थोड़ा कुमाऊँ घूम आते हैं...भाग-2

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थोड़ा कुमाऊँ घूम आते हैं...भाग- 2   पिछले लेख में हम हरिद्वार स्थित चंडी देवी के दर्शन करके आगे बढ़ रहे थे यानी कि उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल से अब कुमाऊँ मंडल की सीमाओं में प्रवेश कर रहे थे बता दें कि उत्तराखंड के इस एक मंडल को दूसरे से जोड़ने के लिए बीच में उत्तर प्रदेश की सीमाओं को भी छूना पड़ता है इसलिए आपको अपने आप बोली भाषा या भूगोल या वातावरण की विविधताओं का ज्ञान होता रहेगा।     कुमाऊँ में अल्मोडा, नैनीताल, रानीखेत, मुक्तेश्वर, काशीपुर, रुद्रपुर, पिथौरागढ, पंत नगर, हल्दवानी जैसे बहुत से प्रसिद्ध स्थान हैं लेकिन इस बार हम केवल नैनीताल नगर और नैनीताल जिले में स्थित बाबा नीम करौली के दर्शन करेंगे और साथ ही जिम कार्बेट की सफ़ारी का अनुभव लेंगे।   225 किलोमीटर का सफर हमें लगभग पांच से साढ़े पांच घंटों में पूरा करना था जिसमें दो बच्चों के साथ दो ब्रेक लेने ही थे। अब जैसे जैसे हम आगे बढ़ रहे थे वैसे वैसे बच्चे भी अपनी आपसी खींचतान में थोड़ा ढ़ीले पड़ रहे थे। इसलिए बच्चों की खींचतान से राहत मिलते ही कभी कभी मैं पुरानी यादों के सफर में भी घूम रही थी।     कुमाऊँ की मेरी ये तीसर

बद्रीनाथ/बद्रिकाश्रम/बद्रिनाथपुरी/बद्रीविशाल,,, भगवान नारायण की तपोभूमि

जय बद्री विशाल।।

 बद्रीनाथ : भगवान नारायण की तपोभूमि
(जानकारी, महत्व, पौराणिक कथा)

   कोरोना का कहर जैसे जैसे बढ़ रहा है वैसे वैसे हमारी भी ईश्वर के प्रति आस्था भी बढ़ रही है। अब तो काले कोरोना का एक अलग से सिर दर्द बना हुआ है इसीलिए अब जितना कोरोना बाहर फैला हुआ है उतना ही डर मन के अंदर भी है। अब तो सभी अपने अपने ईश्वर को याद कर रहे हैं जिससे कि मानसिक शांति और शक्ति दोनों मिले। 

   अप्रैल, मई से ही देश में हाहाकार बढ़ गया और मई से ही सुख, शांति और मोक्ष के धाम कहे जाने वाले बद्रीनाथ जी के कपाट भी 18 मई को खुल गए। इसी के साथ विश्वास भी बढ़ गया कि भगवान अब सबकी प्रार्थनाएं सुनेंगे और अब सब ठीक हो जाएगा।
     वैसे तो सभी को पता है कि हिंदू संस्कृति में आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा चार मठ स्थापित किए गए जिनमें कि दक्षिण के तमिलनाडु राज्य में  रामेश्वरम, गुजरात में द्वारिका, उड़ीसा में जगन्नाथ पुरी और उत्तराखंड में बद्रीनाथ है। इन्हीं चार मठों को हम चार धाम के नाम से जानते हैं। लेकिन उत्तराखंड में बद्रीनाथ धाम समेत और भी तीन धाम गंगोत्री, यमनोत्री और केदारनाथ भी हैं जिन्हें हम संयुक्त रूप में छोटा चार धाम या हिमालय के चार धाम से भी जानते है।
   अन्य वर्षों की बात होती तो इस समय हरिद्वार और योग नगरी से लेकर इन धामों तक अनगिनत तीर्थयात्री अपनी बस, कार, टैंपो ट्रैवलर या पैदल ही दिखाई दे जाते। साथ ही साथ विकास और उनके साथियों की गाड़ी भी तैयार रहती, भगवान बद्रीनाथ जी के दर्शनों के लिए क्योंकि बद्रीनाथ जी का मंदिर छः माह के बाद जो खुल रहा था और अपने ईष्ट प्रभु को देखने की ललक तो सभी की ही होती है। हां! यह अलग बात है कि वहां जाकर उनके दर्शन करने का पुण्य हर किसी को नहीं मिल पाता और उन्हीं में से एक मैं भी हूं। लेकिन क्या करें, इस समय जो संकट है उससे बचने का सही तरीका ही यही है कि अपने घर में रहकर ही भगवान का सुमिरन किया जाए।

बद्रीनाथ से संबंधित सामान्य जानकारी
   
   यह धाम उत्तराखंड राज्य के चमोली गढ़वाल में अलकनंदा के तट पर स्थित भगवान विष्णु जी का मंदिर है इसलिए इस धाम को विष्णुधाम भी कहते है। यह मंदिर नर और नारायण नाम की दो पर्वत श्रेणी के बीच स्थित है। इसका निर्माण 8वीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य जी द्वारा किया गया था। उन्होंने बद्रीनारायण की मूर्ति नारद कुंड से निकालकर यहां स्थापित की। यह प्रतिमा भी भगवान विष्णु जी की स्वयं प्रकट हुई है। हिमालयी पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य बसे बद्रीनाथ की समुद्र तल से ऊंचाई 3100 मीटर है। मंदिर में भगवान विष्णु की मूर्ति शालिग्राम शीला की है जिसमें भगवान पद्मासन में विराजमान हैं जबकि मुख्यतः विष्णु जी के चित्र या मंदिर में हमेशा उन्हे खड़े हुए ही देखा है। 


    मनोरम और सुरम्य प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर इसके आसपास के क्षेत्र को भी बद्रीनाथ ही कहा जाता है। यहां एक गर्म पानी का स्त्रोत भी है जिसे तप्त कुंड कहते है । ऐसा माना जाता है कि तीर्थयात्री दर्शनों से पहले इस कुंड में स्नान कर अपने को शुद्ध करके पापममुक्त होते है। 
     बद्रीनाथ मंदिर वर्ष के छः माह जाड़ों के समय बंद रहता है क्योंकि उच्च हिमालयी परिस्थितियों में रहना संभव नहीं है और माना जाता है कि भगवान विष्णु जाड़ों में यहां विश्राम करते है और बसंत पंचमी के अवसर पर पंडित के द्वारा मंदिर के कपाट खोलने का दिन निकाला जाता है और फिर बद्रीनाथ मंदिर को विधिविधान के साथ छः माह, ग्रीष्म ऋतु (अप्रैल, मई) के लिए खोल दिया जाता है। विजयादशमी के दिन कपाट बंद करने की तिथि निकाली जाती है और पूजा अर्चना के साथ विष्णु जी को माणा गांव द्वारा तैयार घृत कंबल ओढाकर बद्रीनाथ जी के कपाट अक्टूबर-नवंबर तक बंद कर दिए जाते है और अगले छः माह तक इस जगह पर किसी भी मनुष्य का प्रवेश निषेध होता है।
   यह माना गया है कि कपाट बंद होने पर भगवान की आरती स्वयं भगवान नारद जी और अन्य देवता करते है और कपाट खुलने पर पूजा का अधिकार मुख्य पुजारी के रूप में केरल राज्य के नंबूदरी ब्राह्मण परिवार को दिया गया है जिन्हें रावल कहते हैं और इन्हें ही शंकराचार्य के वंशज माना जाता है। 
   यह मंदिर अखंड दीपक का प्रमाण भी है क्योंकि छः माह के बाद कपाट खुलने पर भी दीपक जलता हुआ ही मिलता है। इस दीपक का तेल भी गढ़वाल के शाही राज परिवार के द्वारा गाडू घड़ा (तेल का घड़ा)  के रूप में आता है।

बद्रीनाथ/ बद्रिकाश्रम का महत्व 


  बद्रीनाथ अत्यंत प्राचीन मंदिर है जिसका उल्लेख स्कंद पुराण से लेकर महाभारत तक मिलता है। चूंकि हम हिंदू हैं तो हमारी संस्कृति और धर्म के प्रमाण हमारा पौराणिक साहित्य और ग्रंथ ही है और बद्रीनाथ तो मोक्ष धाम के साथ साथ एक दिव्य धाम भी है और यह भी हमारे ही एक पुराण में लिखा गया है,,,

बहुनि सन्ति तीर्थानी दिव्य भूमि रसातले। बद्री सदृश्य तीर्थं न भूतो न भविष्यतिः॥
  (स्वर्ग, पृथ्वी तथा नर्क तीनों ही जगह अनेकों दिव्य तीर्थ स्थान हैं किंतु बद्रीनाथ जैसा कोई तीर्थ न कभी था, और न ही कभी भविष्य में होगा)

   बद्रीनाथ तो साक्षात भगवान विष्णु जी की भूमि है। यहां स्वयं भगवान ने तप किया था और कहा जाता है कि यहां पर कर्मों का 10000 गुना फल मिलता है। यहां जप, तप, दान, पुण्य सबका दस गुना फल मिलेगा और इसी प्रकार बुरे कर्मों का फल भी दस गुना ही मिलेगा। बद्रीनाथ में किया गया एक मंत्र का जाप भी यहां दस हजार मंत्रो के बराबर है इसीलिए यहां पर कई साधु, संत, ऋषि, मुनियों ने तप किया है और आज भी यहां कई साधक अपनी तपस्या और योगध्यान के लिए आते है जिससे की उन्हें शीघ्र ही फल मिले। यहां दुनियाभर से लोग भगवान बद्रीनारायण के दर्शन करने के लिए आते हैं। इसके अतिरिक्त भी इस धाम का महत्व है जिसके लिए लोग यहां तीर्थ के लिए आते है,,,

मोक्ष के लिए बद्रीनाथ: इस भूूूूमि को हर युग में अलग अलग नामों से जाना जाता रहा है। स्कंदपुराण में बद्रीनाथ को मुक्तिप्रदा के नाम से जाना जाता था।

'जो जाए बदरी, वो ना आए ओदरी' जिसका अर्थ है जो जो व्यक्ति बद्रीनाथ जाता है, उसे पुन: उदर यानी गर्भ में पुनः नहीं आना पड़ता है, वह जीवन मरण के चक्र से परे हो जाता है।

     मैंने कुंभ से संबंधित एक लेख  लिखा था कि पहले तीर्थ यात्रा केवल वृद्ध लोग ही किया करते थे ताकि वे अंतिम समय में प्रभुभक्ति में लीन होकर उसी पावन भूमि में मोक्ष प्राप्त करे। इसी कारण से प्राचीनकाल से ही बद्रीनाथ भी मोक्ष प्राप्ति का एक दिव्य तीर्थधाम रहा है। पुराणों में भी उल्लेख मिला है कि ऋषि गंगा और उसके आगे भृगुधारा के बीच की भूमि को पृथ्वी का बैकुंठ माना गया है इसीलिए बद्रीनाथ धाम को आठवां वैकुंठ भी कहा जाता है और उल्लेख है कि पंचशीला के मध्य जो भूभाग है (नारायण शीला) वही शुद्ध बद्रीकाश्रम है और भगवान कहते हैं कि जब भी कलयुग में यहां कोई आएगा और इस शिला में बैठकर लक्ष्मी और मेरा अभिषेक करेगा, वह परमधाम बैकुंठ को प्राप्त होगा।

   महाभारत युद्ध में कौरवों की हार और पांडवों की विजय हुई थी और इस युद्ध में धर्म की विजय तो हुई थी किंतु साथ ही साथ भाई-भाई, गुरु-शिष्य और अन्य संबंधों का भी ह्रास हुआ था और इसी अपराधबोध के चलते जब पांडव पापमुक्ति के लिए निकले तो उन्हें भी मोक्ष हिमालय में बसे बद्रीनाथ में ही मिला।     
  
       बद्रीनाथ में मोक्ष के संबंध में एक उल्लेख भी है कि युद्ध के बाद जब भगवान अपने बैकुंठ धाम जाने लगे तो उद्धव जी ने कहा कि "प्रभो ! मैं तो आपका दास हूँ। आपका उच्छिष्ट प्रसाद, आपके उतारे वस्त्राभरण ही मैंने सदा उपयोग में लिये हैं। आप मेरा त्याग न करें। मुझे भी आप अपने साथ ही अपने धाम ले चलें।" तब भगवान ने मुक्ति और मोक्ष के लिए उद्धव जी को बद्रीकाश्रम जाने की आज्ञा दी।

दानपुण्य के लिए बद्रीनाथ: हमारे हिंदू शास्त्र और परंपरा में दान भी एक धर्म है। हमारे शास्त्रों में भी लिखा गया है
दानं दमो दया क्षान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम् ॥
  बद्रीनाथ एक ऐसा स्थान है जो मोक्षदायक तो है साथ ही साथ पुण्यभूमि भी है और जो दान पवित्र स्थान में और उत्तम समय में किसी सुपात्र को करता है वही सात्विक दान है। प्राचीन काल से यह दान ब्राह्मण को किया गया है क्योंकि उसका कार्य समाज को शिक्षित करने का होता है और धर्म को आगे बढ़ाने का भी। बताया गया है कि ब्राह्मण को किया गया दान छः गुना फलदायी होता है और बद्रीनाथ जी तो वो पुण्यभूमि है जहां दान का फल भी 10000 गुना बढ़ जाता है।

 
   बद्रीनाथ में सलफरयुक्त गर्म पानी का स्त्रोत है जिसे तप्त कुंड कहते है और यह स्थान धार्मिक दृष्टि से यह अग्नि तीर्थ है। यह कुंड अग्नि का प्रतीक है और लिखा गया है कि जब भगवान विष्णु जी यहां तप करते हुए हिम से ढक गए थे तो अग्नि देव ने ही वहां ऊष्मा दी थी और तब भगवान ने अग्नि देव को तीन वर दिए और बद्रिकाश्रम में अपने साथ तप्त कुंड के रूप में रहने की आज्ञा दी। इस कुंड में लोग स्नान करके पापमुक्त होते हैं। इसीलिए यहां स्थित नारद शीला पर दान का महत्व और भी बढ़ जाता है। यहां पर अपनी प्रिय वस्तु का दान करने से मनुष्य का पुण्य कई गुना बढ़ जाता है।
    वैसे तो मनुष्य की सबसे प्रिय अपने प्राण है और इसीकारण से पहले सिर्फ सन्यासी और वृद्ध ही बद्रीनाथ का तीर्थ करते थे जिससे की कठिन यात्रा करते हुए वे अपने प्राण पावनधाम में त्याग सके (कठिन परिस्थिति वश)। ठीक इसी प्रकार से यहां पर स्वर्णदान का अपना अलग महत्व है क्योंकि मनुष्य को यह धातु भी अधिक प्रिय होती है। लेकिन यहां अपनी सामर्थ्य और श्रद्धा से भी दान होता है जिसका पुण्य भी उसी के समान कई गुणा अधिक मिलता है।

पिंडदान के लिय बद्रीनाथ: बद्रीनाथ एक पित्रकारक तीर्थ भी है। यहां दूर दूर से लोग अपने पितरों का तर्पण और पिंड दान करने आते हैं जिससे की मृत आत्माओं को शांति और मोक्ष मिले। यहां स्थित एक स्थान ब्रह्मकपाल के नाम से जाना जाता है जहां लोग अपने पितरों का पिंडदान करते हैं और स्कंद पुराण के अनुसार ब्रह्मकपाल एक ऐसा तीर्थ है जो गया से आठ गुणा अधिक फलदायी होता है।
   मंदिर से लगभग 500मीटर दूरी पर एक समतल चबूतरा है जिसे ब्रह्मकपाल कहते हैं। इसी स्थान पर पांडवों ने पापमुक्ति के लिए अपने पितरों का पिंडदान किया था।
    इस स्थान के विषय में कहा जाता है कि जब सृष्टि के निर्माण में ब्रह्मा जी ने अपनी पुत्री पर बुरी नजर डाली तो भगवान शिव क्रोधित हो गए और अपने त्रिशूल से ब्रह्मा जी का एक सिर काट दिया और तभी से पंचमुखी ब्रह्मा जी चतुर्मुख हो गए लेकिन ब्रह्मा जी का सिर शिव जी के हाथ से ही चिपका रह गया और ब्रह्महत्या के पाप से शिव जी अलकनंदा के तट पर पहुंचे और यहीं पर शिवजी के हाथ से चिपका कपाल इसी जगह छूटा इसकारण इस स्थान को ब्रह्मकपाल कहा जाता है।
   इसस्थान पर पितरों के लिए किए गए कार्य को ब्रह्मकपाल क्रिया कहा जाता है। इसीलिए सदियों से तीर्थ यात्री बद्रीनाथ जी के दर्शन के साथ अपने पितरों के लिए ब्रह्मकपाल की क्रिया ब्राह्मण द्वारा कराकर अपने को धन्य मानते हैं।

पौराणिक कथाओं का भंडार,, श्री बद्रीनाथ धाम


    बद्रीनाथ धाम के स्वयं पौराणिक कथाओं का भंडार है। हर एक जगह का उल्लेख हमें हिंदू धर्म के पुराण और ग्रंथो में मिल जाता है जैसे बद्रीनाथ का नाम कैसे पड़ा? 


    बद्री शब्द संस्कृत भाषा से लिया है जिसका अर्थ है बेर।  बद्रीनाथ के नामकरण के पीछे एक पौराणिक कथा भी है। इस कथा का एक सूक्ष्म रूप साझा कर रही हूं,,,

  
      सहस्रबाहु नामक एक राक्षस था जिसने दस हजार वर्ष तक तप किया था। उसके तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने हजार सिर और हजार भुजाओं का वरदान दिया और इस तरह उसका नाम सहस्रबाहु पड़ा। सहस्रबाहु के अत्याचार से भयभीत देवता जब सहायता के लिए भगवान नारायण के पास गए तो उन्होंने बताया कि सहस्रबाहु का एक सिर काटने के लिए दस हजार वर्ष का तप चाहिए और नारदमुनि ने भगवान नारायण को ऐसे स्थान के बारे में बताया जहां एक दिन का तप दस हजार गुना फल देने वाला था। इसीलिए भगवान नारायण बद्रिकाश्रम आ गए और अपनी लीला से अष्ट वासु और माता मूर्ति के पुत्रों के रूप में जन्म लिया। जिनका नाम नर और नारायण था। बद्रिकाश्रम में नर और नारायण दोनों ने बारी बारी से तप किया। जब नर तप करते तो नारायण युद्ध करते और फिर नारायण तप करते और नर युद्ध करते। इस तरह से  सहस्रबाहु के साथ युद्ध करके धीरे धीरे उसकी भुजा और सिर काटते गए। द्वापरयुग में यही नर और नारायण दोनो कृष्णऔर अर्जुन के रूप में प्रकट हुए और नरकासुर का वध किया। 

  नरकासुर जन्म से ब्राह्मण था इसलिए ब्रह्महत्या के कारण तप करने बद्रीकाश्रम चले गए। तप और ध्यान करते हुए  वर्षा, धूप, आंधी तूफान और भीषण हिम के कारण विष्णु जी बर्फ से ढकने लगे। भगवान को इसप्रकार  देखकर माता लक्ष्मी जी का मन व्याकुल हो गया और माता उनकी सुरक्षा करने उनके स्थान पर चली गई और एक बदरी यानी बेर का वृक्ष बनकर उनके पास खड़ी हो गई। अब भगवान के ऊपर पड़ने वाली हिम, धूप और वर्षा उनके ऊपर पड़ने लगी। माता ने अग्नि देव का स्मरण किया और उनकी ऊष्मा से भगवान नारायण का तप पूरा हुआ और जब भगवान ने माता लक्ष्मी को बदरी के वृक्ष रूप में हिम से ढका देखा तो भगवान विष्णु जी उनकी सेवा भाव से अत्यंत प्रसन्न हुए और कहा कि,, हे देवी! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा और तुम्हारा नाम मुझ से प्रथम लिया जाएगा क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बद्री वृक्ष के रूप में की है सो आज से मुझे बद्री के नाथ-बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा।
     इसलिए इस मंदिर में भगवान विष्णु जी के साथ लक्ष्मी जी  का भी पूजन होता है लेकिन उनका मंदिर गर्भ गृह से अलग है क्योंकि मंदिर के गर्भ गृह में बद्री पंचायत है। केवल कपाट बंद होने पर ही लक्ष्मी जी की मूर्ति को भी गर्भ गृह में रखा जाता है। गर्भ गृह में बद्री पंचायत में  भगवान विष्णु जी के साथ और उद्धव, कुबेर, नारद, नर नारायण और गरुड़ जी की भी मूर्तियां है।
   वैसे मैंने तो किसी से नहीं सुना कि वहां जंगली बेरी के पेड़ मिलते है लेकिन बद्रीनाथ जी में तुलसी बहुतायत में मिलती है यह तो बहुतों से सुना है। यहां तुलसी वन भी है और भगवान बद्रीनारायण को तुलसी की माला, कच्चे चने की दाल, मिश्री, गोला और कच्ची मूंगफली भी प्रसाद के रूप में चढ़ाई जाती है। लेकिन हां, हिमालय और उत्तराखंड से संबंधित प्रसिद्ध किताब "द हिमालयन गजेटियर" जिसे विख्यात एडविन टॉमस एटकिंसन ने लिखा था, उसमें बताया गया है की इस स्थान पर पहले बेर के बहुत सारे वन होते थे लेकिन अब उनका आता पता नहीं है।


   पौराणिक कथाओं के अनुसार जब भगवान विष्णु अपनी तपस्या और ध्यान के लिए उचित स्थान देख रहे थे तो वे हिमालय की ओर आ गए और अलकनंदा के समीप उनको यह स्थान अति उत्तम लगा किंतु यह स्थान भगवान शिव की नगरी का था। इस पूरे स्थान को केदारखंड के नाम से ही जाना जाता था। तब भगवान विष्णु जी ने अपनी लीला से एक छोटे से बालक का रूप ले लिया और नीलकंठ पर्वत के समीप रोने लगे। उनके रूदन सुनकर मां पार्वती का ह्रदय द्रवित हो गया और उन्हें उठाकर अंदर लाने लगी तभी भगवान शिव ने पार्वती जी को सचेत किया क्योंकि भगवान शिव विष्णु जी को पहचान गए थे किंतु मां पार्वती नहीं मानी। और जब शिव पार्वती बाहर से अंदर आने लगे तो उन्हें वहां का द्वार बंद मिला और तभी बालक ने वह स्थान अपने ध्यान और तप के लिय मांग लिया और तभी से यह स्थान भगवान विष्णु जी का हो गया। बद्रीनाथ से ही एक ऊंचा हिम शिखर भी दिखाई देता है जिसे नीलकंठ पर्वत कहते है और जो गढ़वाल क्वीन के नाम से प्रसिद्ध है।

  नर और नारायण जिन स्थानों में पड़ाव किया उन्हें वृद्ध बद्री, योग बद्री, ध्यान बद्री और भविष्य बद्री कहा गया और उसके बाद उन्हें अलकनंदा नदी के तट पर यह स्थान उपयुक्त लगा जिसे उन्होंने बद्री विशाल का नाम दिया। भगवान विष्णु जी ने नर नारायण के रूप में ही इसी स्थान पर 66000 वर्ष तक तपस्या की थी।
 
  बद्रीनाथ में ही महर्षि वेद व्यास जी ने श्रीमद्भगवद्‌गीता और अठारह पुराणों की रचना की। बद्रीनाथ से तीन किलोमीटर आगे भारत के अंतिम गांव माणा  गांव में ही व्यास गुफा और गणेश गुफा भी है। यह वही स्थान है जहां गीता और पुराण की रचना करते हुए व्यास जी ने कहा था और गणेश जी ने उन्हें लिखा था। इसी माणा पास से ही आती हुई नदी को  सरस्वती नदी माना जाता है इसलिए यह सरस्वती नदी का उद्गम स्थल भी है। भीमपुल के समीप ही पूजा अर्चना की जाती है जो आगे जाकर अलकनंदा में मिलती है और इस स्थान को केशव प्रयाग के नाम से जाना जाता है। उसके बाद सरस्वती नदी और कहीं नहीं मिलती सिर्फ इलाहाबाद के संगम प्रयाग पर ही दिखेगी।


     भीमपुल के लिए भी कहां जाता है कि जब पांडव लोग मोक्ष प्राप्ति के लिए हिमालय आए तो इस जगह पर नदी के कारण आगे नहीं बढ़ पाए तब भीम ने ही अपने बल से आगे बढ़ने का मार्ग बनाया जिसे अब भीम पुल कहा जाता है।
   बद्रीनाथ जी के आसपास की हर एक जगह बहुत ही रमणीय और रोचक भी है। हर एक जगह की एक अलग किंवदंती, अलग लोक और पौराणिक कथा है जैसे
चरणपदुका वह स्थान है जहां विष्णु जी के पैर के निशान है, शेषनेत्र शीला है जिसके बारे में कहा जाता है कि शेषनाग शीला के रूप में इस विष्णुधाम में उपस्थित हैं, वसुधारा जल प्रपात है, वस्सुधारा का नाम नर नारायण के पिता अष्टवासुकी के नाम पर ही है। कहा जाता है कि इसकी जल की बूंदे पापी लोगों पर नहीं गिरती और नर नारायण की माता माता मूर्ति का भी मंदिर है और इसी के आगे सतोपंथ भी है जिसके लिए कहा जाता है कि इसके आगे स्वर्ग की सीढियां हैं और अगर शरीर के साथ स्वर्ग जाना है तो उसका मार्ग यहीं से है। महाभारत में भी उल्लेख है कि पांच पांडवों में से सिर्फ युधिष्ठिर और एक कुत्ता ही यहां से आगे सशरीर स्वर्ग की सीढ़ियों में गए थे और भी ऐसी अनेक स्थान है जिनका संबंध पौराणिक लेखों में मिलता है।

     कथाओं में तो यह भी बोला जाता है कि पाप जैसे जैसे बढ़ेगा वैसे वैसे यह धाम भी लुप्त हो जाएंगे। जिस दिन नर और नारायण पर्वत आपस में मिल जाएंगे तो बद्रीनाथ जाने का मार्ग भी लुप्त हो जायेगा और कुछ लोगों का मानना है कि जोशीमठ स्थित नरसिंह देवता का एक हाथ स्वत:जिस ही पतला हो रहा है और जिस दिन लुप्त हो जायेगा उस दिन बद्रिकाश्रम भी लुप्त हो जायेगा और भविष्य में लोग भविष्य बद्री में ही पूजा अर्चना करेंगे।

  और भी बहुत कुछ है बद्रीनाथ जी के बारे में। जिसके बारे में बताना और लिखना थोड़ा कठिन है क्योंकि इस परम धाम को जानने और समझने के लिए कितने ही पुराण, ग्रंथ, उपनिषद, वेद, काव्य और साहित्य का अध्ययन करना पड़ेगा। बद्रीनाथ तो मानो स्वयं अपने में ही एक पुराण है। जिन्होंने भी इस पावन धाम के दर्शन किए हैं वे सभी इस धाम को परम अलौकिक मानते हैं। यहां आकर आप स्वयं ही प्रभु की ओर आकर्षित होते है, यहां स्वत: ही नकारात्मक भावनाएं चली जाती है और नास्तिक भी भगवान की महिमा का गुणगान करने लगता है। 


   मैं भगवान बद्रीविशाल से प्रार्थना करती हूं कि सभी लोगों को दुख, कष्ट और इस महामारी से शीघ्र ही मुक्ति मिले और सुख शांति शांति बनी रहे। 
   प्रतीक्षा में हूं कि मुझे भी एक अवसर मिले जिसमें कि मैं भी बद्रीनाथ जी के दर्शन करके अपने को धन्य समझूं और वहां की खूबसूरत घाटी, पर्वत, वन, नदी, प्रयाग, कुंड, बर्फ और अपनी यात्रा में पड़ने वाले सभी पड़ावों का आनंद ले सकूं।

जय बद्री विशाल।।
( जानकारी स्त्रोत: पंडित प्रदीप रामनाथ शास्त्री, देवप्रयाग)


एक -Naari
 

   

Comments

  1. सुंदर अभिव्यक्ति

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  2. Jai badri vishal, very beautifully described...

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  3. भगवान बद्री विशाल सब पर अपनी कृपा बनाए रखें।

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  4. ॐ📿 नमो नारायणाय 📿🙏

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  5. भगवान बद्री विशाल

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