प्रकृति: सुनो तो सही!!
ऐसा लगता है कि रह रह कर प्रकृति कुछ न कुछ बताने की कोशिश कर रही है या कुछ कहने की और अगर हम न सुने तो फिर ये हमें समय समय पर चेतावनी भी दे रही है कि 'मुझे मत छेड़ो। अगर मुझे छेड़ोगे तो मैं किसी न किसी रूप में अपना बदला लूंगी।' और एक हम लोग हैं जो इन संकेतों को समझ नहीं रहे हैं या यूँ कहा जाए कि इन चेतावनियों को हल्के में ले रहे हैं और फिर से उसी राह में आगे बढ़ जा रहे हैं। ऊपर से अपनी गलतियों को नज़रंदाज कर प्राकृतिक आपदा के नाम पर प्रकृति माँ को ही दोष दे रहे हैं।
क्यों!! मानो या न मानो लेकिन सिलक्यारा टनल का हादसा अभी एक ताजा उधारण है विकास vs विनाश का। ये अवश्य है कि 17 दिन बाद इस सुरंग से सभी मजदूर सकुशल आ गए ये एक बहुत बड़ी जीत है।
हमने इस बचाव कार्य के लिए तरह तरह की तकनीक का उपयोग किया जिसमें हम सफल हुए और आज हम सभी उत्साहित भी हैं कि बिना किसी जन हानि के हमने इस विपदा को काट दिया ये बहुत अच्छी बात है। लेकिन हम ये मानने के लिए क्यों तैयार नहीं हैं कि प्राकृतिक आपदा विपदाओं के सामने हम हमेशा हारते ही हैं। हम कितना भी विकास कर लें सबसे ऊपर प्रकृति माँ है और माँ का शोषण करके आगे नहीं बढ़ा जा सकता!
हम अपनी सुविधा के लिए या कहे कि विकास के नाम पर चार धाम यात्रा को सुगम बना रहे हैं लेकिन इस विकास के साथ प्रकृति माँ का विनाश भी हो रहा है। कितने पर्यावरणविद्, बुद्धिजीवी वर्ग और स्थानीय लोग भी हिमालयी क्षेत्र में होने वाले इस तरह के निर्माण कार्य को प्रकृति के अनुकूल नहीं मानते है लेकिन फिर भी हम अपनी महत्वाकांक्षाओं के फेर में भविष्य के विनाश को भांप नहीं रहे हैं। (इस बात को सभी जान रहे हैं लेकिन मान नहीं रहे हैं। )
आर्थिक और सामाजिक विकास के नाम पर प्रकृति का दोहन करना घातक सिद्ध हो रहा है जिसका परिणाम है कि आज जलवायु परिवर्तन से लेकर पारिस्थितिकी तंत्र तक सब जगह इसका प्रभाव दिखाई दे रहा है। भले ही ये अभी हिमालयी क्षेत्र में थोड़ा कम दिखाई दे लेकिन धीरे धीरे इसका व्यापक प्रभाव हमारे पहाड़ी क्षेत्र, समाज और संस्कृति में भी दिखाई दिखेगा। सच माने! हम प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति को चुनौती दे रहे हैं और वो भी बिना किसी तैयारी के।
देश में विकास आवश्यक है और विकास के लिए निर्माण भी लेकिन भौगोलिक निर्माण से कहीं अधिक कामगर है बौद्धिक निर्माण जो मानव जाति के कल्याण के साथ साथ प्रकृति के संतुलन पर ध्यान दें और साथ ही जो हिमालय के साथ छेड़छाड़ के स्थान पर उसके साथ सामंजस्य पर बल दे। बाकी विकास की न तो कोई सीमा रेखा है न कोई विकल्प लेकिन विकास के मानक अवश्य तय हो सकते हैं जिन पर ध्यान देना आवश्यक है।
थोड़ा तो सोचना पड़ेगा कि विकास के नाम पर हम हिमालय के वक्षों में न जाने कितने छेद कर रहे हैं, यहाँ बहने वाली कितनी नदियों का गला घोट रहे हैं और अपनी धरती को जगह जगह से छील रहे हैं। क्या ये सही है??
और अगर ये सही है तो इसके बदले में भूस्खलन, बाढ़, मौसम परिवर्तन या अन्य प्राकृतिक आपदाओं को झेलने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। तब फिर हमें सिलक्यारा जैसी घटनाओं के लिए अपने प्यारे पहाडों को और इस प्रकृति माँ को दोष नहीं देना चाहिए। और अगर ये स्वीकार नहीं तो सुनो और समझो जो प्रकृति माँ कहती है। तब विकास और पारिस्थितिकी के समन्वय को ध्यान में रखकर आगे बढ़ो।
Save Himalaya!! Save Mother Nature!! Save Earth!!
एक -Naari
Bahut sunder👍👍
ReplyDeleteMa'am , you have mentioned it correctly 👍. It's an eye opener for the concern authority. In the name of development we can't play around with Nature. Save Himalayas , Save Planet 🌎
ReplyDeleteWe have to think that human can develop under the nature only not with the surrounding of concrete...ecosystem is highly effected with these so called development.
ReplyDeleteGenuine article...
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