चूरमा Mothers Day Special Short Story

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Mother's Day Special... Short Story (लघु कथा) चूरमा... क्या बात है यशोदा मौसी,, कल सुबह तो पापड़ सुखा रही थी और आज सुबह निम्बू का अचार भी बना कर तैयार कर दिया तुमने। अपनी झोली को भी कैरी से भर रखा है क्या?? लगता है अब तुम आम पन्ना की तैयारी कर रही हो?? (गीता ने अपने आंगन की दीवार से झाँकते हुए कहा)  यशोदा ने मुस्कुराते हुए गर्दन हिलाई । लेकिन मौसी आज तो मंगलवार है। आज तो घर से चूरमे की मीठी मीठी महक आनी चाहिए और तुम कैरी के व्यंजन बना रही हो। लगता है तुम भूल गई हो कि आज सत्संग का दिन है। अरे नहीं-नहीं, सब याद है मुझे।   तो फिर!! अकेली जान के लिए इतना सारा अचार-पापड़। लगता है आज शाम के सत्संग में आपके हाथ का बना स्वादिष्ट चूरमा नहीं यही अचार और पापड़ मिलेगे। धत्त पगली! "चूरमा नहीं,,,मेरे गोपाल का भोग!!" और सुन आज मै न जा पाउंगी सत्संग में।  क्या हुआ  मौसी?? सब खैरियत तो है। इतने बरसों में आपने कभी भी मंगल का सत्संग नहीं छोड़ा और न ही चूरमे का भोग। सब ठीक तो है न??   सब खैरियत से है गीता रानी, आज तो मै और भी ठीक हो गई हूँ। (यशोदा तो जैसे आज नई ऊर्जा से भर गई थी, ...

इगास: उत्तराखंड की दिवाली (Igas: The Diwali of Uttarakhand)

   इगास: उत्तराखंड की दिवाली


 9 नवम्बर 2024 से उत्तराखंड की रजत जयंती वर्ष (25 वर्ष) का आरंभ हो रहा है। इस विशेष अवसर पर हम सिर्फ अपने राज्य की स्थापना का ही नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, सपनों और अटूट जज़्बे का जश्न मना रहे हैं। मन में उल्लास है और विश्वास भी कि उत्तराखंड विकास के पथ पर निरंतर अग्रसर रहेगा और अपनी अनोखी संस्कृति और परंपराओं को भी संरक्षित रखेगा। आआज का लेख इसी संस्कृति के साथ जुड़ा है, उत्तराखंड का लोकपर्व इगास। 

   अभी तो दिवाली समाप्त हुई है लेकिन उतराखंडियों के लिए दिवाली की जगमगाहट फिर से आ रही है। शुभ दिन, इगास के साथ। 

  नवरात्रि से शुभ दिनों का आगमन आरंभ हो जाता है। पहले माँ जगदंबा के दरबार में मन पवित्र होता है उसके बाद प्रभु राम का गुणगान। सच मानो तो त्योहारों की झड़ी लग जाती है और मन में खुशियोँ की फुलझड़ी तो जैसे कभी खत्म ही नहीं होती बस जगमगाती ही रहती है। ऐसे में लगता है कि दिवाली की खुशियाँ कभी समाप्त ही न हो। 


 जैसे कि दिवाली तो चली गई लेकिन इस फुलझड़ी की जगमगाहट उत्तराखंड में इगास तक रहती है। इगास उत्तराखंड की दिवाली है जो दिवाली के ग्यारह दिन बाद यानी कि एकादशी को मनाई जाती है। यह देवप्रबोधिनी एकादशी होती है जिसे देवउठनी एकादशी भी कहते है क्योंकि मान्यतानुसार भगवान विष्णु अपने 4 माह के शयन के बाद इसी दिन से जागृत होते हैं। इसी दिन से मांगलिक और शुभ कार्यो का आरम्भ किया जाता है। गढ़वाल में यही एकादशी ईगास और दिवाली बग्वाल के नाम से जानी जाती है इसलिए उत्तराखंड में इसे लोकपर्व के रूप में ईगास बग्वाल या बूढ़ी दिवाली के नाम से मनाया जाता है। 

 इगास के दिन क्या खास होता है गढ़वाल में?? 

     pic sourse: google

  इस विशेष दिन में देवी देवता के पूजन के साथ घर के गौ वंश की विशिष्ट रूप से पूजा होती है। उनपर तिलक लगाकर गले में माला डालकर पूजा जाता है। साथ ही गाय बैल को पींडू (चावल, झंगोरे, मंडुआ से बना गौवंश का पौष्टिक आहार) दिया जाता है।


  घर में गढ़वाल के पारंपरिक व्यंजन जो शुभ कार्यों में बनाऐ जाते हैं जैसे कि पूरी, भूड़े (उड़द दाल की पकौड़े), स्वाले(दाल से भरी कचौड़ी) तो बनते ही हैं साथ ही जो बच्चे इन गाय बैलों को चराकर या सेवा करके लाते हैं उन्हें भेंट स्वरूप मालू के पत्ते पर पूरी, पकौड़ी और हलवा दिया जाता है जिसे ग्वालढिंडी कहा जाता है। बर्थ (मोटी रस्सी) भी खींची जाती है। इस परंपरा में बर्थ को समुद्र मंथन में वासुकी नाग की तरह समझा जाता है। 

रोशनी का खेल : भैलो 

  इस रात को दीपक तो जलते ही हैं लेकिन पटाखों की जगह भैलो का खेल होता है जो उत्साह से भरपूर होता है। भैलो सुरमाडी के लगले (जंगली बेल) की बनी रस्सी होती हैं जिसके एक छोर पर छोटी छोटी लकड़ियों का एक छोटा गट्ठर होता है यह लकड़ी चीड़ देवदार या भीमल के पेड़ की छाल होती हैं जो ज्वलनशील होती हैं। इसे दली या छिल्ला कहा जाता है। इगास के दिन लोग सामूहिक रूप से मिलकर भैलो जलाते हैं। 




     (भैलो नचाते श्री सुशील सेमवाल जी ) 

    गांव में नौजवान भैलो जलाकर उत्साही रूप से घुमाते हैं और अपने को वीर मानकर स्वयं को राम की सेना मानते हैं और सामने दूसरे गांव के लोगों को रावण की सेना कहकर व्यंग्य करते हुए नृत्य गान भी करते हैं। 


        ( श्रीमती जया नेगी गैरोला द्वारा भेजा गया भैलो वीडियो) 

इगास क्यों मनाया जाता है?? 

  इगास उत्तराखंड का लोकपर्व है जिसे पहाड़ी दिवाली/ बूढ़ी दिवाली भी कहते है। उत्तराखंड में भगवान राम के अयोध्या वापस लौटने का समाचार दिवाली के ग्यारहवें दिन यानी इसी दिन मिला था। इसीलिए यहाँ दिवाली एकादशी के दिन ईगास के रूप में मनाई जाती है। 


  यह भी कहा जाता है कि गढ़वाल के वीर भड़ माधो सिंह भंडारी अपनी सेना के साथ जब युद्ध के लिए तिब्बत गए तो लंबे समय तक वापस नहीं लौटे। 

 (गढ़वाली लोक गीत: बारह ए गैनी बग्वाली मेरो माधो नि आई, सोलह ऐनी श्राद्ध मेरो माधो नी आई।(बारह बग्वाल चली गई, लेकिन माधो सिंह लौटकर नहीं आए। सोलह श्राद्ध चले गए, लेकिन माधो सिंह का अब तक कोई पता नहीं है।) गढ़वाल में समझा गया कि सभी युद्ध में मारे गए होंगे इसी लिए दिवाली नहीं मनाई गई फिर माधो सिंह भंडारी के सेना सहित दिवाली के ठीक ग्यारह दिन बाद गढ़वाल आने की सूचना प्राप्त हुई और उस दिन एकादशी थी और उसी दिन से ईगास का पर्व मनाया जाने लगा।

  वैसे एक और मान्यता यह भी है कि पांडव जब हिमालय वास में थे तो भीम के साथ एक असुर का युद्ध चल रहा था और जब भीम असुर का वध कर सकुशल लौटे तो गांव में इसी इगास को दीपक जलाकर खुशियां मनाने लगे।

  

और इन्हीं सबके के साथ उत्तराखंड में खुशियों के दीपक इगास के रूप में जलने लगे। शहरों में गौवंश की विशिष्ट पूजा और भैलो खेलना थोड़ा असंभव हो सकता है लेकिन पारंपरिक व्यंजन पूरी, भूड़े और स्वाल अरसा का स्वाद लिया जा सकता है और प्रभु राम के नाम का दीपक एक बार फिर से जलाया जा सकता है। 


आप सभी को उत्तराखंड स्थापना दिवस (9 नवम्बर) एवं इस वर्ष के इगास बग्वाल (12 नवंबर) की हार्दिक शुभकामनाएँ!! 



एक -Naari















Comments

  1. You are doing wonderful efforts in keeping the culture alive... most of us even don't know about our rituals and culture fully but you are seeding them in the mind and heart of upcoming generations. Great Efforts Reena. Keep doing it 👏👏👏👏

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