शिव पार्वती: एक आदर्श दंपति

Image
शिव पार्वती: एक आदर्श दंपति  हिंदू धर्म में कृष्ण और राधा का प्रेम सर्वोपरि माना जाता है किंतु शिव पार्वती का स्थान दाम्पत्य में सर्वश्रेठ है। उनका स्थान सभी देवी देवताओं से ऊपर माना गया है। वैसे तो सभी देवी देवता एक समान है किंतु फिर भी पिता का स्थान तो सबसे ऊँचा होता है और भगवान शिव तो परमपिता हैं और माता पार्वती जगत जननी।    यह तो सभी मानते ही हैं कि हम सभी भगवान की संतान है इसलिए हमारे लिए देवी देवताओं का स्थान हमेशा ही पूजनीय और उच्च होता है किंतु अगर व्यवहारिक रूप से देखा जाए तो एक पुत्र के लिए माता और पिता का स्थान उच्च तभी बनता है जब वह अपने माता पिता को एक आदर्श मानता हो। उनके माता पिता के कर्तव्यों से अलग उन दोनों को एक आदर्श पति पत्नी के रूप में भी देखता हो और उनके गुणों का अनुसरण भी करता हो।     भगवान शिव और माता पार्वती हमारे ईष्ट माता पिता इसीलिए हैं क्योंकि हिंदू धर्म में शिव और पार्वती पति पत्नी के रूप में एक आदर्श दंपति हैं। हमारे पौराणिक कथाएं हो या कोई ग्रंथ शिव पार्वती प्रसंग में भगवान में भी एक सामान्य स्त्री पुरुष जैसा व्यवहार भी दिखाई देगा। जैसे शिव

बद्रीनाथ धाम: यात्रा वर्णन भाग 2

   बरसात में बद्रीनाथ यात्रा 
      पिछले अंक में मैंने बताया था कि हम बद्रीनाथ जी के दर्शनों के लिए निकल चुके हैं और हमारे लिए इस धाम की यात्रा माँ धारी देवी के दर्शन आरती के बाद ही आरंभ होती है लेकिन हमेशा शांत और स्थिर रहने वाले ये  जड़वत पहाड़ भी बारिश के मौसम में दगा दे जाते हैं इसलिए जरा संभलकर... 


  धारी देवी के दर्शन हो चुके हैं और अब थोड़ा सकारात्मक भी सोच रहे है कि बद्रीनाथ धाम के दर्शन भी कर ही लेंगे। हम अब आगे की यात्रा खाँकरा वाले मार्ग से करेंगे क्योंकि पिछले अंक में बताया था कि धाम को जाने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग टूट गया है। मैंने इस से पहले कभी भी इस मार्ग पर यात्रा नहीं की थी। इसी मार्ग पर तो क्या धारी देवी से आगे में कभी बढ़ी ही नहीं थी इसलिए मेरे लिए यह एक नया अनुभव होने वाला था।    जिस मार्ग पर हम चल रहे थे वो रुद्रप्रयाग जाने का वैकल्पिक मार्ग था जो थोड़ा संकरा और लंबा भी है और साथ ही शायद बारिश के बाद थोड़ा और भी उबड़ खाबड़ हो गया था लेकिन फिर भी दिल को तस्सली दी क्योंकि हम यहाँ से कम से कम आगे तो बढ़ रहे थे। 
    जहाँ पहले इसी मार्ग पर गाड़ियों की लंबा जाम था वहाँ अब ट्रैफ़िक सामान्य था। लेकिन खाँकरा से आगे जाने पर फिर से गाड़ी की गति सामन्य से बिल्कुल धीमी हो गई थी। वापस आने वाली सभी बड़े वाहन ( बस, ट्रक, टैंपो) सड़क के दाई ओर खड़े थे। वे सभी सड़क के ठीक होने की प्रतिक्षा कर रहे थे जबकि छोटे वाहन उसी रास्ते से जा रहे थे जिस मार्ग से हमारी गाड़ी आई थी। एक धार (एक पहाड़ी मार्ग जो दूर से दिखाई दे जाता है) से दूसरी धार तक गाड़ियों का रेला स्पष्ट दिखाई दे रहा था। 
    यहाँ फिर से मन कुलबुलाने लगा कि इतने जाम में आगे कब तक पहुंचेंगे क्योंकि अंधेरे में पहाड़ की यात्रा के लिए मैं तो कतई पक्ष में नहीं होती हूँ। घर से जब चले थे तो सोचा था कि शाम को ही बद्रीनाथपुरी पहुँच जायेंगे क्योंकि अब यात्रा मार्ग पहले से बहुत ही शानदार हो गया है। धीरे धीरे आगे बढे तो कुछ निश्चित नहीं हो पाया कि कहाँ तक पहुंचेंगे लेकिन कोशिश यही थी कि उजाले में जोशीमठ तक पहुंच जाए। लेकिन अब गाड़ियों को फिर से इस तरह खड़े देखकर तो लग रहा था कि हम शायद कर्णप्रयाग तक ही पहुँच पाएँ। 
  इसी बीच छोटे भाई की भी चिंता होने लगी क्योंकि उसने भी रुद्रनाथ ट्रैकिंग करके आज इसी रास्ते से होते हुए ऋषिकेश, घर को लौटना था। भले ही उस समय बरसात नहीं थी लेकिन कुछ समय पहले तो थी ही और पहाड़ी रास्ता तो बरसात में हर जगह एक जैसा ही होता है न! फोन किया तो पता चला की आशु लोग अभी चमोली में ही फंसे हुए हैं। आगे कहीं रोड़ टूटी हुई है इसलिए पिछले 15-20 मिनट से वहीं रुके हुए हैं। अब चिंता थोड़ी बढ़ गई क्योंकि उसके साथ मोनिका (बहु), तनु (भांजी), उज्जवल (दोस्त) भी थे और वो लोग भी अभी तक आधे रास्ते भी नहीं पहुंचे थे। अपने बारे में तो जो सोचा सो सोचा,,,मैं तो ये सोच के भी परेशान थी कि ऋषिकेश में माँ बाबू जी भी तो आशु लोगों की चिंता कर रहे होंगे!! 
   ऊपर से सड़क कब तक खुलेगी ये भी कुछ पता नहीं चल रहा था। बस अब दिमाग में घंटियाँ बजने लग गई कि आगे क्या होगा,,,? हम कहाँ तक पहुंचेंगे? आशु लोग कब तक पहुंचेंगे?? कहीं हम बीच रास्ते न अटक जाए जहाँ खाना पीना कुछ न हो!! बच्चे अलग परेशान न हो, माँ की तबियत ठीक रहे और न जाने क्या क्या?? मन अपनी कल्पनाओं और योजनाओं में बहने लगा। लेकिन धीरे धीरे रास्ता साफ होने लगा और अब खुली सड़क पर गाड़ी दौड़ने लगी। हम रुद्रप्रयाग पहुँच चुके थे। 
कहाँ पौने घंटे में हम रुद्रप्रयाग पहुँच जाते और कहाँ हमने डेढ़ घंटे लगा दिए। खैर, जो भी हो अच्छी बात तो ये भी थी की हम भी आगे बढ़ रहे थे और आशु लोग भी चमोली से निकलकर नंदप्रयाग तक पहुँच चुके थे। और अब दोनों गाड़ियां गौचर पहुँचते हुए एक दूसरे के सामने आती हुई मिल गई। सभी सकुशल थे और तभी पता चला कि चमोली के पास ही एक गाड़ी के ऊपर बोल्डर गिर गया था इसीलिए वहाँ का रास्ता कुछ देर के लिए रोकना पड़ा। थोड़ी चिंता तो अब फिर से होने लगी थी लेकिन "देखो कहाँ तक जाया जा सकता है" वाला विकास का विचार अब मेरे मन में भी बैठ चुका था सो बस एक दूसरे को शुभ यात्रा की कामना करते हुए आगे बढ़ गए। 
   चार धाम रोड़ पर गडकरी जी ने बहुत अच्छा काम किया है ये केवल सुना ही था लेकिन सच में कुछ एक जगह को छोड़कर वाकई में सड़क काफी अच्छी हैं। जहाँ पहले यात्रा मार्ग संकरा था वहाँ भी सड़क चौड़ी हो गई हैं और अब यहाँ गाडियाँ सरपट दौड़ती हैं। साथ ही ऋषिकेश से कर्णप्रयाग रेल परियोजना का कार्य भी हमें हर मुख्य पड़ाव में दिखाई दिया।
  हम गौचर से आगे कर्णप्रयाग पहुंचे। यहाँ पर ही 10-15 मिनट का ब्रेक लिया और फिर से बच्चों का स्नैक्स, जूस और ब्रेड बटर और कचर पचर का समान भरा क्योंकि बरसात में इन पहाड़ी सड़कों का कुछ भरोसा नहीं। घंटे भर में ही हम गौचर से नंदप्रयाग पहुँच गए। चमोली जाते हुए ही हमें दाएं हाथ की ओर वो लाल रंग की विटारा गाड़ी भी दिख गई जिसके बारे में आशु ने बताया था। गाड़ी की हालत देखकर थोड़ा मन घबराया तो था लेकिन पता नहीं धारी देवी के दर्शन के बाद थोड़ी हिम्मत भी आ रही थी इसीलिए बस मन ही मन प्रार्थना की कि हमारी यात्रा सफल रहे। अब मन पक्का कर लिया था इसलिए बिना जोखिम लिए सोचा कि हमारा पहला पड़ाव जोशीमठ ही होगा और कल सुबह ही बद्रीनाथ धाम के दर्शन करेंगे। 
  बस कहीं कहीं बीच में थोड़ा रास्ता खराब था बाकी अब हम चमोली से आगे बिरही जा रहे थे। शाम का समय था लेकिन चाय पानी पीने के बजाए बस जोशीमठ के होटल पहुँचने की ठानी। बच्चे कभी सोते और कभी जागते। जब जागते तो कुछ खाते फिर थोड़ा बाहर देखते और फिर सो जाते। लेकिन मैं अब जाकर प्रकृति को निहारने का आनंद ले रही थी क्योंकि सुबह से तो दिमाग में बहुत उथल पुथल मची थी। 
   खिड़की खोलकर ठंडी हवा का आनंद ले रही थी और एक अद्भुत दृश्य ने पूरे मन को प्रफुल्लित कर दिया। सामने एक पहाड़ की चोटी पर सफेद बर्फ ऐसे लदी थी कि मानो उसने चांदी का मुकुट पहना हो। जिया ने तो उसका नाम भी रख दिया 'सिल्वर क्राउन माउंटेन।'
अब तो मैं हर पेड़, हर मोड़ और हर एक बादल को निहार रही थी। कभी कोई पहाड़ी मेरे दाएँ आती तो कभी कोई बाएँ। मानो ये पहाड़ियाँ मेरे साथ लुका छुपी का खेल कर रही है। और अलकनंदा भी तो मटकती हुई अपनी धुन में गीत गा रही थी। अब बहुत अच्छा लग रहा था। अब लग रहा था कि हम सच में देव भूमि में हैं। अभी तक मौसम भी अच्छा था और प्राकृतिक नज़ारे भी अनुपम थे। साथ ही सड़क भी बहुत अच्छी थी जिनमें गाडियाँ भी दौड़ रही थी और गाड़ियों से अधिक लाल पीले झंडे लगाए फटफटिया भी जेट बनी हुई थी। 
   शाम के करीब छः बजे थे हम लोग पीपलकोटी पहुँच गए थे। ये स्थान भी यात्रा के समय तीर्थ यात्रियों का मुख्य पड़ाव होता है। यहाँ रोड़ पर ही बहुत अच्छे होटल नज़र आ रहे थे लेकिन वो थोड़े शांत ही नज़र आ रहे थे। इक्का दुक्का लोग ही उनमें दिखाई दिए। बद्रीनाथ और हेमकुंड साहिब जाने वाले श्रद्धालु यहाँ रात्रि विश्राम के लिए रुकते हैं। केवल तीर्थ यात्री ही नहीं अपितु सैलानी पर्यटक भी यहाँ के अनुपम सौंदर्य को निहारने के लिए रुकते हैं। 
   यहाँ से आगे बढ़ने पर हेलंग पहुंचे जहाँ के मुख्य मार्ग पर ही जलविद्युत परियोजना का काम दिखाई देने लग जाता है। हेलंग आने के बाद हम लगभग आखिर सवा सात बजे के आसपास जोशीमठ पहुँच गए। यहाँ थोड़ी बहुत हलचल थी कारण शायद यहाँ के बाजार और मार्ग का संकरा होना था। इसीलिए हम बाजार न ठहर कर बद्रीनाथ मार्ग पर आगे बढ़े जहाँ 'होटल औली डी' जोशीमठ में हमारा कमरा तैयार था। गाड़ी से उतर कर ही किया भगवान बद्रीविशाल को नमन और बढे अपने कमरे की ओर। 
    कमरा बहुत ही साफ सुथरा और आधुनिक सुविधाओं से पूर्ण था। हम लोगों को थकान मिटाने के लिए चाय मिली तो बच्चों को अपना टीवी और जय को तो खिलौने के रूप में मिला वहाँ रखा फोन क्योंकि अब लैंड लाइन वाले फोन दिखते कहाँ हैं। सफर से सिर दर्द भी था और थकान भी फिर सुबह दर्शन के लिए जल्दी निकलना भी था। 
   जोशीमठ की सुबह तो और भी खूबसूरत थी। शाम को तो थकान से कुछ पता नहीं चला कि लेकिन सुबह बहुत प्यारी थी। खिड़की के सामने ही ऐसा मनमोहक दृश्य था कि पलक झपकना भी भूल गई। ऐसा लग रहा था कि सुबह सुबह बादल खिड़की के पास से ही गुज़र रहे हों। खिड़की से देखा तो सामने के पहाड़ बहुत पास लगे ऐसा लगा कि सुबह की सैर पर इन्हीं पहाड़ियों पर निकला जाए। और यहाँ के प्राचीन नरसिंह देवता मंदिर के दर्शन भी किया जाए लेकिन हमें सैर पर नहीं अभी बद्रीनाथ जी के दर्शन के लिए निकलना था सो झट से तैयार होकर निकल पड़े बद्रीनाथपुरी के मार्ग पर। 


   सड़क बहुत अच्छी थी बस कुछेक जगह पर खराब थी लेकिन विकास के अनुसार तो बहुत ही अच्छा रास्ता था क्योंकि वो पहले भी कई बार इस मार्ग पर आ चुके हैं। जोशीमठ के बाद विष्णुप्रयाग पहुंचे।यह पंच प्रयाग में से एक प्रयाग है जिसका हिंदू शास्त्र में बड़ा ही धार्मिक महत्व है। यहाँ अलकनंदा नदी और धौली गंगा का संगम है और भगवान विष्णु जी का मंदिर भी। यहाँ पर जे पी का पावर प्लांट भी रास्ते में दिखाई देता है।
   उसके बाद हम पहुंचे गोविंद घाट। यहाँ पर थोड़ी चहल पहल अधिक थी क्योंकि हेमकुंड साहिब के श्रद्धालु यहाँ से अलग ट्रैक पर चले जाते हैं। फिर आया एक और महत्वपूर्ण स्थान पांडुकेश्वर्। यहाँ पौराणिक योग ध्यान बद्री मंदिर है और इस क्षेत्र को कुबेर भगवान का स्थल भी माना जाता है। शीतकाल में बदरीनाथ जी के कपाट बंद होने पर भगवान की पूजा इसी जगह में की जाती है। साथ ही बदरीश पंचायत से कुबेर जी और उद्धव जी की डोली को भी लाया जाता है। 
   पांडुकेश्वर् से थोड़ा ही आगे आए थे कि फिर संकरा रास्ता आया जहाँ संभलकर जाना पड़ रहा था। ये जगह थी लामबगड़ जो एक स्लाइड जोन है। यहाँ पर पहाड़ी का मलबा गिरने से सड़क बहुत उबड़ खाबड़ थी। और एक बार में एक गाड़ी को ही पास कराया जा रहा था। बरसात के मौसम में इस जगह पर कई बार सड़क संपर्क टूट जाता है। 
 बस आगे बढ़ते ही हमें अपना अगला पड़ाव हनुमान चट्टी भी जल्दी मिला। जोशीमठ से एक घंटे में ही हम हनुमान चट्टी मंदिर पहुँच गए। यह भी बहुत दिव्य स्थान है। हनुमान जी का यह मंदिर बहुत ही साधारण है लेकिन पौराणिक मान्यताओं के लिए विशेष महत्व रखता है। बद्रीनाथ जी जाने वाले श्रद्धालु हनुमान चट्टी मंदिर दर्शन कर बाद ही आगे बढ़ते हैं। माना जाता है कि इसी स्थान पर हनुमान जी ने पांडव पुत्र भीम का घमण्ड चूर किया था। 
  हनुमान जी को बिना प्रणाम किए हम आगे कैसे बढ़ सकते थे वो भी जय के प्रिय भगवान संकट मोचन हनुमान! यहाँ जय ने खिलौने वाली हनुमान जी की गदा भी ली और अब हमें ऐसा लगा कि हनुमान चट्टी के मंदिर में हमें बाल हनुमान भी मिल गए।
   अब इससे आगे तो सीधा बद्रीनाथ धाम था जो यहाँ से केवल 11 किलोमीटर पर था और हमें केवल आधे घंटे में ही पहुँच जाना था लेकिन रास्ते के प्राकृतिक दृश्य इतने अलौकिक और मनोहारी थे कि वहाँ बिना रुके आगे नहीं बढ़ा गया। इतने ऊँचे पहाड़ वो भी इतनी पास! बीच बीच में पहाड़ से निकलते झरने अलग ही छटा बिखेर रहे थे। 
  दिव्य दृश्यों को देखते देखते हम दस बजे दिव्य धाम बद्रीनाथ जी में थे। हम समुद्र तल से 3,133 मीटर (10,279 फीट) ऊपर थे। इस घाटी में धूप खिली थी लेकिन हवा ठंडी थी और हवा में अलग ही महक थी लेकिन ये ठंडक गर्मी के मौसम में बहुत अच्छी लग रही थी। हम हिमालयी पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य भगवान बद्रीनाथ जी का मंदिर हमारे सामने था और नीचे ही अलकनंदा बह रही थी। इस समय जो दिमाग में था वो केवल बद्रीनाथ जी की आरती के बोल ..."पवन मंद सुगंध शीतल हेम मंदिर शोभितम् निकट गंगा बहत निर्मल श्री बद्रीनाथ विश्व्म्भरम्।"
 मंदिर में थोड़ी भीड़ थी क्योंकि नीचे सीढ़ियों से ही लाइन लग गई थी लेकिन विकास को आज खाली ही लगा क्योंकि दर्शन के लिए यहाँ किलोमीटर तक लाइन लगती है। प्रसाद के साथ साथ तुलसी माला बेचते बहुत से लोग मिल जाते हैं। प्रसाद के रूप में यहाँ इलायची दाना, चने की डाल, मिश्री, गोला, वनतुलसी चढ़ाई जाती है। 
   यहाँ तक कि परिसर के पास ही कोई रुद्राक्ष की माला, कोई तुलसी माला, कोई लक्ष्मी माला बेचता हुआ आपको मंदिर परिसर के पास मिल जायेगा। साथ ही इस क्षण को यादगार बनाने के लिए वहाँ के स्थानीय फोटोग्राफर मंदिर के साथ फोटो मिनटों में बनाकर हमें दे देते हैं। एक और रोचक बात मुझे दिखाई दी कि यहाँ केवल हिंदू धर्म के ही नहीं अपितु सिख धर्म के लोग भी भगवान बद्रीनाथ जी के दर्शन के लिए कतार में खड़े थे। 
    पंडित जी के द्वारा हमारे दर्शन शीघ्र ही हो गए। उन्होंने मंदिर में भगवान नारायण की मूर्ति के साथ कुबेर, उद्धव जी, गरुड़ देव के बारे में बताया। हमें मंदिर के बारे बताया, नर नारायण पर्वत दिखाया, माता लक्ष्मी, हनुमान जी, क्षेत्रपाल देव, कामधेनु माता सभी के दर्शन कराए। साथ ही साथ आदिगुरु शंकराचार्य की समाधि के सम्मुख भगवान का जाप भी कराया क्योंकि इस देवभूमि पर किया गया जप तक दस हज़ार गुना फल देता है। 
   दर्शन अच्छे से हो गए थे फिर मेरे जीजा जी जो बद्रीनाथपुरी के तीर्थ पुरोहित है श्री पंडित प्रदीप रामनाथ शास्त्री जी ने हमें धाम में आकर दर्शन के साथ पूजन का महत्व भी बताया और माँ के हाथों से पूजन कराया। सुरम्य घाटी में अलकनंदा नदी के किनारे बने गांधी घाट पर बैठ कर पूजन करने पर एक अलग ही ऊर्जा का अनुभव हो रहा था और अब लग रहा था कि धाम में आकर माँ की धर्मिक यात्रा पूर्ण हो रही है। 
  पूजा के बाद हमेशा पेट पूजा की याद आती है सो हमें मिले हमारे साथी अमित पालीवाल जिन्होंने हमारा खाना रहना दोनों का प्रबंध किया। आश्चर्य हुआ कि हिमालय की इस घाटी में बसे इस धाम में भी खाने की सभी वैरायटी उपलब्ध थी। क्या इंडियन! क्या साउथ इंडियन! सभी स्वाद उपलब्ध थे। यहाँ तक कि हम जिस रेस्टोरेंट (उर्वशी रेस्टोरेंट) में थे वहाँ अन्य जायकों के साथ चायनीज़ खाना भी परोसा जा रहा था। बताया गया कि इस जगह यात्रा के समय इतनी भीड़ होती है कि कई बार खाने के लिए भी बुकिंग करानी पड़ती है। (मन ही मन व्यंग्य कर रही थी कि फिर तो बल एक आधा ढेला मैं भी खोल देती हूँ!!) 
     बद्रीनाथ में हमारे साथी अमित पालीवाल

  दर्शन हो गए, पूजा हो गई, खाना हो गया फिर समय आता है सुस्ताने का लेकिन यहाँ आकर कोई थकान तो थी ही नहीं। इसके उलट तो जैसे सब चार्ज हो गए। जिस जगह हम रुके थे उसके ठीक सामने बद्रीनाथ जी का सुसज्जित मंदिर था और उसके नीचे तप्त कुंड से उठता धुँआ साफ नज़र आ रहा था। कमरा बिल्कुल साधारण था जिसमें केवल मूलभूत सुविधाएं थी। बच्चों को तो ये कमरा समझ नहीं आया क्योंकि यहाँ न तो उनके लिए टी वी था और न ही कोई फोन और न ही उथल पुथल करने के लिए सोफा। लेकिन बच्चों को तो ये समझाना पड़ता है कि इन सुख सुविधाओं और आराम के लिए हिल स्टेशन जाना होता है। यहाँ तो केवल ईश्वर भक्ति और प्रकृति का ध्यान होता है। खैर, बच्चे तो अभी बहुत छोटे हैं। इन्हें इन बातों से कोई मतलब नहीं है और वैसे भी धार्मिक यात्राएँ बच्चों के लिए नहीं होती हैं लेकिन हमारे पास इनको ले जाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था इसलिए इनके लिए ये एक रोमांचक यात्रा थी। 
   इस रोमांचक यात्रा पर अमित ने पूरी कमान संभाली और हम सभी को ट्रैक कराकर प्रकृति के और पास ले गए। यहाँ ऋषि गंगा का झरना और सुंदर बुग्याल पर जाकर तो बच्चे क्या हम भी खुशी से झूम उठे। ऐसा सुंदर झरना और वो भी इतने पास!! हमने कभी नहीं देखा था और उन बुग्याल पर तो बैठने का नहीं सोने का मन कर रहा था!!

 
   हम लोग तो चरण पादुका तक नहीं जा पाए क्योंकि बच्चों के साथ इतनी ऊँचाई पर नहीं जाया जा सकता था तो बामनी गांव तक ही खूब आनंद लिया और उसके बाद शीघ्र ही वापस कमरे की ओर प्रस्थान किया क्योंकि माँ कमरे में अकेले थी और अभी हमने माणा गांव भी देखना था। इसलिए अब सब साथ चले माणा गांव की ओर। 
        माणा गांव भी उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित है जिसकी दूरी बद्रीनाथपुरी से केवल 3 किलोमीटर है। यह हिंदुस्तान का अंतिम गांव भी है क्योंकि इससे आगे भारत-तिब्बत सीमा शुरू हो जाती है। माणा बहुत ही खूबसूरत जनजातीय गांव हैं जहाँ रडंपा जाति के लोग रहते हैं। यहाँ पर अभी भी अधिकतर घर लकड़ी और पत्थर के पठाल से बने हुए हैं। यहाँ की महिलाएं बहुत कर्मठ हैं। यहाँ महिलाएं पारंपरिक वस्त्र पहने ऊनी वस्त्रों की बुनाई और साथ ही उन्हें बेचते हुए भी दिखाई दे जायेंगी। 
    सरस्वती नदी का उद्गम (माणा गाँव) 

 माणा गांव से ट्रैक करके हम सरस्वती नदी का उद्गम स्थल, भीम पुल, व्यास गुफा, गणेश गुफा, वसुधारा फॉल्, सतोपंथ तक ट्रैकिंग कर सकते हैं लेकिन बच्चों और माँ के साथ हम माणा गांव से चलकर आगे भीम पुल तक गए। यहाँ पर ही सरस्वती नदी का उद्गम भी दिखाई देता है। यहाँ सरस्वती नदी चट्टानों के बीच से निकलती हुई दिखाई देती हैं। सरस्वती नदी पूरे भारत में केवल यहीं दिखाई देती है और फिर प्रयाग इलाहाबाद के संगम पर गंगा यमुना के साथ मिलकर त्रिवेणी बनाती है। भीम पुल के लिए कहा जाता है कि पांडव जब स्वर्गलोक जा रहे थे तो सरस्वती नदी को पार करने के लिए भीम ने इस शिला को नदी के ऊपर रखा जिसे हम भीम पुल के नाम से जानते हैं। 
     सरस्वती मंदिर

   यहाँ हमें बहुत से सैलानी दिखे जो पैदल भी थे और कुछ कंडियों में बैठ कर आगे बढ़ रहे थे। कई परिवार ऐसे भी दिखे जिनके साथ दूध मुंहे बच्चे भी थे लेकिन सभी आगे बढ़ रहे थे।यहीं पर सरस्वती जी का मंदिर भी था लेकिन अब उसे थोड़ा भव्य रूप दिया जा रहा है तो वहाँ किसी को भी जाने की अनुमति नहीं थी। यहाँ हमे आगे हिंदुस्तान की आखिरी दुकान भी मिली जहाँ गरमा गर्म पकौड़े, मैगी, चाय पानी और सरस्वती जल मिल रहा था। और हाँ, भारत का आखिरी भिखारी भी जो बड़े ही गुदगुदाते हुए कह रहा था.... "आखिरी दुकान के पकौड़े खाते जाओ और आखिरी भिखारी को भी दान देते जाओ... "
  सुबह से ही दिन बहुत अच्छा व्यतीत हुआ था। शाम हो चुकी थी और थोड़ी ठंड भी बढ़ रही थी इसलिए अब माणा से वापस लौट रहे थे लेकिन मन तो अभी भी एक बार फिर से बद्रीनाथ जी के दर्शन के लिए लालायित था सो हम शाम को भगवान बद्रीनाथ जी की आरती में सम्मिलित होने के लिए मंदिर पहुँच गए। 
   बद्रीनाथ मंदिर के गर्भ गृह में अभिषेक, आरती एवं पूजा का सौभाग्य भी अब दिया जाता है जहाँ भगवान को सामने से निहारने का अवसर मिलता है। भले ही इसका रूप थोड़ा व्यवसायिक (commercial) भी लगता है लेकिन भगवान की आरती पूजन को सामने देखने से जो संतुष्टि मिलती है उसके सामने ये सब गायब लगता है। 
  हमें भी यह सौभाग्य प्राप्त हुआ जो अपने आप में एक बहुत बड़ा अनुभव था। भगवान नारायण की आरती रावल जी (मंदिर के मुख्य पुजारी) द्वारा की जा रही थी। चंदन और तुलसी से पूरा गत गृह महक रहा था और उनके बीच घंटो की आवाज तो पूरे बदन में ऊर्जा जैसी लहर पैदा कर रही थी। अंदर से मंदिर और भी सुंदर था। स्वर्णिम मुकुट पहने पूरे सिंगार के साथ थे। वैसे दर्शन तो सुबह भी किए थे लेकिन भीड़ होने से संतुष्टि नहीं मिली थी लेकिन भगवान बद्री नारायण की आरती आँखों के सामने से देखी तो मन को जैसे तृप्ति मिल गई। 
   लेकिन बद्रीनाथपुरी को निहारने से अभी भी फुर्सत नहीं मिली थी इसलिए हम इंद्रधारा की ओर चल पड़े  और यहाँ भी प्राकृतिक दृश्यों को निहारा। 
बच्चों ने भी खूब साथ दिया बस बीच बीच में जय को अपना कैक्टस टॉय याद आ जाता जो उसने पता नहीं कौन सी दुकान में देखा था। 
   रात हो चुकी थी और हम अपने चेतन लॉज में आ गए थे। कमरे की खिड़की से ही सामने मंदिर दिखाई दे रहा था। पीछे का दरवाजा खोला तो बद्रीनाथ जी का मंदिर जगमगाती सुनहरी रोशनी में नहाया हुआ चमक रहा था। यह अलौकिक दृश्य तो मैं अपने जीवन में शायद ही कभी भूल पाऊँ।


   रात में हल्की फुल्की फुहारें पड़नी आरंभ हो गई थी। अब बच्चे और माँ दोनों थक चुके थे और कचर पचर खाने से बच्चों का पेट भी दर्द होने लगा था। थकान से तो जिया को हल्का बुखार भी आ गया था। चूंकि पेट दर्द, सिर दर्द, बुखार, खाँसी जुकाम की दवाई साथ थी तो कोई परेशानी नहीं हुई। सब ठीक हो गया। (हालांकि जय का दर्द तो कैक्टस टॉय के आने के बाद ही ठीक हुआ।)नहीं तो दवाइयों के लिए हमें ढूँढना पड़ता क्योंकि यहाँ स्वास्थ्य संबंधी सेवायं थोड़ी ढीली ही है। 
    रात को हल्की बारिश थी लेकिन सुबह मौसम बिल्कुल साफ था और बच्चे भी स्वस्थ थे। सामने ही भगवान बद्री नारायण मंदिर था लेकिन इस सुबह वो धुंधला नज़र आया क्योंकि तप्त कुंड से निकलता धुँआ और कोहरा, दोनों मिलकर बादलों की तरह मंदिर के आगे तैर रहे थे। 
    बस अब यहीं से प्रणाम किया और वापस घर की ओर निकल पड़े। भगवान बद्रिविशाल के दर्शन से मन प्रफुल्लित था और उनकी कृपा से मौसम भी ठीक था नहीं तो बारिश और उसके बाद कड़क धूप से भी भूस्खलन का खतरा बना रहता है।
   वापसी का मार्ग खुला हुआ था। आस पास कहीं भी कोई भी सड़क टूटी नहीं थी। लेकिन आते समय भी हमें दो गाडियाँ दिखाई दी जिन्हें देखकर लग रहा था कि इनके ऊपर भी कोई पत्थर गिरा होगा और एक गाड़ी का तो डिप्पर भी जल रहा था। 
   फिल्हाल हमें तो कोई मार्ग अवरुद्ध नहीं मिला। हाँ, लेकिन वही आफत वाला सीरोबगड़ जहाँ हमेशा ही पत्थरों का गिरना लगा रहता है, वहाँ थोड़ी देर के लिए सांस अटक गई थी क्योंकि आँखों के सामने ही ऊपर से पत्थर गिर रहे थे इसलिए थोड़ा रुक रुक कर और सावधानी के साथ आगे बढ़ना हुआ। मन में बस भगवान बद्रीविशाल का सुमिरन किया और अपनी राह में बढ़ते गए। 
     श्रीनगर से आगे तो तेज बारिश के साथ आँख मिचोली चलती गई। बारिश कहीं कम तो कहीं ज्यादा और कहीं गायब थी लेकिन हमारी गाड़ी कहीं नही रुकी। लेकिन हाँ,, शनिवार होने के कारण शिवपुरी में जाम से जरूर उलझ गए। सैलानियों का रैला लक्ष्मण झूला तक बना हुआ था और इस जाम में हम भी डेढ़ घंटे तक फंसे रहे और शाम 7 बजे आखिर अपने देहरादून शहर पहुंच गए। 
    हमारी यात्रा बिना विघ्न के पूरी हो गई पूरी हो चुकी थी, जिसके लिए ईश्वर का धन्यवाद और कोटि कोटि नमन। वहाँ से आने के बाद लगभग हर दिन पत्थर गिरने से अप्रिय घटना का लेख अखबार में पढ़ने से दिल बैठ जाता है और अपने को धन्य समझती हूँ कि हमारी यात्रा सही रही। 
    अब सोच रही हूँ कि पिछले वर्ष ही मैंने बद्रीनाथ/बद्रिकाश्रम/बद्रिनाथपुरी/बद्रीविशाल,,, भगवान नारायण की तपोभूमि पर एक लेख लिखा था जिसमें बद्रीनाथ जी के बारे में जानकारी दी थी https://www.reenakukshal.com/2021/05/blog-post.html और यहाँ आने की अपनी इच्छा भी बताई थी। ये भगवान बद्री नारायण की ही कृपा थी कि उनके सुमिरन मात्र से आज एक वर्ष बाद मुझे बद्रीनाथपुरी आने का सौभाग्य भी प्राप्त हो गया। धार्मिक यात्रा तो पूरी हो गई थी लेकिन जिज्ञासु यात्रा अभी भी बाकी थी। अभी भी बहुत कुछ छूट गया था जिसे अभी देखना बाकी था। फिर कभी मौका मिलेगा तो तसल्ली से हर एक चीज को निहारूँगी लेकिन शायद अगली बार कुछ अलग रूप में धाम दिखाई दे क्योंकि केंद्र सरकार बद्रीनाथपुरी का व्यवस्थित रूप बना रही है। 
   फिल्हाल जो देखा वो ऊपर लिख दिया और जो अब लिख रही हूँ वो सीख है और कुछेक के लिए ज्ञान भी.... 

-जैसे बरसात में पहाड़ों या नदियों की यात्रा न करें। ये जोखिम भरी होती हैं, भूस्खलन का खतरा लगातार बना रहता है इसलिए अनावश्यक यात्रा पर बिल्कुल न जाएं। रास्ता बंद होने पर दूध, राशन, फल, सब्जी, दवाई जैसी मूलभूत आवश्यकता भी पूरी नहीं हो पाती। 
- पहाड़ी मार्ग पर गाड़ी बड़े ही ध्यान से चलाएं। एक दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा अकारण ही जाम या अप्रिय घटना का कारण बनती है। 
- पहले तीर्थ केवल वृद्ध ही करते थे क्योंकि वे सोचते थे कि अगर इन यात्राओं में उनकी मृत्यु भी होती थी तो सीधा वैकुंठ जायेंगे। लेकिन आज बच्चे, जवान सभी एक समान तीर्थ स्थल जा रहे हैं और कई बार केवल फूहड़ता का प्रदर्शन कर रहे हैं। उन्हें तीर्थ न जाकर हिल स्टेशन जाना चाहिए। 
- ऐसे विषम धाम पर छोटे बच्चों को न ले जाएं। यहाँ की भौगोलिक स्थिति और जलवायु बच्चों के अनुकूल नहीं हैं। जिनका प्रतिकूल प्रभाव बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ सकता है साथ ही बीमार लोग भी यात्रा से बचें। 
- दर्शन के लिए जाएं तो पूजा अवश्य करायें क्योंकि यहाँ पर दर्शन के साथ पूजा एवं दान का महातम्य भी है। 
- प्राकृतिक सुंदरता बनाए रखे। प्लास्टिक बोतल, चिप्स बिस्कुट के पैकेट या अन्य कचरा यहाँ वहाँ न डाले। 
- यहाँ वस्तुओं के दाम कुछ अधिक भी मिल जायेंगे लेकिन इतनी दूर ऐसी विषम भौगोलिक स्थिति में सामान मिलना और इस (climate condition) जलवायु स्थिति पर बैठ कर दुकानदारी करना कठिन काम है तो मेरी दृष्टि से थोड़ा मेहनताना तो बनता है। 
- यह क्षेत्र शराब निषेध है। लोगों को इसकी मर्यादा रखनी चाहिए। (केवल माणा गांव के लोगों को ही चावल से बनी शराब बनाने की अनुमति है लेकिन कुछ लोग इस पवित्र धाम को दूषित करने से भी परहेज नहीं करते। भगवान उन्हें सद्बुद्धि दे।) 
- महिलाओं के लिए खास; अधिक ऊँचाई पर स्थित होने से सूरज की किरणें सीधी पड़ती हैं इसलिए एक अच्छा सनस्क्रीन  क्रीम लगा कर ही बाहर निकले नहीं तो माथा, सिर, नाक में सन बर्न हो जायेगा। (जैसे कि मेरा) 

जय बद्री विशाल!! 

एक- Naari
   

Comments

  1. Jai Badri Vishal.
    Bahut he badiya likha jaise ki hum ise khud anubhav kar rahe ho.

    ReplyDelete
  2. Wow,,, congratulations,,such a described travelogue.

    ReplyDelete
  3. Jai Badri Vishal, you just recalled our memorable trip

    ReplyDelete
  4. यात्रा का वृतांत और यात्रा की सीख बहुत ही सुंदर ।

    ReplyDelete
  5. Great, Such a Sublime and Resplendent Narration, Readers can Live/ Dive / Feel, the Transacting Journey. Kudos

    ReplyDelete
  6. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति। सतत पढ़ने का मन करता है। बहुत अच्छा यात्रा वर्णन। हम सब को भी इस यात्रा पर जाने हेतु प्रेरणा मिलेगी। धन्यवाद

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

उत्तराखंडी अनाज.....झंगोरा (Jhangora: Indian Barnyard Millet)

उत्तराखंड का मंडुआ/ कोदा/ क्वादु/ चुन

मेरे ब्रदर की दुल्हन (गढ़वाली विवाह के रीति रिवाज)