थोड़ा कुमाऊँ घूम आते हैं...भाग-2

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थोड़ा कुमाऊँ घूम आते हैं...भाग- 2   पिछले लेख में हम हरिद्वार स्थित चंडी देवी के दर्शन करके आगे बढ़ रहे थे यानी कि उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल से अब कुमाऊँ मंडल की सीमाओं में प्रवेश कर रहे थे बता दें कि उत्तराखंड के इस एक मंडल को दूसरे से जोड़ने के लिए बीच में उत्तर प्रदेश की सीमाओं को भी छूना पड़ता है इसलिए आपको अपने आप बोली भाषा या भूगोल या वातावरण की विविधताओं का ज्ञान होता रहेगा।     कुमाऊँ में अल्मोडा, नैनीताल, रानीखेत, मुक्तेश्वर, काशीपुर, रुद्रपुर, पिथौरागढ, पंत नगर, हल्दवानी जैसे बहुत से प्रसिद्ध स्थान हैं लेकिन इस बार हम केवल नैनीताल नगर और नैनीताल जिले में स्थित बाबा नीम करौली के दर्शन करेंगे और साथ ही जिम कार्बेट की सफ़ारी का अनुभव लेंगे।   225 किलोमीटर का सफर हमें लगभग पांच से साढ़े पांच घंटों में पूरा करना था जिसमें दो बच्चों के साथ दो ब्रेक लेने ही थे। अब जैसे जैसे हम आगे बढ़ रहे थे वैसे वैसे बच्चे भी अपनी आपसी खींचतान में थोड़ा ढ़ीले पड़ रहे थे। इसलिए बच्चों की खींचतान से राहत मिलते ही कभी कभी मैं पुरानी यादों के सफर में भी घूम रही थी।     कुमाऊँ की मेरी ये तीसर

उत्तराखंड का मंडुआ/ कोदा/ क्वादु/ चुन

उत्तराखंड का मंडुआ/ कोदा/ क्वादु/ चुन


   सर्दियों की गुलाबी ठंड शुरू हो चुकी है। घर के दीवान, संदूक या अलमारी से गर्म कपड़ों का छत या बालकनी में धूप लगाना भी शुरू हो चुका है और साथ ही पहनना भी। कपड़े ही क्या हमारा खानपान में भी बहुत से बदलाव होने लगे है। ठंडे शरबत या शेक्स की जगह गर्म सूप और चाय कॉफी ने ले ली है। ठंडी तासीर के बजाए गर्म तासीर वाले व्यंजनों को रसोई में ज्यादा जगह मिल रही है और साथ ही मोटे अनाज का सेवन भी बढ़ रहा है।
   और अगर बात उत्तराखंड की हो तो सर्दियों के आरंभ के साथ ही मोटा अनाज कहे जाने वाले उत्तराखंड के पारंपरिक अनाज का काला राजा मंडुआ/ कोदा/ क्वादु/ चून का उपभोग अधिक होने लगता है। 
      मंडुआ जिसे हम फिंगर मिलेट कहते हैं। इसे रागी के नाम से अधिक पहचाना जाता है। वैसे इसका वैज्ञानिक नाम एलिसाइन कोराकाना है। मुख्यरूप से कोदा यूगांडा और इथोपिया का मोटा अनाज है। लगभग 3 से 4000 वर्ष पूर्व यह भारत आया और अब भारत विश्व का सबसे अधिक मंडुआ उत्पादन करने वाला देश हो चुका है। उड़ीसा, तमिलनाडु, महाराष्ट्र के साथ साथ उत्तराखंड में भी इसकी खेती की जाती है।
  मंडुआ उत्तराखंड के बारानाजा परिवार का मुख्य सदस्य है। उत्तराखंड के बारानाज पौष्टिकता से भरपूर हैं। ये बारानाज कोदा, झंगोरा, गहथ, तिल, भट्ट, चौलाई, राजमा, लोबिया, तोर, उड़द, ज्वार, नौरंगी हैं जिन्हें उत्तराखंड में गेंहू और धान के साथ मिश्रित फसल के रूप में उगाते हैं। 
   उत्तराखंड की 85 फीसदी भूमि असिंचित है। इस भौगोलिक स्थिति में भी मंडुआ की खेती के लिए उपयुक्त है और इसकी खास बात यह भी है कि चाहे दिन हो या रात यह प्रकाश संश्लेषण कर लेता है और अपनी मजबूत गहरी जड़ों से सूखा भी सहन करने में सामर्थ है। बिना किसी विशेष उपजाऊ भूमि या अधिक मेहनत के मई जून में बुआई के साथ सितंबर तक छोटी घुमावदार बालियों में तैयार हो जाता है फिर इसकी बालियां सूखने से पहले ही कटाई के साथ खलियान में सुखाकर इसके दानों के ऊपर लगे सफेद परत को साफकर काले दानों के रूप में कोदा प्राप्त कर लिया जाता है। बाकी बची घास को जानवर का चरा रूप में संग्रहित किया जाता है।
  
मंडुआ स्वास्थ्य के लिए वरदान !!
   आजकल स्वास्थ्य के प्रति जागरूक (Health-conscious) लोगों के बीच रागी से बने उत्पाद एक प्रचलित आहार है क्योंकि मंडुए में प्रोटीन, फाइबर, आयरन, ट्रिप्टोफिन, मिथियोनिन, लेशेथिन, अमीनो एसिड इत्यादि पोषक तत्व होते हैं और इस गुणकारी निरोगी अनाज की खेती में हमारा देश भारत इसके उत्पादन में पहले पायदान पर आता है।
- मंडुआ शर्करा मुक्त (शुगर फ्री) अनाज है जिसके सेवन से रक्त में शर्करा की मात्रा संतुलित रहती है इसलिए मधुमेह से पीड़ित रोगियों के लिए मंडुआ बहुत ही लाभकारी है। 
- मंडुआ लौह तत्व से भरपूर अनाज है। एनीमिया में हरे पत्तेदार सब्जी के साथ इसके लगातार सेवन से हीमोग्लोबिन में वृद्धि होती है। 
- कोदा एक ऐसा अनाज है जो कैल्शियम से भरपूर है। कोदे में 80 प्रतिशत कैल्श्यिम की मात्रा होती है। इस मोटे अनाज में चावल की तुलना में 34 गुना और गेंहू की तुलना में 9 गुना अधिक कैल्शियम होता है। जिससे की हड्डियों और दांतों की मजबूती बनी रहती है।
- मंडुआ को रक्तचाप संतुलन के लिए भी प्रयोग किया जाता है। कोदे के सेवन के बाद नींबू पानी पीने से रक्तचाव की समस्या को भी ठीक किया जा सकता है।  
- कोदा फाइबर से भरपूर (रिच फाइबर) अनाज है जिसके सेवन से पेट की गैस या कब्ज की समस्या भी दूर रहती है और पाचन शक्ति भी सुचारू रहती है। कोदा जल्दी पाचने वाला निरोगी अनाज है।
- क्षारीय अनाज होने के कारण बवासीर से परेशान लोगो के लिए लाभकारी होता है। इसके सेवन से अल्सर की शिकायत नहीं होती।
- गर्भवती महिलाओं और बच्चों के लिए भी मंडुआ बहुत गुणकारी है क्योंकि इसमें अमीनो एसिड और प्रोटीन के गुण होते हैं जो बच्चे के शारीरिक और मानसिक सेहत का ध्यान रखते है। जापान जैसे विकसित देश में रागी/ मंडुआ से बने पौष्टिक आहार शिशुओं को विशेषत दिए जाते हैं।
- डॉक्टरों का मानना है कि इसके नियमित सेवन से आंखों का रतौंधी रोग भी दूर होता है।
-त्वचा के निखार और सुंदरता के लिए भी तरह तरह के फेस पैक, स्क्रब, मास्क भी मंडुए से बनाए जा रहे हैं।

उत्तराखंड के मंडुए का सफर
  पहले उत्तराखंड में मंडुआ को केवल खानापूर्ति के लिए पेट भरने वाला अनाज कहते थे जिसे गढ़वाल के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों का आहार समझा जाता था क्योंकि यह मोटा अनाज आसानी से 60 से 80 दिनों में आसानी से मिल जाता था जबकि गेंहू और धान की फसल बहुत ही कठिनाई से और भगवान भरोसे ही होती थी। इसलिए पहाड़ के कुछ ही धनाढ्य वर्ग ऐसे थे जिनके पास गेंहू और धान का भंडार था बाकी अन्य सभी मंडुआ से काम चलाते थे। धीरे धीरे समय के साथ कृषि तकनीक भी बदली और लोग मोटे अनाज के बजाय गेंहू और धान पर अधिक केंद्रित हो गए।
    गांव के भोले भाले लोग अपने रिश्तेदारों या भाई बंधुओं को भी मंडुआ कुटरी (कपड़े की पोटली) में बांधकर भेंट में देते थे लेकिन धीरे धीरे इसे पशु आहार भी समझा जाने लगा और फिर इसकी खेती भी काम कर दी। 
   पारंपरिक तौर पर उत्तराखंड में इस आटे से केवल चून की रोटी, बाड़ी या पल्यो, सीडे़, डिंडके (गढ़वाली व्यंजन) ही बनाए जाते थे लेकिन धीरे धीरे इसके गुणों को पहचानते हुए इसकी पैदावार बढ़ाई जा रही है और नए नए प्रयोगों के साथ बाजार की मांग के अनुसार आज मंडुए की बिस्कुट, ब्रेड, नमकीन, मिठाई, हलवा, उपमा, चिप्स, डोसा सब तैयार किया जा रहा है। 
  यह जल्दी से खराब भी नहीं होता और न कीड़े पड़ने का डर रहता है। हम नादान पहाड़ियों द्वारा इसे गाय भैंस को देने वाला चोकर के समान माना गया लेकिन कभी कौड़ियों के भाव बिकने वाला मंडुआ आज बाजार में 40 से 60 रुपए प्रति किलो के भाव से बिक रहा है। उत्तराखंड राज्य कृषि विपणन बोर्ड के अनुसार तो पिछले साल डेनमार्क को उत्तराखंड से ही 20 टन मडुआ एक्सपोर्ट किया गया।

हर उत्तराखंडी की रसोई में ही नहीं दिल में बसा है मंडुआ !!

 उत्तराखंड में शायद ही कोई ऐसा घर हो जो मंडुए से अछूता हो। पहले बच्चों को यह कह कर बहलाया जाता था कि इसे खाकर लोग काले होते हैं लेकिन फिर भी इसका सेवन सभी ने किया। सच कहूं तो बचपन में खाई मंडुए की रोटी के साथ हरी चटनी, घी और चाय का स्वाद ऐसा चढ़ा है कि आज भी इस काली रोटी के आगे अच्छे अच्छे पकवान भी फीके लगते हैं। 
   मंडुए का आटा बाजार में आसानी से उपलब्ध हो जाता है। वैसे तो बहुत सारी रेसिपी अब उपलब्ध है लेकिन उत्तराखंड के इस पारंपरिक और सीधे साधे व्यंजन के लिए तो बस इसके आटे को छलनी से छान कर थोड़ा गेंहू का आटा मिला लें क्योंकि शुद्ध मंडुए के आटे की रोटी केवल पारंगत लोग ही बना पाते हैं। इसीलिए 20% तक आटा मिलाकर इसकी मोटी और कुरकुरी रोटी बना लो उसके ऊपर थोड़ी हरी मिर्च धनिया लहसुन की चटनी के साथ में इस गर्म रोटी में देसी घी उड़ेल दो और बस गरमा गर्म चाय के साथ इसकी जुगलबंदी कर लो। बस फिर तो आप भी इस पहाड़ी रोटी के दीवाने हो जाएंगे। वैसे इसकी रोटी के साथ गुड़ या छांछ के साथ भी अच्छी लगती हैं।
   यही सादा सा लेकिन स्वाद और सेहत से भरपूर नाश्ता हम उत्तरखंडियों के लिए सर्दियों का खजाना बनता है जिसे बड़े ही नहीं मेरे घर के बच्चे भी काली रोटी के नाम से बड़े ही मजे से खाते हैं।

एक -Naari
 


Comments

  1. Sateek jaankari...ab ye gareebon ka nahin balki amiron ka anaaj hai jabse iski medicinal properties ka pata chala hai tab se iske daam genhu ke aate se double ho chuke hain.

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