थोड़ा कुमाऊँ घूम आते हैं...भाग-2

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थोड़ा कुमाऊँ घूम आते हैं...भाग- 2   पिछले लेख में हम हरिद्वार स्थित चंडी देवी के दर्शन करके आगे बढ़ रहे थे यानी कि उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल से अब कुमाऊँ मंडल की सीमाओं में प्रवेश कर रहे थे बता दें कि उत्तराखंड के इस एक मंडल को दूसरे से जोड़ने के लिए बीच में उत्तर प्रदेश की सीमाओं को भी छूना पड़ता है इसलिए आपको अपने आप बोली भाषा या भूगोल या वातावरण की विविधताओं का ज्ञान होता रहेगा।     कुमाऊँ में अल्मोडा, नैनीताल, रानीखेत, मुक्तेश्वर, काशीपुर, रुद्रपुर, पिथौरागढ, पंत नगर, हल्दवानी जैसे बहुत से प्रसिद्ध स्थान हैं लेकिन इस बार हम केवल नैनीताल नगर और नैनीताल जिले में स्थित बाबा नीम करौली के दर्शन करेंगे और साथ ही जिम कार्बेट की सफ़ारी का अनुभव लेंगे।   225 किलोमीटर का सफर हमें लगभग पांच से साढ़े पांच घंटों में पूरा करना था जिसमें दो बच्चों के साथ दो ब्रेक लेने ही थे। अब जैसे जैसे हम आगे बढ़ रहे थे वैसे वैसे बच्चे भी अपनी आपसी खींचतान में थोड़ा ढ़ीले पड़ रहे थे। इसलिए बच्चों की खींचतान से राहत मिलते ही कभी कभी मैं पुरानी यादों के सफर में भी घूम रही थी।     कुमाऊँ की मेरी ये तीसर

मेरे पास माँ है, सासु माँ।।

 
     अभी कुछ दिन पहले ही तो सुहाग का त्यौहार 'करवा चौथ' मनाया गया है। अब इस निर्जला व्रत के बारे में सभी को पता है कि ये व्रत पति की दीर्घायु के लिए रखा जाता है, और इस व्रत में पति के साथ साथ सास की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। आज मैं यही सोच रही हूँ कि जितना महत्व सास का इस दिन है उतना अन्य दिनों में भी है क्या? जैसी मेरी माँ है, वैसे ही सासु माँ भी हैं क्या? 
      सच कहूँ तो एक नारी का दूसरी नारी के साथ तुलना करना ही गलत है। दोनों का अपना अपना स्थान है। वैसे तो दोनों माँ ही हैं, बस एक माँ के साथ आपका जन्म का संबंध है और एक माँ के साथ आपका विवाह के बाद का संबंध है। 
      विवाहेतर जो आपसी नये संबंध बनते है, उसमे सबसे प्रमुख और सबसे नाज़ुक रिश्ता, सास के साथ भी बनता है। माँ तो हमें जनम देती है, हमें पालती है, हमें अच्छे बुरे की तुलना करना भी बताती है। अपने मायके की याद के साथ साथ सीख-संस्कार सभी कुछ तो बेटी अपने ससुराल ले ही जाती है । अब जब हमें अपनी माँ से ही इतना सब कुछ सिखने को मिल जाता है तो फिर सास से सीखने को भला शेष रह ही क्या जाता है? शादी से पहले और शादी के बाद भी इतना ज्यादा जोर और दबाव सिर्फ सास के लिए ही क्यों दिया जाता है? वह भी तो एक माँ ही है, उनसे भी तो कुछ सीखा जा सकता है। 
        मुझे भी ऐसा ही लगता है कि विवाह से पहले ही हम बहुत कुछ सीख लेते हैं, लेकिन जब एक बार फिर से सोचती हूँ तो लगता है कि वास्तव में तो जीवन के असलीे अनुभव और सीख तो हमें शादी के बाद ही मिलते हैं। एक तरीके से तो शादी से पहले हम सिर्फ theory पढ़ते हैं वो भी 'ख्याली', Practical तो बाद में हर करना पढ़ता है। 
  जीवन के अनुभव और सीख, हर किसी के लिए होते हैं, लेकिन ससुराल में अगर कोई ऐसा मिल जाए  जिसे इन सबका अनुभव पहले से हो तो ये माने कि ससुराल में आपको कोई अपने जैसा मिल ही गया है। और वो होती है सास, क्योंकि ' सास भी कभी बहु थी'। कई बार सास ये नहीं सोचती कि वह भी कभी बहु थी, बल्कि ये सोचती है कि उस समय मेरी सास कैसे थी, और वही सब काम करती और करवाती है जो उसने भी किये होंगे, बहु बनकर। 
   आपको शायद याद भी होगा इस शीर्षक 'क्योंकि सास भी कभी बहु थी' का एक नाटक ने भी बहुत ख्याति प्राप्त की थी। वैसे सिनेमा भी तो हमारे परिवेश का हिस्सा है जो कुछ समाज में होता है वो दिखता है। मैंने भी अपने बचपन में एक फिल्म देखी थी जिसका नाम था, ' बीवी हो तो ऐसी'। उसमें रेखा नायिका और बिंदु खलनायिका (सास) के रोल में थी। उसका एक dailog आपको भी शायद याद होगा,..."secretory follow me" इसके साथ-साथ एक हास्यात्मक संगीत भी बजता था, और हम सब खूब हंस पड़ते थे। बचपन में इस फिल्म को देखकर जो समझ में आता था वो यही था कि सास कितनी बेकार होती है। एक और फिल्म थी, मीनाक्षी शेषाद्री और अनिल कपूर अभिनीत वाली, नाम था-'घर हो तो ऐसा'। इस फिल्म में सास का तो और भी खतरनाक रूप दिखाया था।  ललिता पवार, शशि कला, बिंदु, अरुणा ईरानी जैसी महान अभिनेत्रियों ने सास को पर्दे पर ऐसा दिखाया कि सास की छवि घर की मालकिन से अधिक घर की डायन लगती थी। अवतार, स्वर्ग और 2003 में आई बागबान भी पारिवारिक फिल्में थी जिसमें सास से उलट बहुओं को खलनायिका जैसा दिखाया था, अब ये तो सिनेमा की बातें हैं, कहने को तो सभी काल्पनिक हैं लेकिन बहुत हद तक समाज की सच्चाई भी है।
   पास पड़ोस में, घर रिश्तेदारों में, ऑफिस के साथियों से, और अपनी सहेलियों से सास का एक पुराण तो जरूर सुना है। पता नहीं, लेकिन सास का सकरात्मक रूप मैंने किसी के मुँह से बहुत ही मुश्किल से ही सुना होगा, लेकिन जिस किसी से भी सुना होगा तो उसे मैंने हर सोच में, हर विषय में सकरात्मक ही पाया होगा। 
       वैसे तो ईश्वर ने हर इंसान का सिर्फ रंग रूप ही अलग नही किया बल्कि हर इंसान की प्रकृति भी अलग ही बनाई है, और साथ ही साथ भाग्य भी अलग अलग ही लिखा है, लेकिन कर्म और सोच तो हम लोगों के वश में है। क्यों न सास के रूप में भी सासु माँ को सकरात्मकता के साथ देखें। 'तु तु - मैं मैं' और 'Sarabhai vs Sarabhai' जैसी सास बहु की नोक झोंक चलती हो तो कोई परेशानी नहीं हो लेकिन सास ससुर के साथ हाथापाई, मरने -मारने और बहु को जिंदा जलाने वाली सोच तो इस रिश्ते में कतई निषेध हो। सास बहु का ऐसा रिश्ता हो जहाँ दिल से एक दूसरे के प्रति सम्मान हो, आपस में काम के प्रति सामंजस्य हो, एक दूसरे की समझदारी का साथ हो, जहाँ अपने अनुभवों को बाँटने का साथ हो, अच्छी बुरी सीख हो और कुछ नया सीखने का गुण हो, सबसे जरूरी तो बहु को बेटी समझने और सास को माँ मानने का साहस हो। 

(मुझे पता है, इस लेख से बहुत से साथी संतुष्ट नही होंगे क्योंकि शायद उनकी सास अभी सासु माँ के किरदार में नहीं आयी हैं। लेकिन ये लेख मुझे इसलिए संतुष्ट करता है क्योंकि मेरे पास माँ है, सासु माँ।।)
(Image source from, MyFlowerTree) 

एक-Naari

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