शिव पार्वती: एक आदर्श दंपति

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शिव पार्वती: एक आदर्श दंपति  हिंदू धर्म में कृष्ण और राधा का प्रेम सर्वोपरि माना जाता है किंतु शिव पार्वती का स्थान दाम्पत्य में सर्वश्रेठ है। उनका स्थान सभी देवी देवताओं से ऊपर माना गया है। वैसे तो सभी देवी देवता एक समान है किंतु फिर भी पिता का स्थान तो सबसे ऊँचा होता है और भगवान शिव तो परमपिता हैं और माता पार्वती जगत जननी।    यह तो सभी मानते ही हैं कि हम सभी भगवान की संतान है इसलिए हमारे लिए देवी देवताओं का स्थान हमेशा ही पूजनीय और उच्च होता है किंतु अगर व्यवहारिक रूप से देखा जाए तो एक पुत्र के लिए माता और पिता का स्थान उच्च तभी बनता है जब वह अपने माता पिता को एक आदर्श मानता हो। उनके माता पिता के कर्तव्यों से अलग उन दोनों को एक आदर्श पति पत्नी के रूप में भी देखता हो और उनके गुणों का अनुसरण भी करता हो।     भगवान शिव और माता पार्वती हमारे ईष्ट माता पिता इसीलिए हैं क्योंकि हिंदू धर्म में शिव और पार्वती पति पत्नी के रूप में एक आदर्श दंपति हैं। हमारे पौराणिक कथाएं हो या कोई ग्रंथ शिव पार्वती प्रसंग में भगवान में भी एक सामान्य स्त्री पुरुष जैसा व्यवहार भी दिखाई देगा। जैसे शिव

स्कूल का खुलना...चैन की सांस..Reopening of Schools

स्कूल का खुलना...चैन की सांस
स्कूल का पहला दिन
  रात में घड़ी घड़ी नींद से जागना फिर मोबाइल में समय देखना और फिर दोबारा सो जाना। बस यही क्रम पूरी रात भर चलता रहा और जब सुबह उठी तो अलग ही उलझन हो रही थी। कभी यहां कभी वहां करते हुए घर के बस चक्कर ही लग रहे थे काम तो निपट ही नहीं रहा था। सब कुछ आधा अधूरा था, जो काम कुछ मिनटों का था पता नहीं किस हड़बड़ाहट में घंटा भर लग रहा था। आज कुछ खास था।
  आज जय का पहला दिन था उसके स्कूल जाने का शायद इसीलिए मैं कुछ बावली सी हो रखी थी और शायद यही हाल उन सभी मां का भी हो जो पहली बार अपने बच्चे को स्कूल भेज रही हो और उनका भी जो पूरे दो साल के बाद अपने बच्चों को स्कूल के हवाले कर रही हो क्योंकि जितने बच्चे अपने स्कूल जाने में उत्सुक थे उतने ही उत्सुक उनके अभिभावक भी थे। वैसे जिया के समय भी ऐसा ही उत्साह था बस शंकाएं नहीं थी लेकिन जय के साथ उत्साह और शंका दोनों थी क्योंकि कभी उसको अकेला नहीं छोड़ा। अगर जय थोड़ी देर भी शांत रहता है तो लगता है कि ये जरूर कुछ उटपटांग ही कर रहा होगा। और ऐसा ही अन्य मां भी सोच रही होंगी जिनके बच्चे अधिक नटखट होंगे और मुझे लगता है उन सभी ने भी यही सोचा होगा जिनके बच्चे कभी बचपन में ऐसे ही नटखट रहे होंगे। उनकी भी खुशी, उत्सुकता और शंकाएं ऐसे ही बनी रही होंगी। 
    अब जब स्कूल बड़ी मुश्किल से खुले हैं तो उसे अकेला तो छोड़ना ही पड़ेगा और सच कहूं तो अब घरवाले भी यही चाहते हैं कि बच्चे भी कुछ समय के लिए उन्हें भी अकेला छोड़ दे। उन्हें भी कुछ समय मिले चैन से काम करने का इसलिए अभिभावकों ने भी ऑनलाइन कक्षाओं के लिए अब अपने हथियार डाल दिए हैं। खैर! ये तो केवल दिल को तसल्ली देने वाली बात है। असल में बात बच्चों के भविष्य से जुड़ी है क्योंकि विद्यालय बच्चों का गुरुकुल है जहां उनके भविष्य की नींव रखी जाती है।
  और सही भी तो है जब दुनिया कोरोना से थोड़ा आगे बढ़ रही है तो थोड़ी हिम्मत तो सभी को दिखानी होगी। ईश्वर न करे कभी भविष्य में फिर ऐसा हो लेकिन अब पढ़ाई के विकल्प भी उपलब्ध हो चुके हैं। इसलिए जब तक स्थिति नियंत्रण में है तब तक तो बच्चों को स्कूल भेजना आवश्यक है क्योंकि एक बच्चे का विकास जितना विद्यालय में होता है उतना घर पर नहीं हो सकता इसलिए अब तो बच्चों को उनके स्कूल भेजना ही है।

बच्चों का विद्यालय जाना आवश्यक था...वर्चुअल दुनिया से बाहर निकलने के लिए
    दो साल के बाद आज बच्चे अपने स्कूल गए तो जितनी खुशी बच्चों को स्कूल जाने की हुई उससे अधिक बच्चों के माता पिता को थी। इन दो सालों में कोरोना ने पढ़ाई का ऑनलाइन विकल्प तो सुझाया लेकिन पढ़ाई से अधिक वर्चुअल दुनिया के द्वार बच्चों के लिए खोल दिए। ( अब जब बड़े ही अपने मोबाइल से दिन भर इंटरनेट की दुनिया में खोए रहते हैं तो इन नन्हें मन में इस दुनिया की उत्सुकता तो बनी रहेगी न!) जहां बच्चे अपना ज्ञान और कौशल किताबो और खेल कूद में लगाते थे वहीं अब बच्चे सोशल साइट पर दोस्त और अपने चैनल बनाने में अधिक रुचि लेने लग गए हैं। उन्हें डिक्शनरी खोलने नहीं गूगल करने की आदत पड़ चुकी है। हालांकि ये कहा जाता है कि इंटरनेट फ्रेंडली बच्चे दूसरे बच्चों की अपेक्षा बाहरी ज्ञान अधिक रखते हैं लेकिन उनका ज्ञान केवल वर्चुअल तक ही सीमित हो जाता है व्यवहारिक रूप से ऐसे बच्चे कई जगह असफल भी होते हैं। जबकि स्कूल में रहकर बच्चों के साथ उनकी सीखने की क्षमता प्राकृतिक तरीके से बढ़ती है और वे तेजी से सीखते भी हैं।

बच्चों का विद्यालय जाना आवश्यक हो गया था.....बच्चों में अनुशासन के लिए
   बच्चे तो हमेशा से मनमौजी रहे हैं, स्वतंत्र प्रकृति के। उन पर कोई दबाव या जोर जबरदस्ती नहीं हो सकती लेकिन अनुशासन का पाठ भी तो जरूरी है। मुझे तो नहीं लगता कि पिछले दो सालों में बच्चों ने कुछ अनुशासन भी सीखा हो! जबकि कुछ घर में किसी घर में रहकर बच्चों ने मुझे तो लगता है कि विद्यालय का अर्थ ही अनुशासन है। यही वो जगह है जहां पर बच्चे को सबसे पहले अनुशासन ही सिखाया जाता है। निश्चित अवधि, निश्चित पाठ्यक्रम, निश्चित कक्षाएं, निश्चित नियम, निश्चित शैली इन सबके बीच छात्र अपने को अनुशासित रखता है और छात्र जीवन में अनुशासन उनके भविष्य निर्माण के लिए मार्गदर्शन करता है। हालांकि ये काम भी घर से ही आरंभ होता है किंतु आज के हिसाब से बच्चों में अनुशासन के साथ निपटना बहुत ही टेढ़ी खीर है।
    घर बैठे ऑनलाइन कक्षाओं से बच्चों में अनुशासन का पाठ नहीं सिखाया जा सकता इसलिए स्कूल खुलना भी जरूरी था। कम से कम उन नन्हें बालकों के लिए जिन्हें अभी तक स्कूल के दर्शन तक नहीं हुए क्योंकि इन्हें घर पर मुख्यत: केवल लाड ही मिला है अनुशासन नहीं।

बच्चों का विद्यालय जाना आवश्यक था...सीखने के लिए विशिष्ट वातावरण के लिए
बंद कमरे में लैपटॉप, मोबाइल के द्वारा पढ़ाई करना और खुले वातावरण में अपने सहपाठियों के साथ सीखना दोनों में बहुत अंतर है। सीखने की शैली में वातावरण एक उत्प्रेरक का काम करता है। उचित और विशिष्ट वातावरण ही बच्चों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता है और विद्यालय ही वो जगह है जो बच्चों के लिए उचित शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और भौतिक वातावरण उपलब्ध कराता है। 

  विद्यालय में ऐसा वातावरण होता है जहां भिन्न भिन्न संस्कृति, समुदाय, परिवार के बच्चे आपस में मिलते हैं और वे सभी साथ साथ रहते हुए उन सब बातों को स्वतः ही सीख जाते हैं जिन्हें वे ऑनलाइन के माध्यम से या घर के माहौल में नही सीख सकते।

बच्चों का विद्यालय जाना आवश्यक था....बच्चों में बहुमुखी प्रतिभा के लिए
  इन नन्हें बच्चों को जिन्हें हमने आज तक कभी अकेला नहीं छोड़ा। उनके लिए विद्यालय ही पहला कदम होता है जहां वे पहली बार अपने घर से अलग होते हैं। विद्यालय उन बच्चों के मन में आत्मविश्वास की नींव बनाता है ताकि वे अपने काम करने में सक्षम बने। स्कूल में आयोजित विभिन्न क्रिया कलापों से और अन्य बच्चों से मिलकर बच्चों में आत्मविश्वास बढ़ता है और उनकी प्रतिभा का भी ज्ञात होता है।
   ये भी है कि बच्चों की पहली पाठशाला तो घर ही है लेकिन घर में रहकर उसका ज्ञान, उसका दृष्टिकोण संकुचित रहता है जबकि विद्यालय में बच्चे विशिष्ट और विस्तृत तरीके से पढ़ाई भी करते हैं और अन्य जानकारियां भी लेते हैं जिससे वहां उसका बहुमुखी विकास होता है। जब बच्चा विद्यालय जाता है तो केवल बौद्धिक ही नहीं अपितु सामाजिक गुण भी सीखता है। सभी के साथ मिलकर उसमें भी दया, प्रेम, सहयोग, अनुशासन, सहनशीलता, सेवा भाव जैसे गुण भी विकसित होते है। विद्यालय से नैतिक शिक्षा प्राप्त करता है जो समाज को उन्नत बनाती है।
    अब लगभग सभी बच्चे अपने स्कूल जा रहे हैं। उनके मासूम चेहरों पर खुशी साफ नजर आ रही है। कोई बच्चा चाहे पहली बार विद्यालय में अपने कदम रख रहा हो या कोई दो साल के बाद सबके चेहरे एक जैसे खिले हुए हैं। अब जब बच्चों की भीड़ देखती हूं तो कोई भी विद्यार्थी चाहे छोटा हो या बड़ा एक जैसी वर्दी पहने अपने कंधो पर बैग लटकाए दिखाई दे रहे हैं। सभी एक जैसे नजर आ रहे थे और सच मानो उन्हें देखकर चैन की सांस आ रही थी और अब मेरे मन को भी बहुत तसल्ली मिल रही है कि जय भी इन सभी बच्चों के बीच अपने कदम भी अब आगे बढ़ा ही लेगा। 

एक -Naari

Comments

  1. चलो स्कूल चलें,,, अच्छा लेख है

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  2. It was tuff to send our children to school after long time ,but it's really peaceful .,
    -Santoshi

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  3. Very well said... my son literally forgot the meaning of discipline from past two years. Now we hope he will come on track soon.

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  4. It was indeed required as being into teaching profession I also firmly believe that it is difficult to inspire young minds without any human interface (of any age).... and for their holistic development exposure is must....beautiful write up...

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  5. Nice n absolutely true article

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