के ही एक रेस्टोरेंट राजभोग में कराया गया। आरंभ गोलगप्पों के गपापप खाने से किया और वेज थाली खाने के बाद मिठाई से तृप्त हुए लेकिन बच्चे तो बिना आइसक्रीम के कहां मानते तो उन्होंने भी खाना कम लेकिन आइसक्रीम की खूब ठंडक ली और फिर जब बिल की बारी आई तो पता लग गया कि राजधानी के नाम पर हम देहरादून में बस ठगे जा रहे हैं। लजीज खाना तो यहां पर भी था वो भी साफ सफाई के साथ फिर भी देहरादून की अपेक्षा पैसे कम थे। एक दुकान से हमनें कुछ फल भी लिए वो भी यहां की अपेक्षा सस्ते थे और जब खिलौने लेने की बारी आई तो वो भी देहरादून की अपेक्षा कम दामों में मिल गए। अच्छा लगा कि चलो कहीं तो इस महंगाई से राहत मिली लेकिन इसी शहर में रह रहे कई लोगों के लिए तो ये दाम भी बहुत ऊंचे हैं।

   रुड़की में तीन घरों में जाना हुआ जो सभी एक ही इलाके में थे। यहां हमारे गांव (चामी पट्टी अस्वालस्युं, पौड़ी गढ़वाल) के रिश्तेदारों से भेंट की और उनकी कुशलक्षेम ली। पहले तो गांव की कुल देवी माता झालीमाली की सामूहिक वार्षिक पूजा में सभी मिल जाते थे लेकिन कुछ वर्षों से हमारा जाना भी नहीं हो पाया और पिछले दो वर्षों से तो सभी की यात्राओं पर अंकुश लग गया है। हालांकि सभी के साथ पहले भी बहुत अधिक साथ नहीं रहा है क्योंकि सामूहिक कार्य में सभी व्यस्त भी होते हैं लेकिन आज जब सभी मिले तो बहुत ही अच्छा लगा।






    जहां हम बड़े गांव की बातों का आनंद ले रहे थे तो वहीं जिया और जय किसी के यहां चाय तो किसी के यहां जूस का आनंद ले रहे थे और हैंडपंप के साथ अपना जोर आजमा रहे थे। उन्होंने अभी तक केवल नल से ही पानी आते हुए देखा था इसलिए ये हैंडपंप उनके लिए एक खेल भी बन गया। (सोच रही थी कि पहले लोग छुट्टी वाले दिन यूं ही अपने भाई बंधु, रिश्तेदार से भी मिलने चले जाते थे बिना किसी औपचारिकता के लेकिन अब मिलने का कारण ढूंढा जाता है किसी की शादी विवाह हो या अन्य कोई कारज तभी जाना है वरना आप अपने यहां ठीक और हम अपने यहां!! अब बच्चों को लिए हम फैंसी दुनिया में घुमाने चले जाते हैं जहां न तो रिश्तों की समझ बढ़ती है और न ही किसी के प्रति भावनाएं मिलती हैं बस वहां तो अपने तक सीमित खुशियां होती हैं वो भी पैसों में खरीदी हुई।)


और जब देहरादून वापस आने को हुए तो ऐसा लग रहा था जैसे कि अभी गांव से घर वापसी हो रही है क्योंकि आते समय भाई साहब ने अपने घर की ताजा लौकी और तोरी जो हमारे लिए बांध दी। जैसे गांव से घर आने पर गांव के लोग भेंट स्वरूप कुछ न कुछ कुटरी (पुराने कपड़े से बनी पोटली) में कभी झंगोरा, कभी मंडुआ, कभी अखरोट बांध देते हैं या फिर कद्दू, खीरा या लौकी देते हैं वैसा ही आभास आज हुआ। 

  वापस आते हुए भी झट से गाड़ी खुली सड़क पर दौड़ी लेकिन आते हुए उसी नई सुरंग से पहले ही जाम तो मिल ही गया क्योंकि नहर में एक छोटी सी पुलिया पर तो एक बार में केवल एक ओर का वाहन ही चलता है जो लोगों को समझ नहीं आता है। 


   'जनाब यहां रुकना कोई नहीं चाहता सब दौड़ना चाहते हैं वो भी बेलगाम' और ऐसे ही लोग होते हैं जो जाम को और अधिक विकट बनाते हैं। मुझे समझ में ये नहीं आता कि पढ़े लिखे होकर भी यातायात के अनुभव में बिलकुल मूर्ख क्यों होते हैं ये लोग!! ऐसी आड़ी तिरछी तेज घुमा घुमाकर कितना आगे पहुंचते होंगे और कितनी जल्दी पहुंचते होंगे ये लोग!! मुश्किल से  शायद 10 मिनट का अंतर पड़ता होगा लेकिन इनकी बेवकूफियों से घंटो जाम जरूर लग जाता है और ऐसा करने वालों में अधिकांश गाडियां दिल्ली और हरियाणा की थी और कुछ रुड़की देहरादून की भी क्योंकि यह रास्ता ही दिल्ली देहरादून का था।
      ऐसा लगता है कि वो लोग किन्ही बंदिशों से छूटकर यहां आए हैं इसलिए बस बढ़े चलो फिर दूसरी ओर से आ रही गाड़ी के मुंह पर लगा लो अपनी गाड़ी। उसके बाद फिर यहां वहां बगले झांको कि कहां से जगह बने और आगे जाएं। इनकी जल्दीबाजी का कारण शायद आपातकाल स्थिति भी हो लेकिन लेकिन इस स्थिति में और भी लोग हो सकते हैं जो इनकी वजह से जाम में उलझ गए हों।
  गुस्सा तो जरूर आता है ऐसे लोगों को देखकर कि इन्हें बिलकुल भी पास न दिया जाए लेकिन क्या करें अगर इनके जैसे और भी अड़ियल हो जाएं तो जाम मिनटों के बजाय घंटों में बदल जाए इसलिए थोड़ी रहमदिली तो रखनी पड़ेगी।    

 मुझे लगता है कि ट्रैफिक पुलिस को ऐसे लोगों के लिए विशेष सुविधा देनी चाहिए और इन्हें ऐसे मार्ग से भेजना चाहिए जहां ये अपनी गाड़ी बे रोकटोक से चलाते जाएं। एक ऐसी सड़क हो जो इन्हें शहर के बाहर ही गोल गोल घुमाती रहे और एक लंबा चक्कर लगाकर फिर उसी जगह पर मिलाए जहां पर इनकी वजह से जाम लगा था।
     ऐसा कतई नहीं है कि ऐसी गाड़ी केवल दिल्ली हरियाणा की होती हैं ऐसे बहुत से लोग दिख जाते हैं जो इस तरीके से सड़क पर गाड़ी चलाते हैं और जाम का कारण भी बनते हैं। यह समझना पड़ेगा कि जाम का झंझट सभी के लिए होता है और इससे बचने के लिए थोड़ा धैर्य और अनुशासन तो गाड़ी चलाते समय भी रखना ही पड़ेगा।

   खैर! जाम से बाहर आकर फिर से डाट काली की नई सुरंग को पार करते हुए आखिर देहरादून शहर पहुंच ही गए। पहले भी जाते हुए जाम लगता था और आज फिर से वही हाल हुआ। हमनें जाम से बचने के लिए पहाड़ काटकर सुरंग बनाई अब शायद फिर जाम से बचने के लिए पहाड़ काटकर बड़ा पुल बनाएं और फिर थोड़ी दूर आगे बढ़कर जाम से निजात के लिए और भी पेड़ काटे या किसी का रोजगार छीनते हुए सड़क चौड़ी कर दें लेकिन कहीं न कहीं तो आपस में उलझेंगें ही। 


     हमारी यात्रा तो मजेदार ही थी बस उस ट्रैफिक जाम वाले समय को भुला दें तो! सकुशल घर पहुंच कर हमारी ये छोटी सी यात्रा खत्म हो गई लेकिन किसी की यात्रा तो अभी भी किसी न किसी सड़क पर जूझ रही है इसलिए जाम की उलझनों से बचने के लिए थोड़ी समझदारी तो सबको दिखानी पड़ेगी।

(12 सितंबर 2021 यात्रा: देहरादून से रुड़की)


एक -Naari

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