बरसात के दिन हैं और मैं इस सुस्ती भरे दिन मे भी व्यस्त हूँ .. लकड़ी की अलमारी मे उथल पुथल कर दी पर कहीं दिखाई नहीं दिया , साथ पड़ी सेटी में भी टटोला ,लेकिन गायब था , फिर अपनी लोहे की विशाल अलमारी को भी ढंग से छान मारा , पर कहीं नहीं मिला, मेरा सुबह का साथी, मेरी नमी को सोखने वाला मेरा अपना प्यारा तौलिया ...
तीन दिन गुजर गए , मैंने उसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट घर में किसी से नहीं की... मुझे लगा की बारिश के दिन है तो शायद अभी इसे भी अपनी नमी का साथ छोड़ने मे वक़्त लगेगा । इसलिए दो रोज की सुबह तो मैंने अपने शरीर को एक पतले लेकिन कड़क गमछे के हवाले किया और तीसरे दिन फटे हालातों वाले भिखारी जैसे कपडे के ... लेकिन आज तो अपने मखमली यार को पा के ही रहूंगी,
यही सोचकर सारे घर की तलाशी लिए जा रही हू कि तभी माँ ने देख लिया और पूछ ही लिया की "तू आज ऐसा क्या खोज" .,.. तो मैंने भी तपाक से बोला ... "मेरा तौलिया"फिर तो सब जैसे खोजी ही बन गए ... पीछे के गैलरी में
देखा,,नहीं मिला, घर के आंगन में देखा नहीं मिला, बगल वाली गैलरी में झाँका तो कुछ उम्मीद सी जागी, कोई हमशकल सा मेरे घर के दीवार पे फैला हुआ था जिसका आधा भाग तो मेरे घर के अंदर और आधा भाग पड़ोस के मजदूर के घर है। मुझे लगा कि अब मेरी खोज समाप्त हुई और जैसे ही उसकी ओर लपकी, माँ ने तुरंत ही सावधान किया और कहा कि ये मेरा तौलिया नहीं है। हमारे घर और बगल के मजदूर के झोपडे के पीछे एक खेत है जिसे हमारे एक पड़ोसी देख रेख करते है। ये तौलिया तो उन्हे पीछे के दीवार मे पड़ा मिला, शायद पीछे वाले अंकल ने दीवार में हमारा समझ के यहाँ डाल दिया और ये तौलिया इन मजदूर का होगा जो पीछे गिर गया होगा सो पड़ोस के दीवार मे माँ ने फैला दिया।

बस यही बोलना हुआ के मन में एक बिजली सी कोंध गई क्योंकि तीन दिन पहली ही मैंने ये तौलिया पीछे के रस्सी में सुखाया था ! क्या तीन दिन पहले मैंने इसी मजदूर का तौलिया इस्तेमाल किया था। साबुन और इत्र का इस्तेमाल करके बड़े ही सुकून और तस्सली के साथ इसी तौलिये से तो अपना बदन पोछा था! आये हाय! ये मैंने क्या कर डाला... एक मजदूर का तौलिया!!.. पता नहीं कहाँ कहाँ उसने अपने शरीर को इस कपड़े से रगड़ा होगा और न जाने कैसी कैसी गन्दगी को इसी तौलिये से हटाया होगा। उसके शरीर के मैल और बदबू इसके रेशो में रच बसी होगी और ऐसा सोचते ही जैसे हज़ारो कीड़े मेरे शरीर मे रेंगने लगे। उफ़!! कितना घिनौना एहसास है ... जो कपडा मुझे अपना तौलिये का हमशकल लग रहा था अब वो अब मुझे सड़ा हुआ अनजान लगा ... तभी ख्याल आया की अरे, तीन दिन पहले तो मैंने ही इसे पीछे के रस्सी मे सुखाने डाला था , शायद हवा और बरसात से पीछे गिर गया होगा। ऐसे ही दिल को तस्सली दी और साथ मे हिम्मत भी। फिर झट से उसे उठा लिया, आगे पीछे पलटा , ऊपर से नीचे देखा, नारंगी पट्टी को देखा, कुछ तो अलग लगा मुझे, कुछ भारी सा, रंग भी उड़ा हुआ, कुछ पुराना सा , कुछ मैला सा, की तभी फिर से आवाज़ आयी की नहीं ये तो तेरा तौलिया नहीं है... और इसी के साथ मैंने भी तुरंत मान लिया के ये मेरा तौलिया नहीं है .. उसको वही दीवार मे छोड़ दिया ताकि वो मजदूर अपनी तौलिये को देखे और उसे उठा ले।
इसीलिए मैंने. इस बार इस कपड़े का ज्यादा भाग मजदूर के तरफ और थोड़ा भाग अपनी तरफ कर दिया .. इस बारिश मे वो कपडा भीग के गीला होता जा रहा है और मैं बिन तौलिये के सूखी जा रही हु और इस से भी ज्यादा तो जली जा रही हु की इस मजदूर के पास भी मेरे जैसा मिलता जुलता तौलिया है
शाम होते ही मुझसे रहा नहीं गया और जैसे ही वो अपनी मजदूरी से वापस लौटा, मैंने उस मजदूर से पूछ ही लिया की क्या वो इस कपड़े का मालिक है...वो कुछ बड़बड़ाया लेकिन मुझे समझ नहीं आया..मुझे भी लगा की शायद उसे भी मेरा कहा समझ नहीं आया, या फिर उसनी मेरी बात को कोई विशेष ध्यान ही नहीं दिया।उसके फटे हुए कपड़ो और दूर से ही आती हुए मैले बदन की बास से मैं एक बार फिर घिन से भर आयी और घर के अंदर आ गई , अब मैं अपनी रसोई की तरफ मुड़ी तो रसोई के खिड़की से देखा की थोड़ी और सांझ हो चुकी है एक बार फिर सुबह जैसे लालिमा छायी लेकिन इस लालिमा के बाद उजाला नहीं रात मका अँधेराआएगा।
उस मजदूर के टिन के छ प्पर के बाहर के चुलहे की आंच भी जल जल कर थक चुकी है और वो भी धीरे -धीरे बुझ कर सोने जा रही है, जैसे रात होने पर सब पंछी अपने घोंसलों में और हम मनुष्य अपनी घरों मे सोने चले आते हैं।
एक बार फिर साहस कर मैंने उस कपड़े को उठाया और उस मजदूर को आवाज़ लगा के ढंग से पूछ ही लिया की क्या ये कपडा तुम्हारा है? तो उसने इस बार कम, लेकिन साफ़ और तस्सली से जवाब दिया ... "नही"।
इस "ना" मे मेरे मन की कितनी "हाँ" थी इसे सिर्फ मैं ही जान सकती हूँ... खैर कहीं न कहीं मन में फिर भी एक शक तो था ही की कही ये इसका नहीं तो शायद किसी और का हो सकता है .. इसी कश्मकश में तारो की टिमटिमाहट भी हो गई और मै भी दिन भर के उहापोह के बाद सो गई... सुबह उठी तो बहार मौसम साफ़ था, दो दिन के बारिश के बाद मेरे गमलों के फूल भी खिल रहे थे। मेरी अरबी के बड़े-बड़े पत्तों के ऊपर अभी भी पानी तैर रहा था ... हवा में ठंडक भरी बरसाती महक आ रही थी ... सुबह की किरणों के साथ गोरैया भी मेरे घर में अपना दाना पानी ढूंढ़ने आ गई, कुछ मेढक की भी आवाज़ें आ रही है गेट और दीवार पे घोंघे भी धीरे धीरे ऊपर चढ़ रहे है और केचोवें भी लगातार आगे बढ़ रहे है और इसी के साथ जल्द ही सूरज देव ने अपनी गर्माहट जबरदस्त तरीके से फैला दी... ये क्या बगल के दीवार पे नज़र दौडाई तो देखा इस बार उस कपड़े का लगभग तीन चौथाई भाग मेरी तरफ दिखाई दे रहा है और इस बार ये कोई मेरे तौलिये का हमशकल या कोई कपडा नहीं मेरा तौलिया ही है क्योंकि अब उसके बड़े बड़े कमल के फूल सूंदर से दिखाई दे रही है, उसकी नारंगी पट्टी अपने गुलाबी रंग से बिलकुल अलग दिख रही है, उसके खिली खिले रोऐं बिलकुल तारो ताज़ा लग रहे है और अब तो उसको मैनी अपनी गले से लगा ही लिया सूरज के गर्मी से अब वो बिलकुल नहाया हुआ और बिलकुल हल्का हो गया है जैसे मेरे मन का सारा मेल कहीं धूल गया और आज एक मजदूर ने मेरा ये भार उतार दिया,वो मजदूर मैला नहीं था, वो तो आज मुझे साफ़ सुथरा दिखाई दिया, दूर सेआती हुई दुर्गन्ध अब एक विश्वास के साथ महक लग रही थी.. ये मेरा है, मेरा खोय तौलिया मिल गया, जो खोया ही नहीं था बस मैंने उसे देख कर भी अनदेखा कर दिया था, अपना होते हुए भी पराया कर दिया था।
अब इसे एक बार फिर से धो रही हूँ और सोच रही हूँ कि इस तौलिय का मैं रोज इस्तेमाल करती हूँ। हर सुबह का मेरा यही अंत रंग साथी था, इसको मैंने कैसे नही पहचाना। साथ ही साथ ये भी सोच रही हूँ की हम लोग भी ना अपने ही लोगो को कई बार पहचान नही पाते। साथ साथ रहते है साथ साथ चलते हैं लेकिन कभी कोई थोड़ा दूर हो जाए तो हम भूल जाते हैं और जब फिर से सामने आते हैं तो ऐसे मिलते हैं हैं कि जैसे पहले कभी मिले ही नही। एक अनजाने की तरह, एक परदेसी के तरह या कभी दुश्मन के तरह भी एक दूसरे को देखते हैं।बने बनाए रिश्ते खुद नही पहचान पाते, बस जो दूसरों ने बोला वही मान लेते हैं और अपने सुंदर से साथ को गंदा या मैला बन देते हैं। बहुत खुश हूँ की इस कपड़े के मोह ने मुझे आज ये समझा दिया की सिर्फ साथ रहना ही जरूरी नही है बल्कि एक दूसरे को समझना और पहचानना भी जरूरी है। अब और नही बस अब अपने अंदर के उजालो को अपना सूरज समझ लूँगी और इस धुंध को खुद ही छांट लूँगी।..
Good👍
ReplyDeleteधन्यवाद
DeleteSupb
ReplyDeleteधन्यवाद
Delete
ReplyDeleteWow this blog is very nice..👍
ReplyDeleteNice Efforts , Wish you Good Luck.
ReplyDeleteWah Reena tu to novel writer Ben gai .
ReplyDeleteSuper 👍
Nice
ReplyDeleteAmazing work. Keep up the good work!
ReplyDeleteकितने एहसास और भावों से भरा अति सराहनीय लेख। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteधन्यवाद।। आप सभी के प्रोत्साहन के लिए। ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर। सराहनीय प्रयास। भविष्य के लिए शुभकामनाएं।
ReplyDeleteBht khub likha hai,all d best for future
ReplyDeleteAwesome Bhabhi (beenu)
ReplyDeleteTussi cha gaye
I am so glad you could take time out to start this blogpost.You have always had this talent to express yourself in such a beautiful way. We r so proud. Way to go girl!!
ReplyDelete