प्रतिस्पर्धा की चुनौती या दबाव

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प्रतिस्पर्धा की चुनौती या दबाव    चूंकि अब कई परीक्षाओं का परिणाम आ रहा है तो बच्चों और अभिभावकों में हलचल होना स्वभाविक है। हाल ही में ऐसे ही एक परीक्षा जेईई (Joint Entrance Test/संयुक्त प्रवेश परीक्षा) जो देशभर में सबसे लोकप्रिय और महत्वपूर्ण इंजिनयरिंग परीक्षा है उसी का परिणाम घोषित हुआ है। इसी परीक्षा की एक खबर पढ़ी थी कि जेईई मेन में 56 बच्चों की 100 पर्सन्टाइल, है...कितने गर्व की बात है न। एक नहीं दो नहीं दस नहीं पूरे 56 बच्चों के अभिभावक फूले नहीं समा रहे होंगे।    56 बच्चों का एक साथ 100 परसेंटाइल लाना उनके परीक्षा में आये 100 अंक नहीं अपितु ये बताता है कि पूरी परीक्षा में बैठे सभी अभ्यार्थियों में से 56 बच्चे सबसे ऊपर हैं। इन 56 बच्चों का प्रदर्शन उन सभी से सौ गुना बेहतर है। अभी कहा जा सकता है कि हमारे देश का बच्चा लाखों में एक नहीं अपितु लाखों में सौ है।    किसी भी असमान्य उपलब्धि का समाज हमेशा से समर्थन करता है और ये सभी बच्चे बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं इसलिए सभी बधाई के पात्र हैं। परसेंटेज जहाँ अंक बताता है वही परसेंटाइल उसकी गुणवत्ता बताता है।

महिलाएं बच्चों को प्रकृति के साथ कैसे जोड़ें

महिलाएं बच्चों को प्रकृति के साथ कैसे जोड़ें

How to connect children with nature... 

    ये तो आप सभी मानते ही हैं कि बच्चा सबसे पहले अपने घर परिवार से सीखता है और उस परिवार में भी बच्चों के प्रति एक माँ का दायित्व अन्य की तुलना में अधिक माना जाता है। इसीलिए एक माँ ही अपने बच्चे की प्रथम मित्र और शिक्षिका दोनों होती है।  
   अब जिस प्रकार से माँ और बच्चे का संबंध बहुत ही महत्वपूर्ण है इसी तरह से हर मनुष्य का एक और महत्वपूर्ण संबंध है जो होता है प्रकृति माँ से। प्रकृति माँ के बिना भी मनुष्य की कल्पना करना असंभव है। ये प्रकृति माँ ही हैं जो हमें बचपन से इस सुंदर दुनिया का आभास कराती है।  
 अपनी आने वाली पीढी़ को भी एक सुंदर और स्वस्थ वातावरण देने के लिए अपने बच्चों को बचपन से ही प्रकृति माँ से जुड़ने की प्रेरणा हमें समय समय पर देनी चाहिए। इसके लिए बच्चों की आयु वर्ग के अनुसार आप नए नए विकल्प खोज सकती हैं जो बच्चों को प्रकृति माँ से जुड़ने की प्रेरणा दे।
  जिसका आरंभ हमें सबसे पहले प्रकृति शब्द के स्थान पर प्रकृति को माँ के संबोधन से करना होगा। हमें बच्चों को यह सीख देनी होगी कि प्रकृति भी माँ है जिससे कि वे भावनात्मक रूप से भी प्रकृति के साथ जुड़ें। इसलिए अपनी व्यवहारिक भाषा में प्रकृति को प्रकृति माँ या मदर नेचर से संबोधित करें। उन्हें यह आभास करायें कि जिस तरह से एक माँ निस्वार्थ भाव से अपने बच्चों का लालन पालन करती है ठीक उसी तरीके से प्रकृति माँ भी बिना किसी स्वार्थ के और बिना किसी भेद भाव से अपने सब मनुष्यों का भरण पोषण करती है इसलिए हमारा यह कर्तव्य बन जाता है कि हम जितनी भावनाएं अपनी जन्म देने वाली माँ के प्रति रखते हैं उसी रूप में प्रकृति माँ का भी ध्यान रखें। 
 अब बच्चों को हम बागवानी के द्वारा प्रकृति माँ से जोड़ सकते हैं। बच्चों को घर के आंगन या बालकनी में लगे फूल पौधों को नियमित रूप से पानी देने के लिए कह सकते हैं। यहाँ तक कि उनकों छोटी छोटी चुनौतियों के साथ बागवानी में जोड़ें। जैसे कि उन्हें चुनोती के रूप में कुछ बीज या छोटी छोटी पौध दें, और पहले उन्हें पौधों की देखभाल के बारे में बताएं फिर उन्हें उसकी जिम्मेदारी दें। 
 अब जैसे बच्चों को जब ये कहा जाए कि आप तो बहुत बड़े हो गए हो, बहुत समझदार हो गए हो तो वे बहुत खुश होते हैं। इसलिए उन्हें बागवानी का काम एक जिम्मेदारी के रूप में दें जिससे कि वे अपने आप को बड़ा और जिम्मेदार होने का अनुभव कर सके। 
   इसके साथ ही बच्चों को पक्षियों के लिए दाना पानी की व्यवस्था के लिए भी प्रोत्साहित करें। इसका आरंभ हम भले ही घर के बाहर या छत के एक कोने में या अपने आंगन के किसी कोने में पानी रख कर भी सकते हैं। प्रतिदिन पक्षियों को दाना पानी देने से धीरे धीरे तरह तरह के पक्षियों का आना आरंभ हो जाता है जो बच्चों के लिए एक रोचक दृश्य होता है। 
बच्चें प्रकृति के इस रूप को उत्सुकता से देखेंगे भी और जानेंगे भी। महिलाएं अपने बच्चों को इस प्रकार के कार्य में भागीदार बनाएं और फिर इसकी जिम्मेदारी भी बच्चों को दें। इस तरह के कार्य भी बच्चों के लिए एक फन एक्विटी की तरह होती हैं जो उन्हें प्रकृति माँ से जोड़ती है। 
  आजकल हम सभी महिलाओं की एक आम समस्या है कि हमारे बच्चे मोबाइल पर व्यस्त रहते हैं, या घंटों तक टीवी देखते हैं। नहीं तो अपनी वर्चुअल दुनिया में खोये हुए हैं जिसके कारण वे घर तक ही सीमित हो गए हैं। यह भी एक प्रकार की लत ही है जिसके कारण बच्चों में शारीरिक और मानसिक विकार उत्पन्न हो रहे हैं। फिर ये भी देखा गया है कि आजकल बाहर तरह तरह के संक्रमण भी हैं जिसकी वजह से हम बच्चों को बाहर जाने से या मिट्टी में खेलने से रोकते हैं जबकि पहले सारे खेल बाहर ही खेले जाते थे। बच्चे हर मौसम का आनंद लेते थे, मिट्टी के खिलौने भी बनाते थे तो सावन के झूले भी झूलते थे नहीं तो पेड़ के पीछे छुपते भी थे। आज के समय में यह सब दिखाई नहीं दे रहा है। आज बच्चे घर के अंदर हैं और घर के अंदर भी अत्यधिक साफ सफाई है लेकिन हमारे बच्चे फिर भी बार बार बीमार हो जाते हैं जिसका कारण है उनकी प्रतिरोधक क्षमता का कमजोर होना। अब देखें साफ सफाई तो बहुत आवश्यक है ही लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना है कि प्रकृति माँ स्वयं बहुत कुछ सिखाती भी है और शरीर को संभालती भी है तो इन विकारों से बचने का भी उपाय है प्रकृति के साथ जुड़ना।
इसलिए हम अपने बच्चों को अगर आरंभ से ही प्रकृति के प्रति अच्छी सोच, अच्छी सीख और अच्छे कर्म की शिक्षा दें तो उसका सकारात्मक परिणाम भविष्य में अवश्य दिखाई देगा। इसलिए बच्चों को समय समय पर बाहर ले जाना भी आवश्यक है। 
  एक और बात पर ध्यान दिया जा सकता है जैसे कि आजकल हम लोग घूमने के लिए बाहर किसी मॉल जाते हैं या बाजार जाते हैं या शॉपिंग सेंटर जाते हैं जो कि एक चमकदार और आकर्षित करने वाली जगह हैं। ये ऐसे स्थान हैं जहाँ बड़ों के साथ साथ बच्चों को भी जाना अच्छा लगता है। अब अगर हम यहाँ जाते हैं तो हमें यह भी सुनिश्चित करना है कि हम जगमगाती दुनिया के साथ साथ बच्चों को प्रकृति के आनंद का भी ज्ञात करवाएं। इसके लिए महिलाएं अपने बच्चों को किसी भी नैचर पार्क में ले जा सकती हैं या नदी या समुद्र के किनारे, या किसी भी खेत खलिहान, अगर खेत खलिहान या नदी नहीं है तो किसी भी नर्सरी या पास के किसी भी उद्यान में भी बच्चों को घुमाने ले जाया जा सकता हैं। वहाँ उन्हें फल, फूल और सब्जियों की जानकारी दे सकते हैं जिससे कि वो जब भी अपना मन पसंद फल या सब्जी खाएं तो उन्हें प्रकृति माँ का ध्यान रहे। इसके अलावा बच्चों के साथ सुबह या शाम की सैर करना भी बहुत अच्छा है। बच्चे ताज़ी हवा-पानी, पशु-पक्षियों के साथ खुले वातावरण में अधिक ऊर्जावान और आनंदित तो होंगे ही साथ ही प्रकृति माँ की सेवा के लिए भी आगे आयेंगे। 
   महिलाएं एक और काम ये कर सकती हैं कि जब भी बच्चों की छुट्टियां हो तब उन्हें वर्ष में कम से कम एक बार तो अवश्य अपने गांव या पैत्रिक निवास में लेकर जाएं। हमारे गांव और हमारे बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं। वहाँ उनका भावनात्मक और सामाजिक विकास तो होगा ही साथ ही वे अपने प्राकृतिक संसाधनों को और भी अच्छे से अनुभव करेंगे। 
     चूंकि हमारे गांव प्राकृतिक स्त्रोत के भंडार हैं और हमारे बुजुर्ग ज्ञान और अनुभव के तो ऐसे में प्रकृति माँ को समझने में आसानी होगी। वहाँ वे खेती, पशु, पक्षी, पहाड़ के सीधे संपर्क में आयेंगे जिससे कि वे प्रकृति माँ और मानव के अनूठे सामंजस्य को थोड़ा ढंग से समझेंगे। साथ ही हमारे गांव अभी भी शहरी प्रदूषण से थोड़ा बचे हुए हैं इसलिए यहाँ पर वे एक नए वातावरण, नए परिवेश और नए अनुभवों के साथ पहले से अधिक केंद्रित, तनाव रहित और लचीले होंगे जिसका लाभ उन्हें अपने जीवन में आने वाली सभी चुनौतियों में मिलेगा। 
  एक और खास बात यह है कि हमारे देश में कितने ही लोक पर्व हैं जो प्रकृति माँ पर आधारित हैं। वसंत पंचमी हो चाहे बैसाखी या फिर दक्षिण भारत में मनाये जाने वाले ओनम, पोंगल, विषु या बिहु। ये सभी त्योहार किसी न किसी रूप में प्रकृति माँ को ही समर्पित है जो हमारी दैनिक दिनचर्या से अलग हमें प्रकृति का आनंद लेने के लिए प्रेरित करते हैं। 
   यहाँ उत्तराखंड में ही समय समय पर मनाये जाने वाले लोक पर्व भी तो प्रकृति माँ को ही समर्पित हैं। हमें ये सभी लोक पर्व अपने बच्चों के साथ पूरे उत्साह से मनाने हैं। उन्हें यह बताना होगा कि ये हमारी सामूहिक भावना पर आधारित हैं जो हमें प्राकृतिक संपदाओं के संरक्षण और प्रकृति के अनुपम सौंदर्य का बोध कराते हैं। उत्तराखंड के कौथिग, थौड, मेले भी तो सामुहिक पर्व की भाँति हैं। इन पर्वों एवं मेले के साथ अपने बच्चों को जोड़ना, सीधे तरीके से प्रकृति माँ के साथ जोड़ना है। जैसे कि फूल देई पर्व जो है वो नव वर्ष में खिले फूलों का त्यौहार है। पूरे मास चलने वाले इस पर्व पर छोटे छोटे बच्चे द्वार पर फूल रखते हैं और मंगल कामना करते हैं। इस तरह के पर्व के रूप में बच्चों की भागीदारी अपनी पीढ़ी को प्रकृति के प्रति संवेदनशील भी बनाती है और जागरूक भी। 
ऐसे ही वसंत पंचमी, घी संक्रांति, हरेला जैसे पर्व तो विशेषकर ही हमारे समृद्ध खेत खलिहान और पहाड़ की हरियाली पर हैं वहीं बग्वाल में हम अपने पशुओं को भी पूजते हैं इसलिए हर छोटे बड़े त्यौहार या लोक पर्व पर अपने बच्चों को उनका महत्व बताएं और पूरे उत्साह और आनंद के साथ मनाए। आजकल तो स्कूल कॉलेज और कई संस्थाएं भी लोक पर्व के साथ साथ प्रकृति संबंधित कार्यक्रम भी चला रहे हैं। इस प्रकार के जागरूक कार्यक्रमों में भी बच्चों की भागीदारी उन्हें पर्यावरण के प्रति सजग और जिम्मेदार बनाएंगी। 
  रात का समय बच्चों के लिए खास होता है। इस समय बच्चे थोड़ा शांत भाव में होते हैं। इसी समय बच्चों से बात करना या उनको समझाना अधिक कारगर होता है इसलिए जब बच्चे सोने की तैयारी करते हैं तो इस समय महिलाएं उनसे प्रकृति से संबंधित बात कर सकती हैं या फिर उनकी बेड टाइम स्टोरी मतलब कि बच्चे जब रात में सोते हैं तो उस समय प्रकृति से संबंधित कोई कहानी उन्हें सुना सकते हैं। 
   आपको अगर मौका मिले तो रात के समय बच्चों के साथ खुले आसमान के नीचे बैठे और उनके साथ तारों के आकार को समझे, या उनकी संख्या गिने। अगर ऐसा संभव नहीं हो तो घर के अंदर ही आसमान के तारों को कल्पना करें। आप बच्चों के साथ जंगल और जानवरों की दुनिया की बातें कर सकते हैं। इस समय पर्यावरण को स्वच्छ बनाने की जानकारी दे सकते हैं, बच्चों को बिजली, पानी और कागज की खपत कम करने के लिए सुझाव दे सकते हैं या उन्हीं से सुझाव पूछ सकते हैं। 
  अब देखिये यह अवश्य है कि यह बातें प्रतिदिन बच्चों के साथ नहीं की जा सकती लेकिन समय समय पर महिलाएं ही बच्चों को प्रकृति माँ का महत्व समझाएं और एक जिम्मेदार व जागरूक नागरिक बनाएं।
 

एक -Naari

Comments

  1. What a beautiful way to put mother nature's value into human existence 😁

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