गर्मी में प्रभु का धन्यवाद!!
हम लोग न शिकायत बहुत करते हैं। कभी अपनो से तो कभी अपने आप से और जब कभी कुछ नहीं सूझता तो भगवान से ही शिकायत कर लेते हैं क्योंकि यहां तसल्ली मिलती है कि कोई सुने या न सुने लेकिन मेरा भगवान तो जरूर सुनेगा। अब इसे हम शिकायत समझे या फिर अपनी इच्छाएं ये तो भगवान ही जाने हम तो बस भगवान के तथास्तु की इच्छा रखते हैं लेकिन अपनी इच्छाओं के साथ आगे बढ़ते बढ़ते उस ईश्वर का धन्यवाद देना भी भूल जाते हैं जिसने हमेशा सहारा दिया है।
वैसे तो ईश्वर के आगे हम सभी नमन करते हैं लेकिन कभी कभी उसकी कृपा देर से समझ आती है। अभी पिछले शनिवार की ही बात है जब मुझे भी इस बात का अनुभव हुआ कि चाहे जो भी दिया है जितना भी दिया है उसके लिए ईश्वर का धन्यवाद है।
पिछले हफ्ते ही ऋषिकेश जाना हुआ लेकिन बिना अपनी गाड़ी के। काफी समय गुजर गया है किसी भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट की सेवाएं लेते हुए । कहीं भी जाना हो चाहे पास का सफर हो या दूर का अब अधिकतर अपना वहां ही प्रयोग होता है। भीड़भाड़ वाली जगह हो तो दुपहिया नहीं तो अपनी गाड़ी से ही चल पड़ते हैं। और जब न अपनी दुपहिया हो और न ही चारपहिया वाहन तो झट से ओला बुक की ओर पहुंच गए अपनी जगह।
लेकिन इस बार कुछ अलग था। ऋषिकेश जाना तो परिवार के साथ अपने वाहन से ही था किंतु मां से मिलने का लालच था तो सोचा थोड़ा पहले ही चली जाऊं। लेकिन इस बार पता नहीं क्या फितूर था कि बस से ही ऋषिकेश जाना है क्योंकि बस बिना किसी रुकावट के कम समय में ऋषिकेश पहुंचा देती है जबकि अन्य वाहन पूरी सवारी भरने के बाद ही आगे बढ़ते है।
ऑफिस के पास मियांवला चौक, हरिद्वार रोड़ पर बस रुकती है और यात्री अपने सफर के लिए बैठ जाते हैं। अब लग तो बड़ा आसान रहा था जब सहकर्मियों से सुना कि ऋषिकेश हरिद्वार के लिए तो हर 5 मिनट में यहीं से बस मिल जाती है। इसलिए जोश जोश में निकल तो गई लेकिन चटक धूप सिर पर ऐसे पड़ी कि थोड़ी ही देर में सिर भारी होने लग गया। न छाता न पानी और न छाया (जो गर्मियों में घर से बाहर निकलते समय हमेशा साथ होने चाहिए) इस कड़क धूप में सिर पर केवल एक शिफॉन की चुन्नी का सहारा था जो किसी काम का नहीं था सिवाय मुंह ढकने के। हां, चौक पर एक गन्ने के रस वाले का टेंट जरूर था जिसमें सिर छुपाने का लालच बार बार मुझे आ रहा था लेकिन जैसे ही मैं वहां धीरे धीरे खिसकूं तभी कोई न कोई उसका ग्राहक वहां पहुंच जाय इसलिए फिर से तपने के लिए खड़े रहना पड़ रहा था।
आज की गर्मी का ये दिन बहुत भारी लग रहा था। धूप उमस से पसीने की बूंदे माथे, नाक पर तो थी ही साथ ही पूरे शरीर को भिगो रही थी और जो भी इत्र परफ्यूम था वो कब का वाष्प बनकर उड़ गया और अब साथ केवल बू का था।
मियांवाला चौक पर बस के लिए कोई अपना थैला संभाले था, कोई दो बैग के साथ, कोई दूधमुंहे बच्चे के साथ था। एक बुजुर्ग दंपति भी वहीं था, कुछ छात्र भी अपनी मस्ती में और हां एक महिला तो करीबन 15-20 किलो का बोरी सिर पर और एक पैरों के पास रखे खड़ी थी। सभी अपने अपने तरीके से गर्मी और धूप से लड़ रहे थे लेकिन पता नहीं क्यों जो बैचैनी मुझे हो रही थी वो उनके चेहरे से गायब थी। सोच रही थी उन्हें इस तरह से गर्मी से लड़ने की आदत होगी या इस तरह से सफर करने की लेकिन हमने तो शायद लड़ना ही छोड़ दिया है इसलिए तो जरा सी भी प्रतिकूल परिस्थिति में हार जाते हैं। (एयर कंडीशनर वाली गाड़ी की बहुत याद आ रही थी और सोचा कि जल्दी जाने की क्यों पड़ी थी शाम को आराम से परिवार के साथ कार में आती! )
खैर, सोचने का इतना समय इसलिए मिला क्योंकि 5 मिनट में आने वाली बस 15 मिनट में आ रही थी वो भी हरिद्वार की। फिर आधे तक प्रतीक्षा के बाद दो लड़कियां भी मिली तो साथ रहने की हिम्मत मिली और जब उन्होंने बताया की यहां से रोजाना बस मिलती है तब तसल्ली भी लेकिन आज शायद सप्ताहंत (वीकेंड) के चलते बस कम हो गई है लेकिन जब साथ मिला तो थोड़ा आगे पीछे भी चलकर अपना स्टॉप बनाया तब पता चला कि ऋषिकेश जाने वाली बस तो खचाखच भरी हुई हम लोगो को ठेंगा दिखाते हुए बिना रुके ही फ्लाईओवर पर भाग रही थी।
धूप और गर्मी में तो मेरे दिमाग ने काम करना ही छोड़ दिया था लेकिन सच कहूं तो धूप और गर्मी तो थी ही लेकिन कुछ अलग ही था जिसमें मैं असहज हो रही थी इसलिए कुछ निश्चित निर्णय लेने की समझ खो चुकी थी। इसलिए तो जहां पौने घंटे में अपने ऋषिकेश पहुंच जाती वहां मैंने एक घंटा तो यही सोचने में लगा दिया कि यहां से बस पकडूं या वहां से!
उसके बाद मैंने वापस रिस्पना, देहरादून जहां से उत्तराखंड के विभिन्न छोटे बड़े कस्बों के लिए ट्रैकर, मैक्स जीप कमांडर, सुमो, बुलेरो चलती है वहां की ओर चल पड़ी। सीट पीछे की कैबिनेट वाली मिली। थकान से चूर सोचा दो सीट बुक करा कर आराम से चलूं लेकिन अब समझ आ चुकी थी। जैसे मुझे घर पहुंचने की जल्दी थी वैसे ही तो दूसरों को भी होगी इसीलिए पसीने से तर एक लड़की को भी अपने साथ बैठा लिया।
इन 50 मिनट के सफर में तब अपने दिल्ली के दिन भी याद आ गए। जब जलती गर्मी में खतरनाक भीड़ भाड़ वाली बसों में लदकर ऑफिस और घर पहुंचना होता था। रोज सीट मिलने और समय से पहुंचने का संघर्ष होता था और हम रोज इस लड़ाई के लिए तैयार रहते थे। लेकिन अब जब से गाडियां हुई तब से रास्ते की छोटी छोटी बाधाओं को पार करना भी पहाड़ बन गया। हम भूल गए कि इन रास्तों पर भी हम चले हैं और अभी भी कितने ही लोग ऐसे ही संघर्ष करते हुए जा रहे हैं। न कोई शिकायत न कोई रोष न ही चेहरे पर थकान।
बस हमें ही कई बार शिकायत रहती है कि वो वाली महंगी गाड़ी क्यों नहीं है अपने पास, हमारे पास वो क्यों नही है, हमारे पास ऐसा होना चाहिए था, हमें वैसा चाहिए और पता नहीं क्या क्या। लेकिन आज इन दो घंटो में लगा कि सच में ईश्वर ने जो भी दिया है उसका धन्यवाद है क्योंकि आज भी कितने लोग बिना गाड़ी के पैदल ही अपने सफर पर निकल पड़ते हैं। जीवन की विकट परिस्थितियों में भी संघर्ष करते हुए जीवन की गाड़ी चला रहे हैं और हम अपनी एसी वाली गाड़ियों में बैठकर भी बगल वाली नई गाड़ी को ताकते रहते हैं।
जीवन को आसान और आनंद के बजाय बेहतर बनाने के लिए संघर्ष करते रहिए, मेहनत करते रहिए, पुराने दिन भी याद करते रहिए और सकारात्मकता के लिए उस प्रभु का धन्यवाद करते रहिए।
एक -Naari
Loved to read it.
ReplyDeleteVery true indeed
ReplyDeleteVery true
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