यात्रा के रंग: परिवार, धर्म, अध्यात्म
आखिर भागते भागते ट्रेन पकड़ ही ली भले ही पांच मिनट पहले ही लपकी लेकिन एक्सप्रेस ट्रेन सी चलती धड़कनों को अब जाकर राहत मिली !!
सच में DDLJ फिल्म के ट्रेन का सीन याद आ गया। लग रहा था कि ट्रेन चलने ही वाली और हमें भागते हुए इसे पकड़ना है। बस, इस सीन से हीरो शाहरुख़ खान गायब था, या यूँ कहें कि हीरो के किरदार में हम स्वयं ही थे। अपना पर्स, खाने के डिब्बे से भरा बैग, एक बड़ा सा सूटकेस और उसके साथ एक और बड़ा बैग। इन सबको लादे हुए भागना, ये हीरो से कम काम था क्या?? वो तो गनीमत है कि अब सामान की पेटियों में पहिये लगे होते हैं जिनसे थोड़ी राहत मिल जाती है नहीं तो DDLJ की जगह कुली फिल्म याद आती!!
चलो ये काम तो था ही इसके साथ सबसे बड़ा काम था कि अपनी नज़रें अपने नटखट जय के ऊपर रखना जिसकी उत्सुकता हमारी धड़कनो जैसी ही तेज थी। ये सामान तो केवल मेरे पास था, मां के एक हाथ में एक बड़ा बैग और अपना हैंड बैग, जिया के पास अलग ट्राली बैग। सब अपना अपना सामान लेकर दौड़ लगा रहे थे। लग रहा था कि इस समय सब हीरो के किरदार में हैं।
अब ये तो मानना ही होगा कि अगर 15 मिनट पहले स्टेशन पर पहुंचोगे तो उथल पुथल तो होगी ही। अब इन पंद्रह मिनटों में स्टेशन के अंदर भी जाना है, प्लेटफॉर्म का पता करना है, सामान सहित उतरना-चढ़ना है, अपना डिब्बा ढूंढ़ना है और फिर अपनी सीट भी। इन सभी के बीच लग रहा था कि हम बस जल्दी से अपने कोच में चढ़ जाएं। इस समय हर एक मिनट का मूल्य समझ में आ रहा था। और हमें तो अभी जय का टिकट भी लेना था क्योंकि जय को पहले ही बताया था कि बिना टिकट रेल में यात्रा करना अपराध है इसलिए उसके मन में उत्सुकता और डर बराबर बने हुए थे। चूँकि प्रयागराज में महाकुम्भ की भीड़ है इसीलिए हमारा रिजर्वेशन बहुत पहले हो चुका था लेकिन जय की उत्सुकता अपनी पहली रेल यात्रा के साथ साथ पहली टिकट के लिए भी थी।इसलिए स्टेशन पर पहुँच कर ही उसका आयु के हिसाब से आधा टिकट कराया ताकि उसे अपनी टिकट हाथ में दिखाई दे।

वैसे घर से स्टेशन दूरी बहुत अधिक नहीं है लेकिन पता नहीं अभी भी हम यकीन नहीं करना चाहते या फिर भूल ही जाते हैं कि देहरादून में ट्रैफिक की रफ़्तार अब दिल्ली ओर बैंगलोर की राह जैसी हो रही हैं। अब देहरादून खुला और साफ साफ नहीं रह गया है। यहाँ पर बहुत कुछ खुल गया है और बहुत कुछ साफ भी हो गया है!!
चलिए जो भी है फिलहाल हम देहरादून के रेलवे स्टेशन पर प्लेटफार्म नंबर एक पर खड़ी सूबेदारगंज की ट्रेन के सामने थे। हम सभी एक विशेष अवसर के लिए प्रयागराज जा रहे थे।
वैसे सफर के मुख्य नायक विकास के पास भी अपना सामान तो था ही साथ में मामा जी (श्री सुभाष नैथानी) और मामी जी (श्रीमती ऊषा नैथानी) को भी अपने साथ ट्रेन में यात्रा कराने का जिम्मा भी क्योंकि इस बार की यात्रा के साथी मामा मामी जी भी है। हालाँकि उनको छोड़ने मेरी नंद और देवर दोनों आये थे लेकिन सामान के साथ मामी को ट्रेन बैठाना एक चुनौती थी क्योंकि मामी अपने घुटनों के कारण थोड़ा विवश है इसलिए 'बेबी स्टेप' छोटे छोटे कदमों से चलना और सावधानी के साथ चढ़ाना ही उचित है इसलिए ध्यान केवल मामी का था कि वो सावधानी से ट्रेन में चढ़ें और अपनी सीट में आराम से बैठें। वो इतने वर्षों में पहली बार ट्रेन में बैठी थी। अंदर से जो डर था अब उनके चेहरे की खुशी से गायब होता दिख रहा था।
अपने कोच के गेट पर रखे खचाखच सामान को जैसे तैसे आगे खिसकाया। अब इसे अपनी सीट के नीचे ठिकाने लगाना बहुत बड़ी चुनौती बन गई थी। बम्मुश्किल सामान ठिकाने किया लेकिन अब सीट पर बैठ कर राहत मिल गई थी। ठीक दोपहर के एक बजकर पांच मिनट पर रेलगाडी ने भी धीरे धीरे अपना सुर पकड़ना आरम्भ किया और जय ने भी।
जरा सा तस्सली से बैठे ही थे कि जय की भूख खुल गई जो समान्य था क्योंकि रास्ते के लिए खाना तो पैक था ही लेकिन बच्चों का कचर पचर का बैग अलग ही तैयार था। उसे वही कचर पचर ही खाना था घर का बना खाना नहीं। वैसे तरह तरह के चिप्स, पॉप कॉर्न, बिस्कुट, नमकीन, चॉक्लेट, टॉफ़ी के बीच भला किस बालक को भूख न लगेगी!!
चंचल जय और उसका मन दोनों ही उत्साही और उत्सुक हैं अपनी पहली रेल यात्रा में। उत्साही जिया की भी अपनी दुनिया है, वो समझदारी और जिम्मेदारी के साथ यात्रा करती है लेकिन भाई बहन के बीच शीत युद्ध होना भी सामान्य है इसीलिए जिया की समझदारी कितनी ही बार फीकी भी पड़ जाती है।
जिया के लिए रेल यात्रा अब समान्य हो चुकी है इसीलिए कितनी ही बार जय को चिढ़ाती है, "मै तो वन्दे भारत मे भी बैठी हूँ ओर प्लेन में भी और तू बेचारा अब जाकर ट्रेन देख रहा है।"
उसका ये कहना और जय का रोना और हमारा सिर दर्द होना सब क्रम दर क्रम चलता रहता है ।
वैसे भाई बहन का ये लड़कपन का रूप कुछ ही समय तक का है उसके बाद आपसी सामंजस्य के साथ भाई बहन एक दूसरे का बहुत ध्यान रखते है, जैसे मां और मामा जी।
अभी तो ट्रेन लगभग एक चौथाई ही भरी थी इसलिए पूरी ट्रेन में मानो जय का ही राज था। बहुत कम समय में ही उसने अपने डिब्बे का पूरा निरीक्षण कर लिया था। ये खाने की मेज है, ये रास्ते की लाइट का बटन है, ये ऊपर वाली सीट की लाइट है, फोन चार्ज करने का पॉइंट भी है, ये छोटा सा तकिया भी और ये कम्बल भी। सीट से सटी छोटी सी सीढ़ी का काम ऊपर जाने का है, यहाँ तक कि सामान टांगने वाला हुक भी और तो और बाथरूम के बाहर लगे हाथ धोने वाले सिंक है और उसके नीचे बने कूड़ेदान को भी उसने समझ लिया था जिसे शायद ही कोई देखने से समझ पाता हो। ऐसे में लगता है कि हम बच्चों की तरह इतने जिज्ञासु क्यों नहीं होते?? मुझे लगता है कि हमें यात्राओं में हमेशा खाली दिमाग के साथ ही जाना चाहिए सारी चिंताओं और तनाव को पीछे छोड़कर ताकि कुछ नया भर सके। इन बच्चों की तरह।।

खैर, हरिद्वार आते ही लगभग तीन चौथाई डिब्बा भर चुका था। और अब थोड़ा संकुचित होकर बैठने में ही समझदारी थी क्योंकि छ: में से पांच सीट ऊपर वाली थी। साथ ही अब हमारे सामान को भी ठिकाने लगाने के स्थान पर ढंग से व्यवस्थित करने का समय आ चुका था क्योंकि हमारे जैसे और भी यात्री थे जो अपने सामान के साथ लकदक बने हुए थे और हमारी सीट के सामने तो बाबा जी विराजमान हुए जिनके सेवादारों ने उनके सामान से लगभग पूरा कक्ष ही भर दिया। शायद पूरे कुम्भ तक उनका प्रवास प्रयागराज में ही होने वाला था। इसलिए उनके सामान के हिसाब से अपने सामान को व्यवस्थित करना पड़ रहा था। उनको देख कर लग रहा था कि ये जीवन भी सही है। 'खाली हाथ आया था खाली हाथ जाऊंगा' वाले संत के पास हम से अधिक सामान और सम्मान भी।
चलो, जैसा भी है सभी के जीवन के अपने तरीके है, नियम हैं, अपने मूल्य हैं और अपनी अलग परिभाषा। " जाही विधि राखे राम ताही विधि रहिये"। इसी गुनगुनाहट के साथ मेरे मन की ट्रेन भी आगे बढ़ रही थी और सभी की अपनी अपनी बातें भी । यहीं से हमे भी पता चल रहा था कि उत्तराखंड अब उत्तर प्रदेश से मिल रहा है। आसपास के सभी लोगों की बोली में एक अलग लहज़ा था। वे कन्नौजी या अवधी, या पूरब की शैली में बात कर रहे थे या फिर कहें कि एक खास अंदाज वाली बोली में बात कर रहे थे। कभी तहजीब वाली, कभी मीठी, कहीं पर कड़क भी। यहाँ से उत्तर प्रदेश की संस्कृति की झलक दिखाई दे रही थी।
इन सबके बीच में खाना पीना भी चलता है और ट्रेन की मीठी चाय भी। जिसकी कर्री आवाज जय को तो बहुत पसंद आई,,,"चाय गर्मा गर्म चाय"।
जितनी मीठी उसकी आवाज़ जय को भा रही थी उतनी ही मीठी उसकी चाय भी। जो बच्चा चाय कभी नहीं पीता था उस आवाज की खुशी में कड़क मीठी चाय भी पी गया और भेलपूरी का स्वाद भी नटखट जय ने अपनी आवाज के साथ लिया,"भेलपूरी-भेलपूरी, झालमुरी-झालमुरी"
यहाँ बंद कोच में भी चाय और भेलपूरी जैसा आइटम मिल रहा था जो बच्चों और हमारे लिए पिकनिक जैसा था। यहाँ तक कि ऑनलाइन पिज़्ज़ा ऑर्डर करने पर अगले स्टेशन पर अपने कोच में प्राप्त हो जाना भी बच्चों के लिए नया रोमांच था। उनको और क्या चाहिए था!! सभी कह रहे थे कि वाह! समय के साथ रेलवे की सुविधाये भी बेहतर हो गई हैं।
ट्रेन आगे बढ़ रही थी और नई नई चीज़ों को खोजने और खाने की भी। नज़ीबाबाद, मुरादाबाद के बाद चंदौसी में आते ही विकास से रहा नहीं गया ओर वहां के प्रसिद्ध छोले भटूरों की तरफ खींचे चले गये। हालाँकि छोलों में एक विशेष कोयलों की सुगंध आती है लेकिन उनमें पड़ी लाल मिर्च हमारे जीभ से नीचे नहीं उतर पाई और विकास को मायूसी के साथ एक बार फिर से घर के बने खाने से ही अपनी भूख मिटानी पड़ी।
अब धीरे धीरे डिब्बे की रोशनी मद्धम हो रही थी और कानों में पड़ती आवाज भी गुम हो रही थी। हम लोग भी अपनी अपनी सीट पर आ चुके थे। जिया परेशान थी कि उसे नींद नहीं आ रही है और मैं उसे बार बार समझा रही हूँ कि नौ बजे से कैसे नींद आ जायेगी। जय को भी बड़ी कठिनाई से अपने साथ ऊपर वाली सीट पर सुलाना पड़ा नहीं तो मेरे साथ अन्य यात्री भी परेशान होते। हालांकि जिया की बैचैनी अभी भी बनी हुई है और फोन से अलग होने पर उसके पास लेटने के अलावा अन्य कोई विकल्प भी नहीं बचा है।
सच मानो तो किताब यात्रा का सबसे अच्छा साथी है लेकिन बच्चों के लिए यात्रा के साथी अब कोई किताब नहीं मोबाइल ही है। बच्चे ही क्या बड़े भी अब इसी आदत के शिकार हैं और जमाना भी। तभी तो अब स्टेशन पर किताबों का जो आकर्षक सा स्टॉल लगता था गायब हो गया है।
बहुत रात हो चुकी थी, जिया भी सो चुकी थी और जय भी। पूरा डिब्बा शांत था कभी कभी बीच में किसी के फोन से रिल्स की आवाज़ आ रही थी, वो बेचारा भी क्या करे?? क्योंकि आजकल की हवा में
पढ़ने से अधिक सुविधाजनक तो देखना लगता है।
मेरे लिए नींद आना कठिन था क्योंकि बिना हिले रेलगाडी कहीं नहीं जा सकती। और बिना लिखे मै रह नहीं सकती। मैं जागते हुए ही प्रयागराज की कल्पना कर रही थी उस शहर की जो सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, शैक्षणिक, साहित्यिक और राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र रहा है।
3 बजे के आसपास ट्रेन कानपुर पहुंच गई थी और लगभग ट्रेन आधी खाली हो चुकी थी। अब जाकर मौका मिला था नीचे की सीट में थोड़ा सुस्ताने का नहीं तो पैर नीचे लटकाना भी कठिन हो रहा था क्योंकि हमारे कोच में आधे लोग कानपुर के थे जो ऋषिकेश में अपनी गुरु मां के प्रवचन सुनने आये थे। उनके हरिद्वार में बैठने के बाद से ही अपनी ऊपर वाली सीट में जाना उचित लगा ताकि वे आराम से सो सकें। उनके साथ थकान मुझे भी हो गई थी इसीलिए कानपुर आने पर उनके सामान समेटने से पहले ही मैंने नीचे उतरने की तैयारी कर ली। रात के तीन बजे के आस पास फिर से हलचल आरम्भ हो चुकी थी। किसी का सूटकेस, किसी का थैला, किसी का बैग सब समेटने से आसपास के लगभग सभी यात्रियों की नींद खुल चुकी थी और हमारे नीचे की दोनों सीट भी खाली हो गई। नीचे की बर्थ में जाने पर ही अपने पैरों को थोड़ा आराम मिला और मां को भी राहत।

सुबह के 6 बजे थे और अंधेरा अभी भी जस का तस था। हमें जगमगाते प्लेटफार्म की लाइटों से पता चल कि हम सुबेदारगंज पहुंच चुके हैं। इस स्टेशन पर थोड़ी भीड़ भाड़ कम थी, वैसे पहले देहरादून से इलाहाबाद जाने वाली ट्रेन पहले इलाहाबाद जंकशन (प्रयागराज जंकशन) पर ही जाती थी जो कि एक बहुत बड़ा स्टेशन है लेकिन अब थोड़ा भीड़ को नियंत्रित करने के लिए यहाँ दिल्ली, मुंबई, गोरखपुर, हावड़ा वाली लाइन चलती है इसीलिए देहरादून की ट्रेन अब सूबेदारगंज पर ही रुकती हैं। हम भी यहीं पर उतरे और प्रयागराज की धरती पर पैर रखते ही 'आपका स्वागत है' के शब्दों के साथ भाई साहब 'श्री समीर चंदोला' हमारे सामने थे। हम भाई साहब के ए जी (अकॉउंटेंट जनरल) ऑफिस से सेवनिवृत्ति के विशेष अवसर पर उनका सम्मान करने ही इलाहाबाद आये थे।
बाहर का मौसम देहरादून की अपेक्षा थोड़ा कम ठंडा लग रहा था या फिर प्रयागराज पहुँचने की खुशी। खैर, जो भी हो हम बिना किसी कंपकपाहट के एक बार फिर से अपने को सारे सामान सहित दो गाड़ियों में खोसकर घर की तरफ निकल पड़े।
हमें तेलियरगंज की तरफ जाना था, अभी अंधेरा ही था तो रास्ते भी खाली ही मिले। इलाहाबाद बहुत बड़ा और पुराना शहर है। लेकिन सड़कों को चौड़ाई बढ़ा कर और फ्लाई ओवर पुल बना कर प्रयागराज को नया बना दिया है साथ ही महाकुम्भ की तैयारी में चौराहे तो बिल्कुल सजीले बना दिये हैं। मुख्य सड़कों पर जाते हुए तो लग रहा था कि ये दिल्ली की मुख्य सड़कों की तरह ही खुली और चौड़ी हैं बस अभी ट्रैफिक का झाम नहीं है।

एक बिल्डिंग रंग बिरंगी रोशनी के साथ भी दिखाई दी जो किसी महल जैसा ही लग रहा था लेकिन ये हमारा भ्रम था।छोटे भाई साहब श्री तपन चंदोला जी ने बताया कि असल में ये महल नहीं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी है जिसे अंग्रेजों ने सन् 1887 में एक अंग्रेज वास्तुविद इमरसन ने विशिष्ट शैली में निर्माण कराया था। ये आधुनिक भारत की पुराने विश्व विद्यालय में चौथे स्थान पर है। इसे 'पूरब के आक्सफोर्ड' से भी जाना जाता है और साथ ही IAS की फैक्ट्री और साहित्य का गढ़ भी। देश के कई प्रसिद्ध साहित्यकार, आईएएस, न्यायाधीश, राजनेता इसी यूनिवर्सिटी से मिले हैं। भारत के तीन प्रधानमन्त्री और छ: मुख्यमंत्री भी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के छात्र रहे हैं ऐसी जानकारी भी हमें चलते चलते मिलती गई और हम उत्सुकता के साथ सब देख सुन रहे थे। रास्ते में मोतीलाल नेहरू राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, आनंद भवन, उत्तरी क्षेत्रीय मुद्रण प्रौद्योगिकी संस्थान के भी बोर्ड दिखाई दिये और भी बहुत कुछ।
वैसे देखना, जानना, समझना तो बहुत कुछ था लेकिन उससे पहले अपने प्रियजनों से मिलना जरूरी था। सोचा, बस अब इतना ही क्योंकि अब अपने को समेटकर अपनों से मिलना भी है।
अभी तो असल में यात्रा आरम्भ हुई थी जो लिखनी बाकी है। (31 Dec 2024)
शेष...
एक -Naari
Beautiful....I am travelling along with your story
ReplyDeleteAbsolutely stunning! Your travel stories and photos always inspire wanderlust. Can’t wait to read about your next adventure!”
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