International Women's Day

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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस International Women's Day  सुन्दर नहीं सशक्त नारी  "चूड़ी, बिंदी, लाली, हार-श्रृंगार यही तो रूप है एक नारी का। इस श्रृंगार के साथ ही जिसकी सूरत चमकती हो और जो  गोरी उजली भी हो वही तो एक सुन्दर नारी है।"  कुछ ऐसा ही एक नारी के विषय में सोचा और समझा जाता है। समाज ने हमेशा से उसके रूप और रंग से उसे जाना है और उसी के अनुसार ही उसकी सुंदरता के मानक भी तय कर दिये हैं। जबकि आप कैसे दिखाई देते हैं  से आवश्यक है कि आप कैसे है!! ये अवश्य है कि श्रृंगार तो नारी के लिए ही बने हैं जो उसे सुन्दर दिखाते है लेकिन असल में नारी की सुंदरता उसके बाहरी श्रृंगार से कहीं अधिक उसके मन से होती है और हर एक नारी मन से सुन्दर होती है।  वही मन जो बचपन में निर्मल और चंचल होता है, यौवन में भावुक और उसके बाद सुकोमल भावनाओं का सागर बन जाता है।  इसी नारी में सौम्यता के गुणों के साथ साथ शक्ति का समावेश हो जाए तो तब वह केवल सुन्दर नहीं, एक सशक्त नारी भी है और इस नारी की शक्ति है ज्ञान। इसलिए श्रृंगार नहीं अपितु ज्ञान की शक्ति एक महिला को विशेष बनाती है।   ज्...

Travelogue यात्रा के रंग: परिवार, धर्म, अध्यात्म

यात्रा के रंग: परिवार, धर्म, अध्यात्म (Part 2)


 क्या, आपके साथ भी ऐसा होता है कि ट्रेन से उतरने के बाद भी ऐसा लगे कि मानों अभी तक हम ट्रेन में ही है। आँखें बंद करने के बाद भी लग रहा था कि मैं हिल ही रही हूँ। एक विभ्रम (illusion) की स्थिति हो रही थी।  दिन के एक बजे देहरादून से बैठना और अगली सुबह छ: बजे प्रयागराज पहुँचना यानी कि 16 -17 घंटों के सफर के बाद घर पहुँचने पर ऐसा होना शायद स्वभाविक होता होगा! 

 थकान दूर होते ही निकलना था उसी आवश्यक काम के लिए जिसके लिए हम देहरादून से प्रयागराज आये थे। मैं पहली बार किसी सरकारी ऑफिस में सेवानिवृत्ति के कार्यक्रम में उपस्थित हो रही थी। इससे पहले केवल सेवानिवृत्ति की दावतों में ही शामिल रही हूँ। ए जी ऑफिस, एकाउंटेंट जनरल ऑफिस एक बहुत बड़ा सरकारी कार्यालय है। (यह कार्यालय उत्तर प्रदेश राज्य के लेन देनो के लेखे एवं हकदारी के कार्य - कलाप निष्पादित करता है।)
 
 एक बड़े से सभागार में हम सभी घर वालों को आमंत्रित किया गया था। बहुत से लोग इस हॉल में जुट रहे थे। इस हॉल में नर्म और बैठने पर फच्च वाली आवाज़ वाले सोफे में हम सबसे आगे बैठाए गये। जय और जिया तो बहुत खुश हुए क्योंकि उन्होंने अपने स्कूल में अभी तक विशिष्ट अतिथियों को ही सोफे में बैठे हुए देखा था। यहाँ भाई साहब (श्री समीर चंदोला) का खूब मान सम्मान हुआ। 

   मै थोड़ा सा इस रिश्ते के बारे में भी बताती हूँ जो मै अपने पिछले लेख में बताना भूल गई। श्री समीर चंदोला जी मेरे पति श्री विकास कुकशाल के जीजा जी हैं। विकास की दीदी श्रीमती शिखा चंदोला (मौसी की बेटी) के पति। उत्तराखंड में हमारे यहाँ पति के जीजा जी का सम्बन्ध पत्नी के लिए मायके पक्ष की भांति होता है इसलिए पति के बहनोई या जीजा जी को भाई कहा जाता है जबकि यही सम्बन्ध उत्तर प्रदेश में जीजा साली का रहता है।
 
   ये पहली बार हुआ कि किसी के विदाई समारोह में पत्नी और बच्चों के अलावा चाची, मौसी, मामी, भाई, साला, बहन और भतीजे भी हो। भाई जी के विदाई समारोह में हम सभी को बहुत मान दिया। यहाँ आकर लग रहा था कि मंच के पीछे लिखे फ्लैेक्स पर विदाई समारोह के स्थान पर सम्मान समारोह होना चाहिए था! क्योंकि यहाँ केवल जो विदा ले रहा है उन्हीं का नहीं जो विदाई दे रहा है उनका भी सम्मान भाई साहब द्वारा किया गया। लग रहा था कि सभी का सम्मान हो रहा है और मेरी समझ से विदाई कार्यक्रम मे तो हम बस "नमस्ते" कर के विदा कर देते है लेकिन जब व्यक्ति को उसके शासकीय कार्य के साथ साथ सामाजिक कार्यों के लिए भी मान सम्मान दिया जाए तो वो पल हमेशा यादगार बनता है और साथ ही दूसरों के लिए एक प्रेरणा। इसलिए इस विदाई समारोह का नाम "ससम्मान विदाई समारोह" होना चाहिए था!! 



   यह एक भावुक क्षण था, 38 वर्ष तक अपनी सेवाएं सरकार को निष्ठा के साथ समर्पित करना और साथ ही नाते रिश्तेदारी संभालना जो इलाहाबाद नहीं देहरादून कोटद्वार तक फैली हो,,कोई कम बात नहीं है। यहाँ हम अपने पास पड़ोस के रिश्तेदारों के घर तक जाने में दस बार सोचते हैं और भाई साहब हमारे लिए कितनी ही बार इलाहाबाद से देहरादून के लिए दौड़ लगाते हैं और ये केवल हमारे लिए नहीं वहां उपस्थित अन्य लोगों ने भी अपने अपने अनुभव ऐसे ही साझा किये कि जब भी जरूरत पड़ी वे साथ खड़े थे।



 अब ये जरूर सोचा जा सकता है कि सरकारी नौकरी तो ठाठ की होती है लेकिन ये धारणा गलत भी है क्योंकि यहाँ हर छोटी चूक की भी जवाबदेही है। यहाँ काम करने का एक तरीका है, एक तंत्र है जिसके अंदर रहकर ही काम किया जा सकता है, जरा सा भी गड़बड़ी हुई तो आप तंत्र के जाल में ही उलझ जाएंगे।

  तीन घंटे चले इस कार्यक्रम की ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ रात तक उसी कार्यक्रम की चर्चाएं चली और अगली सुबह प्रयागराज को देखने की। बस यहाँ देहरादून की तरह सुबह की खिली धूप नहीं थी। यहाँ बस हवा और सूखी ठंड थी, वाशिंग मशीन के कपड़े भी दो दिन तक बाहर आकर भी सूख नहीं रहे थे। अब लगा कि अपने साथ लादा हुआ सामान व्यर्थ नहीं है।

   अभी तो प्रयागराज में महाकुम्भ (13 जनवरी 2025 से 26 फ़रवरी 2025) चल रहा है लेकिन इसकी तैयारी बहुत पहले से होने लगी थी। हम 1 जनवरी 2025 की सुबह से ही प्रयागराज के महाकुम्भ की सजावट देख रहे थे। यहाँ से यात्रा के साथी में शिखा दीदी का नाम भी जुड़ गया है। वो साथ चलते हुए सारी जानकारियां देती जाती हैं। हालांकि वो स्वयं कितने ही पर्यटक स्थल नहीं गई हैं लेकिन इलाहाबाद के इतने वर्षों के अनुभव से क्षेत्र की अच्छी जानकारी रखती हैं और वहां की बोली भाषा के साथ साथ इलाहाबादी मिज़ाज़ भी और हाजिरजवाबी अंदाज भी। वो बताती हैं कि अब इलाहाबाद में बहुत से नये पुल और फ्लाईओवर बन गये हैं, सडक भी चौड़ी की गई हैं। हम देख सकते थे कि महाकुम्भ की तैयारी में प्रयागराज खूब जुट गया है। यहाँ सड़क से लगती हुई हर दीवार पर सुन्दर चित्रकारी की गई हैं, कहीं खिलाड़ियों की तो कहीं राजा महाराजाओं की या महलों की और सबसे अधिक सांस्कृतिक विविधता को दर्शाती  चौराहों पर बनी आकर्षक कलाकृतियाँ। कहीं पर बहुत बड़ी किताब तो कहीं पर पंख वाले अश्व, कहीं पर गरुड़, कहीं पर नाव में सवार देवी और सिविल लाइन्स में तो मेटल धातु की बनी घोस्ट राइडर जैसी आकर्षक कलाकृतियाँ हैं, जिसे देखकर जय तो खूब उत्साहित हुआ। कुल मिलाकर आप यात्रा के दौरान हर चौक, चौराहे पर उत्सुकता के साथ एक सुन्दर आकृति को देख सकते हैं। 

आनंद भवन/ Anand Bhawan 
   चुंकि इलाहाबाद राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र भी रहा है इसीलिए यहाँ पर आनंद भवन भी है जो नेहरू परिवार का आवास था जिसे मोतीलाल नेहरू जी ने 1930 के दशक में बनवाया था। यह एक ऐतिहासिक गृह संग्राहलय है जहाँ नेहरू परिवार की जानकारी फोटो के साथ दी गई है। इस संग्रहालय में अन्दर जाने के लिए 20 रूपए का टिकट लेना अनिवार्य है और बच्चों के लिए यह निशुल्क है।





यहीं पर साथ मे स्वराज भवन भी है जो मूल रूप से नेहरू जी का आनंद भवन था यहाँ इंदिरा गांधी जी का जन्म हुआ था लेकिन आजादी के समय इस भवन को मोतीलाल नेहरू ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को दान कर दिया था और स्वयं नये आनंद भवन का निर्माण कर वहां स्थानंतरित हो गये। स्वराज भवन से कई स्वाधीनता आंदोलनो को दिशा मिली है। 1948 में कांग्रेस का मुख्यालय इलाहाबाद से दिल्ली हो चुका था इसलिए जवाहर लाल नेहरू जी ने इसे बच्चों और युवाओं के लिए बाल भवन का नाम दिया।
  अब हलकी धूप आ चुकी थी तो पार्क की हरियाली देख कर मन खुश हो गया। भवन की भव्यता और बाहर का खुला क्षेत्र देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इलाहाबाद शहर के बीच का एक बड़ा भूखंड नेहरू परिवार के पास था। 7 अगस्त 1899 में मोतीलाल नेहरू ने इसे राजा जयकिशन दास से 20000 रूपए देकर 19 बीघा जमीन के साथ बने एक मंजिला इमारत के साथ खरीदा था। 
उस समय कि पहली कार भी मोतिलाल नेहरू जी के पास थी। यहाँ लगी फोटो को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि नेहरू परिवार राजसी ठाठ बाट में इलाहाबाद शहर के अग्रणी थे और साथ ही स्वतंत्रता के आंदोलनो के लिए भी वे आगे रहे। 


  इस संग्रहालय में पुस्तक बिक्री केंद्र भी है और यहाँ से आप किताबों के साथ साथ टोपी और टीशर्ट भी खरीद सकते हैं। किताब तो लेनी ही थी लेकिन किताब के साथ साथ जय के लिए टोपी खरीदना भी अनिवार्य था नहीं तो अगली यात्रा तक जय हमारा मुंड खांदू (सिर दर्द) करता रहता। वैसे यहाँ प्लेनेटोरियम ताराघर/ तारामंडल भी है जहाँ पर खगोल ज्ञान ग्रहों की जानकारी मिलती है लेकिन इसे देखने के लिए एक घंटे का समय होना चाहिए था जो हमारे पास आज नही था। वैसे आनंद भवन में किसी भी राजनीतिक पार्टी के समर्थक के रूप में न जाकर एक जिज्ञासु की भांति जाने पर अधिक आनंद आएगा!!

  खैर, जो भी है हमें आज नये वर्ष में पवित्र संगम जाना था जो अधिक महत्वपूर्ण था लेकिन जय को 
संगम जाने से पहले भेलपूरी खाना तो वो बाहर लगी ठेली पर भेलपूरी खाता और मज़े से बोलता,"भेलपूरी भेलपूरी,,,झालमुरी झालमुरी" उसकी चंचलता देखकर ठेली वाले भाईया भी मुस्कुरा देते और हम भी। 
  देहरादून में जगह जगह चौवमीन और मोमो की ठेली रहती हैं लेकिन यहाँ पर वो गायब थी यहाँ पर भेलपूरी से भी अधिक गोल गप्पे और चाट पर जोर था। अब जब इलाहाबाद आये तो उसके खानपान से दूर कैसे रहा जा सकता था? उसी के समीप भारद्वाज पार्क, अलफ्रेड पार्क भी था लेकिन हमें तो संगम ही जाना था तो खाते पीते हम संगम नगरी में प्रवेश कर रहे थे। 

कुम्भ क्षेत्र/ त्रिवेणी संगम नाव/प्रयागराज
शहर में भीड़ होना स्वभाविक था क्योंकि आज साल का पहला दिन था। गली बाजार सब जगह भीड़ थी और कुम्भ क्षेत्र में तो और भी अधिक। वहां से एक पेशवाही का काफिला भी जाना था इसीलिए पुलिस की बैरिकेडिंग लगी थी जिससे गाडी एक निश्चित दूरी के बाद संगम नहीं जा सकती थी, सभी को पैदल ही जाना था लेकिन हमारी गाडी के चालक को यह बात बता दी थी कि मामी जी घुटनों से परेशान है इसीलिए उन्हें चलने में परेशानी होती है। उन्होंने भी इस बात का ध्यान रखा और फिर एक लम्बे फेरे के बाद न जाने किन गलियों से निकलकर संगम के निकट जाने का रास्ता मिला हालाँकि उस सन्करे रास्ते में भी जाम लगा हुआ था।  



 जब आगे बढ़े तो अनुभव हुआ कि मैंने हरिद्वार, ऋषिकेश, देवप्रयाग की गंगा जी देखी है यानी की उत्तराखंड में ही। पहली बार इतना बड़े फाट के साथ गंगा जी को देखा। बहुत बड़े फाट के साथ सफ़ेद रेत के बीच से गंगा जी बह रही थी। दूर से लग रहा था कि चमचमाती चांदी का एक बहुत बड़ा टुकड़ा आँखों के सामने सज गया है। प्रयागराज के संगम नगरी के गंगा जी का यह पहला दृश्य आँखों मे अभी भी घूम रहा है, जो मेरे हृदय में छप चुका हैं।
  गंगा जी के एक छोर से दूसरे छोर तक बने कैप्सूल पुल जिसे पीपा पुल भी कहते हैं बने हुए थे और कच्छार पर छोटे छोटे चाय पानी के साथ साथ लाकेट, कंगन, प्रसाद के खोखे भी। हम लोहे की चादरों से बनी प्लेटफार्म पर गाडी चलाते हुए आखिर संगम के निकट आ ही गये। साल के पहले दिन की वजह से भीड़ अधिक थी लेकिन जब क्षेत्र बड़ा हो तो चीजों को व्यवस्थित होने में कठिनाई नहीं होती। 




  यहाँ से नाव में बैठकर त्रिवेणी संगम ( गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम) स्थल पहुंचना होता है। नाव यमुना जी जो किले की छोर से बहती है वहीं से मिलती है जिसका किराया 200 से 300 रूपए प्रति व्यक्ति होता है लेकिन कुम्भ मेला के कारण लोग अधिक किराये की भी मांग हो सकती है। हमने पूरी नाव का 2800 रूपए किराया दिया और 200 रूपए इनाम के। 


  नाव में बैठकर त्रिवेणी संगम तक जाना एक अलग अनुभव है लेकिन मामी जी के साथ एक चुनौती थी। मामी को रेत के टीले से थोड़ा उतर कर बालू से भरे बोरियों पर चढ़कर नाव पर संतुलित होकर बैठना था। माँ और मामा जी दोनों मामी का विशेष ध्यान देते और उन्हें सहारा देते लेकिन डर तो हमें भी था क्योंकि नाव में उचित संतुलन आवश्यक है लेकिन नाव चालक ने अपने अनुभव से हमें सहज किया लेकिन जय को सहज रखना मुश्किल था उसकी हवाइयां उडी थी, डर के कारण वो बीच में चुपचाप बैठा रहा और पक्षियों के लिए जो खिलाने वाली लाई थी वो खुद ही खाता गया। यहाँ बेसन की सेव पानी में फेंक कर साइबेरियन पक्षियों को अपनी नाव के पास बुलाया जाता है। ठंड के मौसम में यहाँ कई प्रवासी पक्षी आते हैं। इन्हें अपने आस पास देखकर मन प्रफुल्लित हो जाता है। एक पक्षी तो हमारी नाव के ऊपर ही बैठ गया। बहुत सुन्दर दृश्य था लेकिन जय ने तो डर से अपनी गर्दन भी पीछे नहीं की। 


  त्रिवेणी संगम पहुँचने से पहले ही आप गंगा और यमुना के रंग से पहचान लेते हो। काली यमुना और मटमैली गंगा ये दो नदियों का अलग अलग पानी आपस में एक दूसरे को ढेलते हुए आगे मिल जाते हैं। सरस्वती नदी के लिए माना जाता है कि वह गुप्त रूप से इस संगम में नीचे मिलती है। 


  संगम मे एक छोटा लकड़ी का बना प्लेटफार्म है, जहाँ पर पंडित जी सभी यात्रियों को स्नान के बाद पूजा अर्चना करवाते हैं। पूजा कराने पर दक्षिणा देनी अनिवार्य है। भौगौलिक स्थिति के साथ गंगा जी का जल में परिवर्तन होना समान्य है इसलिए संगम का जल यहाँ हरिद्वार ऋषिकेश की तरह ठंडा नहीं है।
  स्नान और पूजा के बाद फिर इसी नाव से आप वापस उसी छोर में आते हैं जहाँ से नाव में बैठे थे। नये साल के पहले दिन पर पवित्र संगम के दर्शन बहुत अच्छे से हुए। त्रिवेनी संगम का जल लेना बहुत शुभ होता है इसलिए इसे लेना हम कैसे भूल सकते थे। 



  नाव से बाहर आकर चौपाटी जैसा ही लगेगा। भेलपूरी, पानी पूरी, गुड़िया के बाल, स्वीट कॉर्न, पॉप कॉर्न सब मिलेगा यहाँ तक कि ऊँट की सवारी भी बस जब आस पास साधू संन्यासी को देखते है तब लगता है कि नहीं हम महाकुम्भ में है। लेकिन यहाँ भगवा पहने बहुत से भिखारी भी घूम रहे हैं जो आपके पीछे पीछे चलेंगे जब तक कि आप उनको अच्छे पैसे नहीं देंगे और धीरे धीरे ये 4 से 5 भी हो जाएंगे। तब आखिर में मामला मिल बांटकर दक्षिणा (100-500) लेने पर निपटाने पर गौर करवाया जायेगा। ऐसा मेरा अनुभव रहा है। अब ये साधू संत हैं या भिखारी कुछ नहीं पता लेकिन ऐसा लग रहा था कि देश के आधे भिखारी कुम्भ में आ गये हैं। चलो जो भी है मेला तो सार्वजनिक ही होता है स्वागत तो सभी का होना चाहिए लेकिन बस गलत लोगों का नहीं।

 किला प्रयागराज

 यहाँ संगम तट में ही किला है जिसे मुगल सम्राट अकबर ने सन् 1575 मे बनवाया था। इसका अधिकांश भाग भारतीय सेना के पास है और कुछ ही भाग पर्यटकों के लिए खुला है। इस किले में सरस्वती कूप है जिसके लिए माना जाता है कि बद्रीनाथ जी में भीम पुल से दिखने वाली सरस्वती नदी केवल इसी कूप में दिखाई देती है बीच में कहीं नहीं और गुप्त रूप से बहते हुए संगम पहुँचती है। यहाँ अक्षयवट का मंदिर भी है जहाँ वट (बरगद) के पेड़ की पुरानी शाखाएं फैली हैं। परिवार सहित यहाँ जाना थोड़ा कठिन था क्योंकि किला परिसर फैला हुआ है और सभी चलने में थोड़ा असहाय हो रहे थे तो हम लोग श्री बड़े हनुमान जी ( लेटे हुए हनुमान जी) के दर्शन करने के लिए आगे बढ़े जो संगम के पास ही है। एक जनवरी की भीड़ यहाँ भी बहुत से कहीं अधिक थी, चाहे पर्यटक हो, यात्री हो, या फिर स्थानीय लोग सभी ने अपने साल की शुरुआत हनुमान जी के दर्शन से करनी थी इसलिए सारे भक्त बराबर एक दूसरे से सटे थे और बीच बीच में पॉकेटमार भी। एक भिखारन ने तो भीड़ में ही शिखा दीदी के हैंड बैग में हाथ डाल दिया लेकिन दीदी की चौकसी से वो सफल न हुई। बताया था न दीदी भी तो इलाहाबादी मिज़ाज़ की है। ऐसा हल्ला किया कि भीड़ से गायब हो गई। इसलिए भीड़ में अपना पर्स और कीमती समान का हमेशा ध्यान रखें।

 खैर! मंदिर के किवाड अभी बंद थे लेकिन भीड़ बराबर बनी हुई थी। जय और जिया परेशान हो रहे थे तो अन्य दिन दर्शन करने की सोची। वैसे यहाँ वेणी माधव मंदिर और शंकर विमान मंडपम मंदिर भी है केकिन अपनी विवशता के कारण केवल गाड़ी से ही वापस मेला क्षेत्र घूमना निश्चित किया। 

कुम्भ मेला/ माघ मेला प्रयागराज Kumbh Mela 


   40 वर्ग किलोमीटर मे फैले कुम्भ क्षेत्र को राज्य का 76वा जिला बना दिया गया है। इस पूरे क्षेत्र को 25 सेक्टर में विभाजित करा है। अखाड़ों या संस्थाओं के साथ सरकारी टेंट बने हुए हैं। अस्पताल और पुलिस चौकी से लेकर दूरदर्शन तक का कार्यालय इन्हीं टेंट कॉलोनियों में किया गया है। खाने पीने के लिए भी अलग से जगह बनी है। बिजली, पानी, सीवर सारी व्यवस्था वो भी केवल कुछ महीनों के लिए।( सोचती हूँ कि ऐसी व्यवस्था सरकार केवल कुछ ही अवसरों पर क्यों करती है, इतनी तेजी अन्य दिनों में क्यों नहीं रहती?? )

 वैसे प्रयागराज में हर वर्ष संगम में माघ मेला लगता है। माघ माह में लोग आध्यात्मिक विकास के लिए कल्पवास ( 3 बार स्नान 1 बार खाने के साथ 21 नियम) करने के लिए प्रयागराज आते हैं। 

  इसी तरह की रौनक और व्यवस्था पूरे माघ माह तक रहती है। कुम्भ मेला की असल रौनक कुम्भ के समय में ही दिखेगी जब बड़े भव्य और दिव्य पंडालों में पूजा अर्चना, भक्ति, सत्संग के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी चलेंगे। वही वो समय होता है जब विचारों और संस्कृतियों का अदान प्रदान होता है और हम मानसिक, अध्यात्मिक और सामाजिक रूप से दृढ होते हैं।
 
शिवालय पार्क/ 12 ज्योतिर्लिंग/ Shivalaya Park 



अंधेरा होते होते पूरी कुम्भ नगरी प्रयागराज चमकने लगी थी। हम अरहैल घाट की और भी चले। यहाँ शिवालय पार्क भी बना हुआ है जहाँ पर भगवान् शिव की एक बड़ी मूर्ति है और अंदर एक बड़े पार्क मे लोहे से बने 12 ज्योतिर्लिंगों की आकृति बनी हुई है जो भारतीय शिल्पकला और पौराणिक महत्व बताती है। साथ ही कई अन्य स्टैचू भी बने है, जैसे नंदी, समुद्र मंथन आदि। यहाँ पर 50 रूपए के टिकट के साथ ही अंदर जाया जा सकता है। व्यस्क का किराया 50 रूपए, बुजुर्ग जो 60 वर्ष से ऊपर है और बच्चे जिनकी आयु 3- 12 वर्ष है उनका किराया 30 रूपए है। शनिवार और रविवार को व्यस्क का किराया दुगना हो जाता है। 


  मामी जी यहाँ जाने में असमर्थ थी लेकिन हम लोगों ने इस पार्क में प्रवेश किया। रात में बड़ी सुन्दर लाइटिंग के साथ सभी ज्योतिर्लिंग चमक रहे थे। हर ज्योतिर्लिंग के बाहर ही संक्षिप्त जानकारी भी लिखी गई थी। यहाँ बारह ज्योतिर्लिंगों के मंदिर की आकृति, वास्तुकला के दर्शन एक साथ कर सकते हैं। तसल्ली से पढ़ना और आकृतियों को ढंग से देखने पर ही आपको इस जगह जाने में संतुष्टि मिलेगी अन्यथा कुछ के लिए यह केवल एक मनोरंजक पार्क ही है।

महारानी दोसा/जायसवाल डोसा प्रयागराज
  रात हो चुकी थी और थकान भी। बच्चे भी अब मंदिर से अलग कुछ खाने पीने के लिए अधिक उत्साहित थे। लिस्ट तो देहाती रसगुल्ला से लेकर पंडित जी की चाट और न जाने क्या क्या थी लेकिन गाड़ी महारानी रेस्टोरेंट का प्रसिद्ध डोसा पर आकर ही रुकी। यहाँ देसी घी से तैयार शुद्ध स्वादिष्ट अन्य व्यंजन भी परोसे जाते हैं। इसी ईमारत में जायसवाल डोसा भी है। नये साल की भीड़ नीचे बने स्नैक्स काउंटर और बेकरी से लेकर ऊपर बने रेस्टोरेंट तक बराबर बनी हुई थी।


   यहाँ डोसा के साथ सांबर और नारियल चटनी तो होती ही है लेकिन साथ में मीठी सौंठ चटनी भी दी जाती है। गुणवत्ता और साफ सफाई पूरी बढ़िया थी बस हमें थोड़ा कम मिर्च मसाला पसंद है इसिलिय हमारे लिए यहाँ का डोसा थोड़ा तीखा था।(शायद सौंठ इसीलिये दी हो) मुझे लगता है कि यहाँ पर तीखा और तला भुना खाना अधिक पसंद किया जाता है। तभी यहाँ के छोटे बच्चे भी खूब चाव से डोसे का आनंद ले रहे थे। हमारे बच्चों को आइसक्रीम अधिक प्रिय थी लेकिन ठंड में ठंडा बच्चों के लिए नुक्सान करता है, वो भी जय के लिए जिसे खांसी सबसे अधिक होती है, ऐसा सोचा तो था लेकिन अब यहाँ किसको रोका जा सकता था!! सभी मिर्च से सी-सी कर रहे थे। इसीलिए सभी ने आइसक्रीम को खूब मन से खाया, यहाँ तक कि मां ने भी जो जय का विशेषकर ध्यान रखती हैं। जय तो सबसे अधिक खुश था क्योंकि उसे बहुत बार गर्मियों में भी फ्रीज का ठंडा पानी नहीं दिया जाता और स्वेटर, जैकेट, टोपा लगाकर वो आज नाये साल की ठंड में मनपसंद आइसक्रीम खा रहा था।


   यहाँ हर वर्ग का व्यक्ति नये साल की शाम अपने अपने तरीके से मना रहा था। रात हो चुकी थी और हमें अगले दिन यानी 2 जनवरी को अयोध्या नगरी भी जाना था। आज की थकान थी लेकिन अगले दिन का जोश भी। प्रयागराज के रात की जगमगाहट को देखते देखते फिर से घर आना एक अच्छा अनुभव था। एक दिन में पूरा प्रयागराज देखना असंभव है लेकिन हां समय से निकलने पर बहुत कुछ का अनुभव लिया जा सकता है, बस भीड़ में कितना समय लगेगा इसका अंदाजा स्वयं जा कर ही लगाया जा सकता है।

....(1 जनवरी 2025)
शेष...

  हम 3 जनवरी को एक बार फिर से प्रयागराज भ्रमण पर निकले। सुबह से ही सर्द हवाएं चल रही थी इसलिए यात्रा के कुछ साथी मां, मामी और दीदी घर पर ही रहे लेकिन घुम्मक्कड़ मैं, विकास, बच्चे और मामा जी आज तैयार थे दूसरी बार प्रयागराज को देखने के लिए।
  इस बार गाड़ी से नहीं सार्वजनिक वाहनों की सवारी करते हुए हालाँकी उसमें केवल लोकल रिक्शा जिसे मयूरी या ई रिक्शा कहते हैं वही था। 

जवाहर प्लेनेटोरियम/ Jawahar Planetorium 
  आज बच्चों को आनंद भवन संग्रहालय के साथ में स्थित जवाहर प्लेनेटोरियम का अनुभव कराना था। यहाँ खगोल विज्ञान और अंतरिक्ष के इतिहास से लेकर प्रौद्योगिकी विकास के बारे में बताया जाता है।


प्लेनेटोरियम जिसे तारा मंडल या ताराघर कहते भी कहते हैं इसमें एक गुम्बदनुमा छत होती है जिसपर एक कृत्रिम उपकरण से सिनेमाघर के पर्दे की तरह पूरी फिल्म चलाई जाती है । यहाँ ब्रह्मांड और सौर परिवार की जानकारी मिलती है। यहाँ पर बैठकर छत पर देखने पर आपको ऐसा ही लगेगा कि आप रात के समय सौर मंडल ही देख रहे हैं। 3 डी इफ़ेक्ट की तरह कई बार लगेगा कि तारे आपके ऊपर ही आ रहे है। ग्रह उपग्रह सभी की जानकारी एक चलचित्र के माध्यम से मिलती है। 

 सोमवार को यहाँ साप्ताहिक अवकाश रहता है। एक दिन मे पांच शो होते हैं और हर शो की अवधि एक घंटा है। हर शो का टिकट शुल्क 70 रूपए है।  



 इस समय यहाँ के एक तरफ का प्रोजेक्टर थोड़ा खराब था इसलिए शायद ये उतना प्रभावी नहीं लगा जितना कि हो सकता था लेकिन कुल मिलाकर ये सच में बच्चों के आकर्षण का केंद्र है जहाँ वे विज्ञान के प्रति अपनी रुचि बढ़ा सकते हैं।
 पारिवारिक यात्रा के दौरान यहाँ आना एक बहुत अच्छा विल्कप है। यहाँ से आप आकाशीय यात्रा का अनुभव लेकर जा सकते हैं। 

Bhardwaj Park/भारद्वाज पार्क प्रयागराज

  घूमने का सही समय चाहे ठंड का मौसम ही हो लेकिन देखने का मज़ा पैदल घुम्मकड़ी मे ही है। वैसे  गाड़ी से यहाँ पर 5 मिनट में पहुँच सकते हैं लेकिन हम लोग घुमते हुए पैदल 15 से 20 मिनट में भारद्वाज आश्रम पहुँच गये। यहाँ ऋषि भारद्वाज की बहुत बड़ी मूर्ति है जिसे दूर से ही देखा जा सकता है।


 यहाँ आश्रम भी है और साथ ही एक सुन्दर पार्क। इस पार्क में कृत्रिम झरना, बच्चों के झूले, व्यायाम के उपकरण और मोर, हिरन आदि की आकृतियाँ लगी हुई है जो रात में जगमगाती है।

 मान्यता है कि प्रभु श्रीराम, माता सीता और भाई लक्ष्मण वनवास जाने से पहले भारद्वाज मुनि के आश्रम में रुके थे और ऋषि ने ही उनको चित्रकूट जाने की सलाह दी थी। मान्यता है कि भारद्वाज मुनि प्रयागराज के प्रथम निवासी ऋषि थे। इसलिए यह नगरी बहुत पौराणिक काल से ही सनातन संस्कृति और आध्यात्मिकता की पहचान है। 
यहाँ भी शुल्क के साथ ही प्रवेश मिलता है, प्रवेश शुल्क 20 रूपए है।


 (भारद्वाज पार्क में हर तरह के लोग दिखाई देंगे जो पार्क का आनंद लेंगे लेकिन प्रेमी युगलों के जोड़े स्वयं असहज न होकर शायद आपको असहज कर सकते हैं।)
  
चंद्रशेखर आजाद पार्क/अल्फ्रेड पार्क/Alfred Park


  भारद्वाज पार्क के पास ही अलफ्रेड पार्क भी है। भारद्वाज पार्क से चंद मिनटों में यहाँ पहुंचा जा सकता है। यह एक ऐतिहासिक स्थल है जो हमारे वीर क्रांतिकारी श्री चंद्रशेखर 'आज़ाद' जी को समर्पित है। इसी पार्क में अंग्रेजों से लोहा लेते हुए वीर स्वतंत्रता सेनानी चंद्र शेखर आजाद अमर शहीद हुए। आज़ाद पार्क को पहले अल्फ्रेड पार्क हि कहा जाता था लेकिन चंद्र शेखर आज़ाद जी के इसी पार्क में शहीदी के बाद इसे आज़ाद पार्क का नाम दिया गया।


  चंद्र शेखर आजाद एक क्रांतिकारी स्वंत्रता सेनानी थे। पुलिस को जब पता चला कि चंद्र शेखर अपने साथियों के साथ अल्फ्रेड पार्क हैं तो उन्हें गिरफ़्तार करने के लिए पुलिस ने उन्हें चारों तरफ़ से घेर लिया। उस समय डीएसपी ठाकुर विश्वेश्वर सिंह के साथ उनके कांस्टेबलो ने गोलीबारी शुरू कर दी। आज़ाद ने तीन पुलिसकर्मियों को मारा और अपने साथियों के बचाव करते हुए घायल हो गए। आज़ाद खुद को बचाने के लिए अल्फ्रेड पार्क में एक पेड़ के पीछे छिप गए और गोली चलाने लगे। 
  उन्होंने अपने को हमेशा आज़ाद (स्वतंत्र) और कभी भी ज़िंदा पकड़े न जाने की प्रतिज्ञा ली थी इसलिए एक लम्बी गोलीबारी के बाद, अपनी बंदूक की आखिरी गोली अपने सिर में मार ली और आज़ादी की लड़ाई में आज़ाद अमर शहीद हो गये। 


 यहाँ हाथ से मूंछो को ताव देते हुए उनकी मूर्ति है जिसमें उनकी रिवाल्वर भी बनी है। यहाँ आकर आप देश प्रेम की अनुभूति करते हैं। यह एक बहुत ही अच्छी जगह है जहाँ देश प्रेम और प्रकति दोनों एक साथ प्रभावित करते हैं। सच मानें यह पार्क से कहीं अधिक एक उपवन ही है जो हरियाली से भरा हुआ है। यहाँ बरगद, नीम, पीपल, अशोक के बड़े बड़े पेड़ है और कई पौधे भी। शांत वातावरण के बीच यहाँ पक्षियों की आवाजें भी सुन सकते हैं। शोर से दूर यह योग और व्यायाम के लिए भी अच्छा स्थान है साथ ही यहाँ जॉगिंग ट्रैक भी है और यहाँ आप शांति से सैर भी कर सकते हैं।  
  शुल्क शायद 5 रूपए है जो कि नाम के बराबर है लेकिन प्रेमी जोड़े यहाँ भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं इसीलिए पूरे क्षेत्र का भ्रमण न करके केवल आज़ाद जी को श्रद्धांजलि देकर हम सभी रोमांचित थे, विशेषकर कि हमारे मामा जी।

लेटे हनुमान जी/ बड़े हनुमान जी प्रयागराज

  आज़ाद पार्क से बड़े हनुमान जी के लिए जाने के लिए एक बार फिर से संगम क्षेत्र जाना था इसलिए गाड़ी, ऑटो, या रिक्शा से ही जाना हो सकता था क्योंकि दूरी लगभग पांच किलोमीटर के आस पास होगी। लेटे हनुमान जी को बड़े हनुमान जी या बड़े मंदिर के नाम से भी जाना जा जाता है। इन्हें प्रयागराज के नगर देवता कहा जाता है। 
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कष्ट, बाधा, अरिष्ट दूर करते हैं और सभी की रक्षा करते हैं। बड़े हनुमान जी का मंदिर संगम में किले के पास ही है। वैसे प्रयागराज में हनुमान जी के अन्य प्राचीन मंदिर भी है जिनकी पूजा अर्चना से दुख और संकट दूर होते हैं।
यहाँ हनुमान जी की लेटी हुई मूर्ति है जिनके एक भुजा में राम लक्षण जी की मूर्ति है और दूसरे हाथ में गदा है।
जिसके बारे में अलग अलग मान्यताएं है। माना जाता है कि लंका युद्ध में विजय होने के बाद हनुमान जी ने भगवान राम और लक्षमण जी को अयोध्या छोड़ते समय गंगा तट पर पहुँच कर विश्राम किया था। 


   वहीं एक कथा यह भी मानी जाती है कि कन्नौज का एक धनी व्यापारी हनुमान जी का परम भक्त था। उसने विंध्याँचल के पत्थर से यह मूर्ति बनवाई और नौका से लाने लगा लेकिन मूर्ति भारी होने के कारण उसकी नौका डूब गई और मूर्ति जलमग्न हो गई। तब उसने स्वप्न में देखा कि हनुमान जी की इच्छा वहीं रहने की है तो उसने मूर्ति वही रहने थी। और जब गंगा जी का कच्छार बदला तो मूर्ति रेत में दबी थी। संत बालगिरी जी महाराज ने वह मूर्ति वहीं स्थापित कर दी जो संगम में आस्था और श्रद्धा का केंद्र है। 
  एक और मान्यता है कि सूर्य भगवान ने हनुमान जी को वनवास के समय राम जी की सेवा और सहायता के लिए कहा था। हनुमान जी जब अयोध्या के लिए निकले तो गंगा तट पर पहुँचते हुए सूर्यदेव अस्त हो गये। हनुमान जी ने रात में गंगा नदी का मान रखते हुए रात को पार नहीं किया और भारद्वाज मुनि के सत्संग में चले गये। वहां मुनि ने बताया कि कल प्रभु राम, लक्ष्मण और माता सीता गंगा पार कर यहाँ पहुंचेंगे तो हनुमान जी गंगा तट पर ही उनकी प्रतीक्षा करने लगे और उनका ध्यान करने लगे। वहां भगवान को लगा कि हनुमान जी सभी दुष्टों का संघार कर देंगे तो मेरे अवतार का उद्देश्य समाप्त हो जायेगा तो उन्होंने माया को भेजकर ध्यानस्थ हनुमान जी को घोर निद्रा में डाल दिया। 
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  सुबह भगवान राम गंगा तट पर पहुँच कर प्रयाग पहुंचे तो अपने भक्त हनुमान को सोते हुए देखकर आशीर्वाद दिया कि जो कोई भी सोते हनुमान जी की पूजा अर्चना करेगा उसे मेरा आशीर्वाद कृपा स्वरूप मिलेगा और उसके शत्रु परास्त होंगे। 
  यह भी कहा जाता है कि अकबर ने हिन्दुओं का दिल जीतने के लिए और मंदिर का मान रखने के लिए अपने किले की दिवार को तिरछा कर लिया। वहीं औरंगजेब और अंग्रेजो ने इसे तोड़ने का प्रयास किया किन्तु मूर्ति उठाने में सफल न हुए। जितनी बार प्रयास किया मूर्ति जमीन में धंसती गई इसलिए यह जमीन से छ सात फ़ीट नीचे है। इसी बड़े हनुमान मंदिर में हर वर्ष गंगा जी हनुमान जी का अभिषेक करने स्वयं मंदिर आती हैं। 
  यहाँ अब कोरिडर बन रहा है तो दर्शन देर से हो सकते हैं लेकिन अच्छे से होंगे। मंदिर सुबह 4 बजे से 2 बजे तक और शाम को 5 बजे श्रंगार आरती के समय से 10 बजे तक श्रद्धालुओं के लिए खुला रहता है।
   1 जनवरी की अपेक्षा आज (3 जनवरी) भीड़ कम थी और शायद सवा घंटे के बाद अच्छे से दर्शन हो गये। समय अधिक इसलिए लगा क्योंकि मंदिर के किवाड़ उस समय बंद थे लेकिन हमारे लिए इस समय दर्शन करना खड़े रहने से अधिक महत्वपूर्ण था। प्रयागराज में और भी हनुमान मंदिर है जिसमें सिविल लाइन्स के हनुमान जी जिन्हें छोटे हनुमान जी कहते है वो भी प्राचीन मंदिरों में से एक हैं।

पंडित जी की चाट/ Pandit Ji Ki Chat 

वापसी में लौटते हुए पंडित जी की चाट खाना भी लिस्ट में एक आवश्यक अंग था। इसलिए लौटते समय प्रयागराज की प्रसिद्ध पंडित जी की चाट का जमकर लुत्फ़ लिया और घर के लिए भी पैक किया। इंडियन एक्सप्रेस चौराहे से कर्नल गंज मोहल्ले की और जाने वाली सडक के दाये तरफ चौराहे पर ही यह दुकान स्थित है। 

  यह प्रयागराज की एक प्रसिद्ध दुकान है जिसे पंडित भगवती प्रसाद दूबे ने कर्नलगंज मोहल्ले में 1945 में शुरु की थी इसलिए यहाँ भी बहुत भीड़ होना स्वभाविक है। शाम 4 बजे से दुकान खुलने के साथ ही भीड़ आना आरम्भ हो जाती है जो कई बार रात होने से पहले ही सिमट जाती है क्योंकि चाट का भण्डार समाप्त हो चुका होता है। बच्चों और मैंने तो चाट का भरपूर स्वाद लिया लेकिन विकास और मामा जी ने चाट के साथ साथ वहां उपस्थित भीड़ से अपने अर्थशास्त्र का भी अंदाजा लगा लिया।


   यहाँ पर तरह तरह की स्वादिष्ट चाट शुद्ध खाद्य समाग्री से तथा साफ सुथरे तरीके से बनाई जाती है। एकदम खस्ता आलू टिक्की हो या खट्टी मीठी फुल्कि (गोल गप्पे) या फिर मुंह में घुलने वाला दही वडा या फिर टमाटर चाट या फिर बैंगन, पालक चाट या फिर सकौड़ा सभी का स्वाद बहुत बढ़िया लगता है। यहाँ पर अपने स्वाद के हिसाब से तीखा या मीठा बढ़ाया-घटाया जा सकता है। 

 शाम ढल गई थी और सुबह की ठंडी हवाएं अब शीत लहर का काम कर रही थी इसलिए अब घर जाने की तैयारी कर ली और इस तरह से हमने खाते पीते और घूमते हुए प्रयागराज पूरा तो नहीं लेकिन थोड़ा सा और देख लिया। 
 (3 जनवरी 2025)

शेष...

एक- Naari 

Comments

  1. “Prayagraj, the city of confluence, beautifully blends spirituality and history. Your article captures its charm and essence, making it a must-visit destination for every traveler!”

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