शिव पार्वती: एक आदर्श दंपति

Image
शिव पार्वती: एक आदर्श दंपति  हिंदू धर्म में कृष्ण और राधा का प्रेम सर्वोपरि माना जाता है किंतु शिव पार्वती का स्थान दाम्पत्य में सर्वश्रेठ है। उनका स्थान सभी देवी देवताओं से ऊपर माना गया है। वैसे तो सभी देवी देवता एक समान है किंतु फिर भी पिता का स्थान तो सबसे ऊँचा होता है और भगवान शिव तो परमपिता हैं और माता पार्वती जगत जननी।    यह तो सभी मानते ही हैं कि हम सभी भगवान की संतान है इसलिए हमारे लिए देवी देवताओं का स्थान हमेशा ही पूजनीय और उच्च होता है किंतु अगर व्यवहारिक रूप से देखा जाए तो एक पुत्र के लिए माता और पिता का स्थान उच्च तभी बनता है जब वह अपने माता पिता को एक आदर्श मानता हो। उनके माता पिता के कर्तव्यों से अलग उन दोनों को एक आदर्श पति पत्नी के रूप में भी देखता हो और उनके गुणों का अनुसरण भी करता हो।     भगवान शिव और माता पार्वती हमारे ईष्ट माता पिता इसीलिए हैं क्योंकि हिंदू धर्म में शिव और पार्वती पति पत्नी के रूप में एक आदर्श दंपति हैं। हमारे पौराणिक कथाएं हो या कोई ग्रंथ शिव पार्वती प्रसंग में भगवान में भी एक सामान्य स्त्री पुरुष जैसा व्यवहार भी दिखाई देगा। जैसे शिव

चेलुसैन: एक खूबसूरत गांव

चेलुसैन: एक खूबसूरत गांव

   दिन के 11:45 बज  गए थे और अब तो आखिर निकल ही गए हम एक और खूबसूरत जगह के लिए। हालांकि हर बार की तरह इस बार भी निकलना तो जल्दी ही था लेकिन ऑफिस का मोह रह रह कर भी उमड़ ही आता है इसलिए जहाँ 8 बजे जाना था वहाँ 12 बज गए। वैसे तो 8 भी थोड़ा देर ही था लेकिन क्या करें,,, जय की स्कूल वैन जो पौने आठ बजे आती है! उसे स्कूल भेजने के बाद ही निकलना उचित समझा। 
  हाँ, इस बार की यात्रा में न तो जिया और न ही जय हैं क्योंकि  जिया ने छुट्टी लेने से मना कर दिया था। मनाया तो बहुत जिया को लेकिन उसको तो अपनी कक्षाएं लेनी ही थी ( सच में बेटियां पढ़ाई के प्रति बेटों से थोड़ा अधिक गंभीर होती हैं)। लेकिन जय को तो कभी भी कहीं भी ले चलो,,, हमेशा तैयार मिलता है। लेकिन इस बार नटखट जय को भी घर ही छोड़ना पड़ा। बिना जिया के उसे साथ ले जाना हमारे लिए एक बहुत बड़ी चुनौती थी क्योंकि उसे भी अपना साथ अपनी जिया दीदी के साथ ही मिलता है सो इस बार का सफर केवल अपना था। 
  हम जा रहे थे चैलूसेंण। नाम कुछ अलग सा लगा होगा, शायद किसी ने पहली बार ही सुना होगा लेकिन उत्तराखण्ड  के घुमंतू लोग इस जगह को जानते हैं और ये मानते भी हैं कि उत्तराखंड के सुंदर दृश्यों में चैलूसेंण का नाम भी आता है क्योंकि यहाँ कि वादियों से हिमालय की शिवालिक रेंज को निहारा जा सकता है। यहाँ पर बर्फ से ढ़के ग्लेशियरों को आप अपनी आँखों में कैद कर सकते हो और यहाँ घड़ी घड़ी बदलते मौसम को भी। यहाँ की हरियाली यहाँ के पहाड़ यहाँ का मौसम, यहाँ के पक्षी और यहाँ के लोग सभी में कुछ न कुछ खास है। 
  अब जब इतनी सुंदर जगह के बारे में पता चला तो लगा कि एक बार तो अवश्य जाना चाहिए। बस ऐसा ही कुछ विचार तो बहुत पहले से ही बन रहा था लेकिन जब विकास के रिश्तेदार कम दोस्त कम शुभ चिंतक श्री रजनीश शर्मा जी ने अपने एक सुंदर से रिज़ॉर्ट राज कैसल में आने का निमंत्रण दिया तो सोचा इतनी सुंदर जगह को निहारने के लिए एक ठहराव भी जरूरी है और इससे अच्छा विकल्प भला क्या हो सकता है!!

  इसीलिए प्लान तो जल्दीबाजी में बना लेकिन हम जल्दी से निकल नहीं पाए।चलो चाहे जो भी हो आखिर सफ़र शुरू हो गया था. गाड़ी की टंकी पैट्रोल से लबालब भर दी गई थी लेकिन हर बार की तरह कचर पचर का सामान का नामोनिशान नहीं था क्योंकि साथ में बच्चे नहीं थे. अगर होते तो हर बार कि तरह एक दिन पहले से ही उनका सारा सामान भर लिया जाता. इस समय बच्चों की याद आ रही थी लेकिन कभी कभी न अपने लिए भी समय देना इसलिए बस आगे बढ़ते गए और एक दुकान से थोडा स्नैक रख लिया क्योंकि आगे के पहाड़ी सफ़र में कब कोई दुकान मिले इसका पता नहीं. चैलुसैन जाने के लिए हम ऋषिकेश के मुख्य बाज़ार न जाकर नटराज चौक से ही तपोवन के लिए मुड़ गए थे लेकिन जैसे जैसे तपोवन पास आ रहा था गाड़ियों का रेला और यात्रियों का काफ़िला भी बढ़ रहा था. गाड़ियों के आगे गाड़ियाँ और उनके ऊपर लाल पीली राफ्ट. गाड़ियों के अन्दर बैठे शान से चश्मा लगाए नौजवान जिनको देखकर लग रहा था कि बस आज तो ये गंगा जी मे कुछ तूफानी ही करने आये हैं, पूरे जोश से भरपूर लग रहे थे लेकिन क्या करें जाम का झंझट तो था ही इसलिए जो अन्दर बैठे थे कभी कभी वो भी उमस गर्मी से परेशान थे और जो बहार हाफ पैंट पहने अपने साथियों के साथ झुण्ड में थे वो अपनी बारी कब आएगी के इंतज़ार से परेशान थे. ऋषिकेश में दो महीने के बाद राफ्टिंग खुल चुकी थी शायद तभी सारे नौजवान नव युवतियों का इस जगह जमावड़ा आना शुरू हो गया था और ऊपर से दिन भी तो शनिवार का था तो इन नव युवाओं का वीकेंड यहीं मनना था. इसीलिए हम तो यही चाह रहे थे कि तपोवन कि भीड़ से बचने के लिए सुबह जल्दी निकला जाए. 
  वैसे इनमे से अधिकत्तर लोग राफ्टिंग के लिए शिवपुरी तक ही जा रहे थे और कुछ लोग हमारी गाडी कि दिशा में ही मुड़ गए क्योंकि हमारा मार्ग गरुड़ चट्टी से होते हुए गुमखाल सिलोगी मार्ग जाने का था. और इस जगह पानी के मनमोहक झरने हैं. यहाँ भीड़ थोड़ी कम थी लेकिन फिर भी जितनी भी गाड़ियाँ थी वो उत्तराखंड से बाहर कि थी और अब दो दोपहिया वाहन भी पीली नम्बर प्लेट के साथ दौड़ रहे थे.
    गंगा जी के ऊपर बने पुल को पार करते ही सामने पुलिस का बूथ और भगवान् नारायण, गरुड़ देव का मंदिर भी साथ ही थे. सोच रही थी कि भगवान् कि सुरक्षा की लिए पुलिस है या पुलिस भगवान् भरोसे.  पुलिस ने हमे बाएं जाने का इशारा दिया ही था कि चुंगी भी आगे दिख गई और अब तो दिमाग अपनी कल्पनाओं में सोचने लगा कि यहाँ तो जैसे भक्त, भगवान, पुलिस, कर, सैलानी सब के सब अपने अपने रूप में अपनी प्रतिष्ठा की होड़ में हैं. बस जहाँ सभी अपने रूप में अपना हुनर दिखा रहे हैं वही भगवान् शांति से सबकी कलाकारी देख रहे हैं. 
 40 रूपए कि पर्ची थामते हुए चुंगी वाले गबरू दादा को बोला तो था कि लोकल गाडी है लेकिन यहाँ सुनता कौन है! भगवान् के आगे भी तो पुलिस लगा दी है और हम ठहरे शांत पहाड़ी. वैसे भी कर तो देना ही चाहिए अब चाहे गाड़ी लोकल हो या बहार की धुँआ तो सभी करेंगी और रोड पर ही चलेगी और अन्य सुविधाएँ भी सभी के लिए एक सामान हैं. सुविधाओं का तो अभी नहीं पता था लेकिन आगे का मार्ग संकरा जरूर मिला. यह मार्ग हमारे लिए नया था, गरुड़ चट्टी, मोहन चट्टी, रत्ता पानी ये सब केवल नाम ही सुने थे इतने पास रहकर भी कभी यहाँ आना नहीं हुआ.  ये भी आज ही पता चला कि गंगा के किनारे भी अब बिक चुके हैं. दुनिया भर के रिसोर्ट होटल कैंप निरवाना होम स्टे सब हैं यहाँ. इतने अंदर अंदर एकांत में सब जगह इन्ही से भरे है और जो बाहर कि जगह हैं वहां पर्यटकों ने अपनी गाड़ियाँ लगा रखी हैं. लोग यहाँ के छोटे बड़े झरनों का आनंद खूब मज़े से खुले में ले रहे थे और बहुत खुश थे. यहाँ आकर ही पता चला कि ऋषिकेश में इतनी भीड़ आखिर जाती कहाँ है! 
    हम लोग भी इसी मार्ग से आगे बढ़ रहे थे. यहीं से एक मार्ग नीलकंठ के लिए जाता है और दाई ओर थोड़े से ढलान में गुमखाल सिलोगी मार्ग आता है. हमें दाएं मुड़ना था लेकिन केवल रिसोर्ट के होअर्डिंग और बोर्ड्स के चक्कर में मार्ग का संकेत देता हरा बोर्ड कब आँखों से ओझल हो गया पता ही नहीं चला और हम नीलकंठ वाली सड़क पर बढ़ गए. यहाँ करीब साढ़े चार किलोमीटर ऊपर आकर फिर से वापस दौड़ लगाई और फिर अपने सही रस्ते को पकड़ा. हम ऋषिकेश के प्रसिद्ध साहसिक खेल वाले स्थान जम्पिन हाइट्स (बंजी जंपिंग कि जगह ) की ओर बढ़ रहे थे. यही सिलोगी गुमखाल वाला रास्ता था जो हमे चेलुसैन पहुंचाता. एक तो देर से निकालो और ऊपर से मंजिल से थोडा भटक जाओ फिर तो थोड़ी कोफ़्त होगी ही न लेकिन अब हम सही मार्ग पर चल रहे थे और अब आगे केवल एक्का दुक्का ही होटल नज़र आए. अब सफ़र हमारा था, भीड़ भाड़ वाली जगह पहले ही ख़त्म हो चुकी थी और अब शांत सड़क और सामने के पहाड़ ही नज़र आ रहे थे. मेरी प्राकृतिक यात्रा तो अब आरम्भ हुई थी क्योंकि अब मन भी प्रकृति के साथ शांत था. 
   पहाड़ी सफ़र तो लगभग हर जगह एक जैसा ही होता है, वही घुमावदार सड़क, सीढ़ीनुमा खेत, नीला आसमान, हरे भरे चीड़ के पेड, चट्टानों से रिसता पानी, ठंडी हवाएं, सूरज और बादलों कि आँख मिचोली      और अपने पशु चराते पहाड़ी लोग बस एक चीज़ है जो हर जगह को अलग करती है और वो है सफ़र को हमारे देखने और समझने का तरीका. ऋषिकेश से सिलोगी मार्ग में आपको कोई बहुत बड़े गाँव, बाज़ार या बड़े बड़े स्टेशन नहीं दिखेंगे, हाँ कहीं कहीं रास्ते में छोटी मोटी कोई दुकान मिल जायेगी. अब कुछ के लिए यही सफ़र उबाऊ हो सकता है, वहीँ प्रकृतिप्रेमी इन अद्भुत दृश्यों का आनंद अपने तरीके से उठाते हैं, जैसे मैंने लिया.
  मेरी कल्पनाओं में तो ये सुंदर पहाड़ जैसे मुझे बोल रहे हों कि शांत रहो, जीवन में जितनी भी आंधी तूफ़ान आए स्थिर  रहो, ये पेड कह रहे थे कि बंद गाड़ियों के शीशे खोलो और इन बहती हवाओं का सुकून लो, पहाड़ी सफ़र का हर एक मोड़ मुझे सचेत रहने के लिए कह रहा था, कि जीवन में आगे कभी भी कुछ भी आ सकता है और ये जो झरने है वो समय के साथ बहने को बोल रहे थे और ऊपर से ये नीला आसमान और उनके बीच बीच में सफ़ेद रुई जैसे गुच्छे, उन्हें देखकर तो लग रहा था कि उन्हें तो समेट ही लूं  पहाड़ कि तो हर एक चीज़ मुझे अपनी ओर आकर्षित करती है और अपनी कल्पनाओं में ले जाती है. सच में उत्तराखंड की सुन्दरता मनमोहक है, प्रेरणादायी है.

  सफ़र बहुत अच्छा चल रहा था, सड़क कहीं कहीं पर शायद बरसात कि वजह से खराब थी और कुछेक जगह पर बहुत संकरी भी लेकिन कुल मिलकर हमारा सफ़र अच्चा ही चल रहा था. एक जगह हमें सोलर प्लांट भी दिखाई दिया जो 500 किलोवाट का था. जाख्णी खाल पहुँचने पर हमें एक विशाल सोलर पैनल भी दिखाई दिया जहाँ से 1000 किलोवाट बिजली बन रही थी, अच्छा लगा कि पहाड़ में बिजली बन रही है. यहाँ से मुझे हरियाली अधिक दिखाई दी, यहाँ के पहाड़ अधिक हरे भरे दिखाई दिए शायद बरसात के कारण हरियाली बढ़ गई हो.
  हमारी गाडी तो वैसे भी धीरे धीरे ही चल रही थी लेकिन एक जगह जाकर तो रुकना ही पड़ा क्योंकि प्राकृतिक दृश्य बहुत  सुंदर था और कमाल की बात ये थी कि उनको निहारने के लिए बेंच भी लगी हुई थी तो इस मौके का फायदा तो उठाना हो था और ऊपर से रोड भी अच्छी खासी चौड़ी थी तो विकास को कोई मौका नहीं मिला गाडी आगे बढाने का.  सो गाडी को भी थोडा विश्राम दिया और सुकून के दो पल आराम से पेड कि छाँव में बिताए. सच में अपने आप को आज बहुत हल्का अनुभव कर रही थी. क्योंकि दिमाग में अभी किसी चीज का कोई ख्याल नहीं था. न घर, न ऑफिस न बच्चे न कोई चिंता न कोई फिकर बस प्रकृति और विकास का साथ. 
  गरुड़ चट्टी से दो घंटे बीत चुके थे यानी तीन बज चुके थे लेकिन अभी भी हम रास्ते में ही थे इसलिए अब थोडा जल्दी चलना ही उचित समझा क्योंकि मुझे चेलुसैन देखना था जिसके अद्भुत दृश्यों के बारे में मैंने सुना था. आधे घंटे में ही हम मुख्य स्थान सिलोगी पहुच गए थे. यहाँ से मौसम में थोड़ी ठण्ड बढ़ने लगी थी क्योंकि यहाँ सड़क पर ही कोहरे कि चादर आ जा रही थी. बस सिलोगी पहुँचने का मतलब है कि 15- 20 मिनट में ही अपनी मंजिल पहुँच जाना क्योंकि यहाँ से चेलुसैन कि दुरी साढ़े नौ किलोमीटर ही है.
  यहाँ से ही सुंदर दृश्य दिखाई देने लगे थे और उनको देखने के लिए कुछ व्यू पॉइंट भी बने थे क्योंकि वहाँ पर वैसे ही बेंच लगे थे जैसे पहले मिले थे लेकिन अभी तो हमे राज कैसल ही जाना था, हालांकि एक जगह तो ऐसी थी कि वहां पर बिना रुके आगे बढ़ना गलती थी, वो लोहे कि कुर्सी उस पहाड़ के टीले पर पेड के नीचे ऐसी सटीक जगह पर लगी थी कि जहाँ से शायद एक बहुत बड़ा पहाड़ी क्षेत्र दिखाई देता हो. मन नहीं मान रहा था कि यहाँ से बिना रुके आगे बढ़ा जाए लेकिन फिर भी आगे बढ़ गए. वो जगह और वो बेंच अभी भी आखों में घूम रही है. 
  इससे आगे 10 मिनट में ही हम मस्टखाल गाँव पहुंचे और इससे जरा ही आगे बढ़े थे लगभग आठ दस मिनट ही कि विकास ने गाडी पर ब्रेक लगा दिए, सामने ही होटल राज कैसल कि पार्किंग का बोर्ड  था और खिड़की से दाईं ओर देखा तो खूबसूरत सी सीढियां स्वागत कर रही थी राज कैसल चेलुसैन में.
    जैसे किसी सेलिब्रिटी को रेड कारपेट पर चलने में ख़ुशी होती है वैसी ही ख़ुशी हमें सीढ़ियों पर बिछी हरी कारपेट पर चलने से हो रही थी. हम अपनी मंजिल पर पहुँच चुके थे और प्रकृति के बीच इस एकांत में इतना सुंदर और आरामदायक जगह मिलने से तो खुशियाँ दुगनी हो चुकी थी. यहाँ का साफ़ सुथरा कमरा किसी भी पांच सितारा होटल को टक्कर दे रहा था क्योंकि सामने बहुत ही विहंगम दृश्य खिड़की से ही दिखाई दे रहे थे. कमरे के साथ ही बालकनी भी थी और मैं सोच ही रही थी कि यहाँ बैठकर चाय पीने का अलग ही मज़ा है कि तभी चाय के साथ साथ स्नैक भी हाज़िर हो गए. 
  वैसे तो मैं दिल से पहाड़ी हूँ लेकिन चाय का ऐसा कोई ख़ास चस्का नहीं है फिर भी यहाँ बैठकर चाय पीने का अलग मज़ा है इसलिए एक भी मौका मैं छोड़ना नहीं चाहती थी. सामने कि घाटियों में केवल कोहरा था कहीं कहीं पर पहाड़ दिखाए दे रहे थे और हम चाय ही पी रहे थे कि बगल से कोहरे कि हवाएं सामने आने लगी. सच में बड़ा ही अच्चा लग रहा था, ऐसा लग रहा था कि हम बादलों में हैं और ऐसे मौसम में गरमा गर्म चाय के साथ पकोड़े हों तो क्या कहने,, सोच के शायद आपके मुंह में भी पानी आ गया होगा लेकिन हमने इसका विकल्प ग्रिल्ड सैंडविच और करारे फ्रेंच फ्राइज से किया जो सच में लजीज था. 
  
   फिर लगा कि यहाँ से भी अच्चा नज़ारे का अनुभव तो शायद सामने की खुली छत पर मिले फिर क्या था बस अगले ही पल सामने के टेरेस (छत) पर लगे सोफों पर पसर गए और कुदरत के नज़ारे देखने लगे. कभी सामने वाले पहाड़ की तो कभी उठते कोहरे कि तसवीरें लेने लगे और फिर तरह तरह के मुंह बनाते हुए अपनी फोटो स्वयं ही खींचने लगे जिसे हम व्यवहारिक भाषा में सेल्फी कहते हैं.
  अब चाहे इसे हमारा बचपना कहो या छिछोरापन लेकिन एक बात तो है कि एक बच्चा ही तो चिंताओं से मुक्त स्वछंद होता है और आज तो हमारा हाल भी ऐसा ही था और फिर ये जगह भी तो ऐसी ही थी जो हमें ताज़गी से भर रही थी. यहाँ आकर सफ़र की थकान गायब थी इसलिए अब थोडा घूमने का मन बनाया. हम गाडी से देवीखेत जाने वाले मार्ग पर निकल गए थे. थोड़ी ही दूरी पर ग्रामीण महिलाएं पानी भर रही थी और अपनी मस्ती में हंसी ठिठोली कर रही थी, पहाड़ में महिलाओं के पास अपने लिए कभी समय नहीं होता. चूल्हा चौका, बर्तन, बच्चे, खेत कि निराई गुड़ाई, पशुओं का घास दाना पानी, लकड़ी  सब कामों में इतना व्यस्त जो होती हैं, तो बस अपना मनोरंजन वो यहीं पानी भरते हुए ही कर लेती हैं. उन्हें देख कर सोच रही थी कि इतना काम करते हुए भी उनके चेहरों में कोई थकान नहीं और एक हम लोग हैं जो हफ्ते भर पूरा काम भी नहीं करते और थकान मिटाने के नाम पर वीकेंड मनाने घर से ही भाग जाते हैं! 

   

यहाँ आकर ऐसा ही अनुभव हो रहा था कि हम धनौल्टी वाली जगह में ही हैं बस वहां सैलानी अधिक दिखाई देते हैं और थोडा व्यवसायिक सा लगता है लेकिन यहाँ पर बहुत ही एकांत है जहाँ लगता है कि ये रास्ते और ये जगह सब अपनी है. एक्का दुक्का वाहन थे और एकाध ग्रामीण. यहाँ ऐसा लग रह था कि मौसम पल पल में बदल रहा है, अभी सामने पहाड़ी में धूप थी और अभी वहां कोहरे का साया आ गया. अभी रास्ता साफ़ था कि बादल आ गए. बस ऐसे ही घडी घडी हम लोग भी हर बदलते मौसम में ख़ुशी से झूम रहे थे. वहाँ मानो समय जल्दी बीत रहा था शाम के लगभग 6 बज गए थे लेकिन मुझे वापस मुड़ने का मन नहीं कर रहा था और खासकर कि गाडी से जाने का तो बिलकुल भी नहीं. 
   और हाँ, पहाड़ में अग्निवीरों की तैयारी की भी झलक जगह जगह लगी बल्लियों (पुल उप बार) से दिखाई दे रही थी जहाँ हमने भी थोड़ी बचकानी सी वर्जिश करने की नाकाम कोशिश की लेकिन लगा की पहाड़ में फौज के प्रति युवाओं का 'जोश हाई है'। 
  मन तो कर रहा था कि वहां से पैदल ही यात्रा कि जाए लेकिन राज कैसल से हम बहुत दूर निकल आए थे और विकास तो इस एकांत में मुझे बिलकुल भी अकेला नहीं छोड़ सकते थे क्योंकि जंगली जानवर का भी भय था इसलिए वापस गाडी से ही पहुँचना हुआ. यहाँ राज कैसल के नीचे ही फिर से कुछ ग्रामीण युवतियां पानी भरती हुई मिली जिन्हें देखकर लगा कि कुछ बात की जाए लेकिन पता नहीं उन्हें देखकर हिम्मत ही नहीं हुई कि कुछ बात कि जाए, जब तक विकास सामान रखने अपने कमरे में गए मे वहीँ नीचे बेंच पर चुप चाप बैठी रही. वो युवतियां कभी मुस्कुराए तो कभी आपस में बात करे और जब मैं देखूं तो एकदम चुप हो जाएँ. फिर थोडा साहस करके मै एक युवती के साथ नीचे एक पत्थर पर ही बैठ गई जो अपनी सखियों से थोडा अलग थी और अपनी टूटी फूटी गढ़वाली भाषा में बात करने लगी. बस फिर क्या था अब तो वो भी सहज और मैं भी और अब मुझे पता चला कि चेलुसैन गाँव में पानी कि कमी है. यहाँ अभी घरों की पाइप लाइन में पानी नहीं आता है इसलिए पीने का पानी यहीं से भरना पड़ता है. मैं तो सोच में पड़ गई कि जिस गाँव में पानी कि अभी इतनी सुविधा नहीं है वहां इस खूबसूरत से आशियाने के बाथरूम में भी नहाने के लिए शावर (फव्वारा) लगाया गया है! इन युवतियों से मिलकर लगा कि इस जगह का आनद तो लीजिए लेकिन संवेदनशील होकर ही इसलिए पानी का उपयोग तो करें लेकिन बर्बादी नहीं.
  अब अँधेरा होने लगा था और हम मस्ट खाल कि तरफ पैदल ही चलने लगे थे. ठंडी हवाएं अब शरीर को थोडा कंपा भी रही थी. सोचा ओ था कि वही वाली बेंच में बैठूंगी जो रास्ते में आते समय छोड़ दी थी लेकिन अँधेरा हो चुका था और कहीं न कहीं घुप्प अँधेरे का थोडा डर भी था तो बस कुछ देर सड़क के किनारे ही बैठ गए और ढलान कि तरफ के घरों को देखने लगे जहाँ पर कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था ये मौसम बहुत सुहावना था और वहीँ इन लोगों के लिए इस मौसम में रहना एक चुनौती इसलिए बस अब अपने ठिकाने कि ओर चल पड़े और देखा कि राज कैसल भी अब अपनी रंग बिरंगी लाइट से जगमगा रहा था. सड़क से लेकर ऊपर बने टेरस तक आकर्षक लाइट्स लगी हुई थी.
   वहां की जगमगाहट के साथ ही टेरेस पर बैठकर दूर से टिमटिमाती हुई घरों कि रोशनी को देखते ही अब घर कि याद भी आने लगी. जैसे पूरे दिन भर उड़ने के बाद पंछी अपने ठिकाने पर आते हैं वैसे ही  पूरे दिन भर की थकान के बाद अब मुझे अपने बच्चे बहुत याद आ रहे थे, अभी वो भी साथ होते तो बस भागते दौड़ते रहते. नटखट जय को तो संभालना ही मुश्किल हो जाता वो यहाँ लगे झूलों पर तो कभी पौधों को छेड़ रहा होता लेकिन एक अच्छी बात यह भी होती कि उसे यहाँ उसे कोई दुकान दिखाई नहीं देती जहाँ वो जिद्द करता. खैर, अब अगली यात्रा इन्हीं के साथ होगी.
   अब ऐसे माहौल में कोई तो अपना गला तर करने की सोचता है तो वो तो अपना इंतजाम कर ही लेता है लेकिन मुझे भी एक कोना ऐसा मिला जहाँ मेरा मन भी तर हो गया, वो थी इस टेरेस के नीचे बने एक हॉल का जहाँ बैठ कर आप आराम से खा पी भी सकते हो और बैठ कर शांति से पढ़ भी सकते हो. यहाँ मुझे अपना कोना अपनी किताब के साथ मिल गया था और मेरे लिए यही बहुत था क्योंकि यहाँ आज कोई भी नहीं था.   
    कल सुबह चेलुसैन गाँव भी देखना था इसलिए आरामदायक कमरे और नर्म बिस्तर पर कब आँख लगी पता ही नहीं चला. सुबह जाकर पता चला कि यहाँ धूप भी आती है लेकिन यहाँ नहीं सामने कि पहाड़ियों पर. अब कोहरे का नामोनिशान तक नहीं था. सब जगह एक दम साफ़ और धुला सा नज़र आ रहा था. तभी अविनाश कि आवाज आई. अरे, मैं तो बताना ही भूल गई कि राज कैसल में हमें अविनाश मिला जो यहाँ कि किचन संभालता है और साथ ही इस प्रोपर्टी को भी. और वो ये तो पूछ ही रहा है कि नाश्ते में क्या लेंगे, साथ ही बोल भी रहा है कि आप लोगों को गाँव भी घुमा देता हूँ और सुबह नागदेव गढ़ी का ट्रैक भी करा देता हूँ. बता दूं कि नाग देव गढ़ी भगवान् शिव का मंदिर है जो गाँव से २ किलोमीटर के उपर स्थित है और यहाँ केवल पैदल ही जाया जा सकता है. अब हम लोग तो बिना नहाय मंदिर नहीं जा सकते थे लेकिन हाँ ट्रैक जरूर कर सकते थे. इसलिए अविनाश के पीछे पीछे चल पड़े.
    राज कैसल के बगल में ही सरस्वती शिशु विद्या मंदिर विद्यालय था लेकिन आज रविवार कि छुट्टी थी. अविनाश ने बताया कि ये देखने में छोटा स्कूल है लेकिन यहाँ बच्चे सामने कि पहाड़ी पर बसे क्यार और मस्ट गाँव से भी यानी दूर दराज के गाँव से भी पैदल चलकर आते हैं. अब ये बात सुनकर लगा कि इन मासूम बच्चों को मेहनती बोलूँ या उनकी मजबूरी या फिर हमारी शिक्षा व्यवस्था कि लाचारी!! 
  आगे रोड पर बढ़े तो पानी का टैंकर दिखा और फिर वो हैण्ड पंप से पानी भारती युवतियां भी याद आई. अविनाश ने भी बाताया कि इस होटल के लिए भी टैंकर से ही पानी कि टंकियों को भरा जाता है.  यहाँ गैस गोदाम से लेकर सब्जी भाजी कि दुकान, प्राथमिक चिकित्सालय, छोटी छोटी क्यारी, पतली पगडंडियाँ सब देखा और साथ ही भोली सूरत वाली बोडी(ताई जी) काकी (चाची) दीदी भुली (छोटी बहन) भैजी (भाई). इन्हें देखकर लग रहा था कि मैं अपने ही गाँव में घूम रही हूँ इसीलिए कभी कभी अपनी चुस्त सलवार में थोडा असहज भी हो रही थी क्योंकि मुझे लगता है कि जैसा देश वैसा भेष. ये भी वैसा ही लगा जैसे मेरा गाँव है, पौड़ी में पड़ने वाला ग्राम चामी, पट्टी अस्वलास्यूं लेकिन यहाँ पर थोडा शहरीकरण अधिक था. यहाँ पर भी कई जगह चिप्स, फ्रूटी, आइसक्रीम और पानी की बोतल वाला प्लास्टिक जमे हुए थे. (शायद हम जैसे सैलानियों कि वजह से)
 शायद ये इलाका मुख्य सड़क के पास था इसलिए. चेलुसैन गाँव तो साधारण ही था, लेकिन यहाँ अधिकतर पक्के मकान ही थे, और जो कच्चे थे वो भी आगे बढ़ रहे थे. 
   
   अब हम गाँव से थोडा बाहर निकल रहे थे और मुझे लग रहा था कि एक किलोमीटर तो चल ही गए हैं बस अब एक किलोमीटर और शेष है लेकिन जैसे ही गाँव से उपर एक देवी मंदिर में पहुंचे कि हमारा ये भ्रम भी टूट गया. यहाँ साफ़ साफ़ लिखा था कि नागदेव गढ़ी 2 किलोमीटर. चलते चलते थकान तो लग ही रही थी क्योंकि हम तो किलोमीटर क्या क़दमों कि गिनती में ही सिमट जाते हैं लेकिन अविनाश ने हमारा जोश बनाए रखा.
  रास्ते में पड़ने वाले सुंदर से चीड़, काफल, बांज, बुरांस, बेडू, तिमला के पेड हमें सुबह कि ठंडी ठंडी सलामी दे रहे थे. रास्ते के बीच बीच में सुंदर से नज़ारे और वहां लगे बेंच हमें पुकार रहे थे कि यहाँ पर शांति से बैठो और प्रकृति का आनंद लो. धूप कि एक भी किरण इस जंगले के ट्रैक पर नहीं पड़ रही थी केवल झींगुरों और पक्षियों कि आवाज़ थी जो साथ चल रही थी. यहाँ तरह तरह कि चिडया भी थी एक चिड़िया तो ऐसी निडर थी कि पास आने पर भी उड़ नहीं रही थी बस फुदक फुदक कर आगे पीछे हो रही थी. हम लोग केवल एक किलोमीटर ही उपर बढ़ पाए और एक मनोरम सी जगह पर फिर से एक बेंच पर बैठकर सुस्ताने लगे. एक बात की तसल्ली जरूर हुई कि इन हरे पीले बेंचो पर श्री महेंद्र सिंह राणा जी की मेहरबानी जरूर बनी हुई थी। हर बेंच पर उनका नाम और काम दिख रहा था। यहाँ अविनाश ने बताया कि ये जगह बाघों कि थी वो यहीं थोडा सा उपर एक छोटे से पानी के कुंड के आसपास रहा करते थे. 
    ट्रैकिंग का साथी: अविनाश

    अब आगे नहीं बढ़ा जा रहा था क्योंकि ट्रैकिंग के लिए पहले से थोडा कदमताल कर लेना चाहिए जो हमने नहीं किया था तो बस यहीं से हाथ जोड़े और वापस अपने होटल पहुँच गए और यहाँ पहुँचते ही अविनाश ने कहा कि आप लोग तैयार हो जाओ और मैं नाश्ता लगाता हूँ. उसे देख कर यकीन हो गया कि हम पहाड़ी लोग न हर काम बड़े दिल से करते हैं, उसने स्नैक्स से लेकर खाना तक बहुत अच्छा बनाया था क्योंकि वो मुंबई जैसे महानगर में एक नामी रेस्तरां में काम कर चूका था . अब उसे देखकर लग  गया था कि वो ‘मल्टी टास्किंग पर्सन’ है.  
   उसी टेरेस में बैठकर सामने के गाँव को देख देख कर गरमा गर्म आलू के परांठे और चाय का लुत्फ़ लिया और साथ ही ये भी सोचा कि ऐसा ही अनुभव तो हम उत्तराखंडी लोग अपने गाँव में बैठकर भी तो ले सकते हैं लेकिन वहां हम नहीं जाते. खैर, कारण बहुत हो सकते हैं लेकिन एक बात तो तय है कि इस तरह के अद्भुत नज़ारे इतनी सुविधाओं के साथ तो केवल यहीं बैठकर (राज कैसल, चैलुसैन) ही लिए जा सकते हैं.    
  सुबह के 11 बज चुके थे हालांकि यहाँ से ताडकेश्वर मंदिर, भैरव गढ़ी मंदिर, लेंसडॉन भी जाया जा सकता था लेकिन हमें समय से घर पहुंचना था अपने बच्चों के पास सो अगली बार कि यात्रा में इन जगहों को देखने कि सोची फिलहाल अब चेलुसैन से बाहर निकलकर देहरादून के मार्ग पर आना था लेकिन इस बार हम दुसरे रास्ते द्वारीखाल से होते हुए ऋषिकेश मार्ग से आए. रास्ते कि हरियाली वैसे ही थी और मौसम भी लेकिन ये मार्ग सिलोगी ऋषिकेश मार्ग कि अपेक्षा अधिक लम्बा है. हम लगभग साढ़े तीन  या पौने चार बजे के आस पास अपने घर देहरादून थे. हमारी चेलुसैन कि यात्रा समाप्त हो चुकी थी लेकिन अभी बहुत कुछ छूटा भी था जो अभी देखना और करना था जिसे शायद अगली बार पूरा करूं.


  आपका भी कभी मन करे कि किसी एकांत में जाना है जहाँ चिंता मुक्त होकर आप केवल अपने लिए जियें तो भीड़भाड़ वाले पहाड़ छोड़कर चेलुसैन आ जाएये. ऋषिकेश से दो ढाई घंटे, कोटद्वार से डेढ़ घंटे में और दिल्ली से 291 किलोमीटर की दूरी सात घंटों में तय कर सकते हैं। 
यहाँ पहुंचकर प्रकृति का आनंद लीजिए और यहाँ के ग्रामीण जीवन को भी अनुभव करें. 
    Mr. Rajnesh Sharma

(आभार: इस सफ़र को और भी अधिक आनंददायक और सुविधाजनक बनाने के लिए राज कैसल के मुखिया श्री रजनीश शर्मा जी का धन्यवाद.    http://rajcastlehimalayas.com

एक – Naari

Comments

  1. Another great travelogue Ma'am,,, feels like I am seeing all that thing with you. Interesting and some time makes us to become more Sensitive

    ReplyDelete
  2. How amazing this trip, wonderful feeling only read your vlog .
    I also want to go 🚶‍♀️ there

    ReplyDelete
  3. Each trip with you teaches me a lot..wonderful Blog...

    ReplyDelete
  4. Bahot badiya, maza aaya padd ke. Keep writing, keep sharing your experiences. Great job Reena!!!

    ReplyDelete
  5. Ma'am,Such a Romantic Narration
    God Bless

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

उत्तराखंडी अनाज.....झंगोरा (Jhangora: Indian Barnyard Millet)

उत्तराखंड का मंडुआ/ कोदा/ क्वादु/ चुन

मेरे ब्रदर की दुल्हन (गढ़वाली विवाह के रीति रिवाज)