चूरमा Mothers Day Special Short Story

काफल (बेबेरी) Bayberry, Myrica Esculenta
' काफल पाको, मिल नी चाखो'
अभी दो चार दिन पहले ही व्हाट्सएप पर एक स्टेटस देखा जिसमें लिखा था,, ' काफल पाको, मिल नी चाखो' (काफल पक गया लेकिन मैंने नहीं चखा) और इसी के साथ मुझे भी घर बैठे बैठे पहाड़ के फल, काफल की याद आ गई।
छोटे-छोटे बेर जैसे लाल -लाल और खट्टे-मीठे स्वाद लिए रसदार होते हैं काफल और ऊपर से उसमें थोड़ा सा तेल और हल्का नमक लगा कर खाने में तो और भी मजेदार हो जाता है। सच में! हमारा पहाड़ तरह तरह के कुदरती फल और औषधियों से बिलकुल भरा पूरा है।
कहने को तो काफल जंगली फल है, लेकिन अपने गुणों से यह कई शाही फलों को भी पीछे छोड़ता है, तभी तो यह उत्तराखंड का राजकीय फल है और वैसे भी पहाड़ी लोग तो अपने जंगल से ही जीवित हैं, यहां की वनस्पति, यहां का पानी, यहां की हवा, यहां की बोली भाषा सब कुछ मिलकर ही तो एक आम आदमी भी खास पहाड़ी बनता है और वो पहाड़ी ही क्या जिसने कभी काफल का स्वाद ही नहीं लिया।
इसकी लोकप्रियता ऐसी है कि इसपर लोक गीत और लोक कथाएं भी है। 'बेडू पाको बारामासा, नरैणा काफल पाको चैता मेरी छैला' ( बेडू बारह महीने पकता है लेकिन काफल सिर्फ चैत के महीने में पकता है), और 'खाणा लायक इंद्र का, हम छियां भूलोक आई पणां' ( हम स्वर्ग लोक में इंद्र देवता के खाने योग्य थे और अब पृथ्वी भू लोक में आ गए) जैसे प्रसिद्ध लोकगीत और काव्य तो सभी ने सुने ही है इसलिए नाम सुनते ही मई के महीने में भी मुंह पानी से भर जाना स्वाभाविक ही है।
सोच रही हूं कि बीमारी से बचने के लिए इस लॉकडाउन में हम तो घरों में कैद हैं लेकिन गांव में तो कितना खुला खुला है। यहां शहरों में तो अपने आंगन या बालकनी से सिर्फ सामने की सुनसान गली या किसी के घर का बंद गेट या फिर खिड़की दिखाई देती है लेकिन गांव में तो हर एक घर से दूर दूर तक हरे भरे पेड़, खुला आकाश, ऊंचे नीचे पहाड़, घुमावदार सड़क और रात में सामने वाले पहाड़ में टिमटिमाते घरों की रोशनी दिखाई देती है उन्हें देखकर तो कभी कभी लगता है कि आसमान के तारे धरती पर आ गए हैं और वहां तो कभी नहीं लगता कि हम अकेले हैं। गांव की याद गर्मियों में आए तो वहां के मौसमी फलों की याद भी अपने आप ही आ जाएगी और फिर काफल भी तो अभी मिलता है। इस लॉकडाउन के चलते ही जंगल के इस शाही फल काफल का स्वाद सिर्फ सोचकर ही लेना पड़ेगा। हालांकि इसको खाने के लिए हमें स्वयं उत्तराखंड के पहाड़ पर ही जाना पड़ता है, क्योंकि इसको अधिक समय के लिए संरक्षित नहीं किया जा सकता। मात्र 24 घंटो के बाद ही यह सूखने लग जाता है।
भले ही ग्रामीण लोगों के लिए काफल बड़ा ही साधारण सा जंगली फल हो लेकिन शहरी लोगों के लिए यह लाल खजाना है। गर्मियों में गांव जाते समय एक जगह पड़ती है 'गुमखाल' वहां पर ही मुख्यत: हमें काफल खाने को मिलते थे। अन्य पहाड़ी इलाकों में तो गांव जाते समय मासूम ग्रामीण बच्चे अपनी टोकरियों में काफल सजा कर छोटे छोटे दोने या पुङो में इसे बेचते हुए मिल जायेंगे या छोटे मोटे बाजारों में काफल को टोकरियों में बिकते हुए दिख जाएगा लेकिन हमेशा नहीं केवल 2 महीने के लिए ही, क्योंकि 12 महीनों में से सिर्फ 2 महीने ही काफल आता हैं (अप्रैल और मई) ।
काफल से संबंधित लोक कहानी: 'काफल पाको, मिल नी चाखो' (Story related to Kafal)
सामान्य जानकारी (General Information of Kafal)
काफल एक जंगली फल है जो जमीन से 4 से 6 हजार फुट की ऊंचाई पर मिलता है और भारत में उत्तराखंड, हिमांचल प्रदेश और कुछ उत्तर पूर्वी राज्य में भी मिलता है साथ ही साथ पड़ोसी देश नेपाल और भूटान में भी पाया जाता है।
गुणों से भरपूर काफल (Rich fruit Kafal)
काफल एक रसीला फल है जो एंटी-ऑक्सीडेंट है और
विटामिन सी और ई के साथ आयरन और खनिज लवण से भी भरपूर है। इसके फलों के सेवन से पेट की समस्याएं जैसे कि भूख न लगना, कब्ज और एसिडिटी भी दूर होती है । एनीमिया, मूत्राशय रोग, अस्थमा जैसी बीमारियों में भी लाभकारी है।
काफल एंटी इन्फ्लैमेटरी और एंटी माइक्रोबियल (विषाणुरोधी और जीवाणुरोधी) भी है क्योंकि इसमें उपस्थित एक प्राकृतिक तत्व फायटोकेमिकल पोलीफेनोल सूजन को भी काम करने में सहायक होता है और कैंसर जैसी बीमारी में भी लाभप्रद है।
काफल का आयुर्वेदिक महत्व (Ayurvedic importance of Kafal)
आयुर्वेद में काफल को कायफल के नाम से जाना जाता है और आयुर्वेदिक दृष्टि से अति गुणकारी औषध के रूप में भी पहचान मिली है। हालांकि इसके फल में सिर्फ 40 प्रतिशत ही रस होता है लेकिन यह गुणकारी और प्राकृतिक तत्वों से भरपूर है जहां इसे कफ और वात रोग के उपचार में सहायक माना गया है वहीं मधुमेह, मूत्रदोष, मुंह के छाले, सूजन और पेट संबंधित विकार भी दूर होते हैं।
उत्तराखंड भी उन राज्यों में से है जो प्राकृतिक संपदाओं का धनी है किंतु फिर भी हम इसका समुचित उपयोग नहीं कर पाते है। यही हाल काफल का भी है। यह स्वत: उत्पन्न होने वाला वृक्ष है और मौसमी फल देता है जो अधिक समय तक तारोताजा नहीं रह पाता और यही कारण है कि यह उत्तराखंड के शहरी इलाकों तक भी नहीं पहुंच पाता है और मुझे नहीं लगता कि इसके संरक्षण के लिए कुछ विशेष व्यवस्था भी होगी। इतने गुणों से भरपूर काफल को सिर्फ उत्तराखंड के राज्य फल का दर्जा तो मिला है लेकिन उस प्रकार का संरक्षण नहीं।
गर्मी के इस मौसम में काफल के प्रति मन ललचा रहा है तभी तो उससे जुड़ी बहुत सारी बाते सोच डाली और अभी भी बहुत कुछ दिमाग में चल रहा है, जैसे कि...
क्या कुछ कोशिश की जा सकती है कि काफल को भी आधुनिक तकनीक के द्वारा संरक्षित किया जा सके, जिससे कि यह फल भी अन्य फलों की भांति आसानी से उपलब्ध हो सके?? क्या थोड़ी सी कोशिश हो सकती है जिसमें प्राकृतिक तत्वों के धनी काफल का प्रचार प्रसार हो सके ?? क्या थोड़ी सी और कोशिश करके उत्तराखंड के ग्रामीणों को काफल के माध्यम से कुछ व्यवसायिक गतिविधियों द्वारा जोड़ा जा सकता है?? क्या काफल का आनंद और उसका लाभ उत्तराखंड के बाहर घर बैठे भी लिया जा सकता है??
"काफल पाको, मिल नी चाखो" का एक स्टेटस देखा था और मुंह पानी से भर गया। सोच रहीं हूं कि जब मेरा मन काफल को सोच के ही ललचा रहा है तो उस नन्हीं बिटिया ने काफल से भरी टोकरी देखकर तो बहुत संतोष रखा था। इस समय ऐसा लग रहा है कि वो चिड़िया मैं ही हूं और काफल के प्रति मोह से जुड़ी यह पंक्ति शायद मेरे जैसे अन्य लोगों की भी होगी, सही कहा न?
"काफल पाको, मिल नी चाखो" ।
एक-Naari
Written very true about kaphal
ReplyDeleteI also like kafal
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteBahut he shandaar tareeke se kahani, aur uske matlab ko samjhaya hai, jeevan mai aaj Jaa khar.....sabhi lok kahani ka asli matlab Jana hai....thank you so much for sharing! 🙏🏻
ReplyDeleteBahut sundar lekh
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