थोड़ा कुमाऊँ घूम आते हैं...भाग-2

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थोड़ा कुमाऊँ घूम आते हैं...भाग- 2   पिछले लेख में हम हरिद्वार स्थित चंडी देवी के दर्शन करके आगे बढ़ रहे थे यानी कि उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल से अब कुमाऊँ मंडल की सीमाओं में प्रवेश कर रहे थे बता दें कि उत्तराखंड के इस एक मंडल को दूसरे से जोड़ने के लिए बीच में उत्तर प्रदेश की सीमाओं को भी छूना पड़ता है इसलिए आपको अपने आप बोली भाषा या भूगोल या वातावरण की विविधताओं का ज्ञान होता रहेगा।     कुमाऊँ में अल्मोडा, नैनीताल, रानीखेत, मुक्तेश्वर, काशीपुर, रुद्रपुर, पिथौरागढ, पंत नगर, हल्दवानी जैसे बहुत से प्रसिद्ध स्थान हैं लेकिन इस बार हम केवल नैनीताल नगर और नैनीताल जिले में स्थित बाबा नीम करौली के दर्शन करेंगे और साथ ही जिम कार्बेट की सफ़ारी का अनुभव लेंगे।   225 किलोमीटर का सफर हमें लगभग पांच से साढ़े पांच घंटों में पूरा करना था जिसमें दो बच्चों के साथ दो ब्रेक लेने ही थे। अब जैसे जैसे हम आगे बढ़ रहे थे वैसे वैसे बच्चे भी अपनी आपसी खींचतान में थोड़ा ढ़ीले पड़ रहे थे। इसलिए बच्चों की खींचतान से राहत मिलते ही कभी कभी मैं पुरानी यादों के सफर में भी घूम रही थी।     कुमाऊँ की मेरी ये तीसर

केवल भू कानून ही नहीं, बात है उत्तराखंडियत की।

केवल भू कानून ही नहीं, बात है उत्तराखंडियत की।



    वैसे तो आजकल सभी इतने व्यस्त होते हैं कि किसी को कोई मतलब नहीं होता है कि क्या हो रहा है और क्या होना चाहिए। मतलब तो तब जान पड़ता है जब खबर सोशल साइट पर घूमते हुए हमें मिल जाती है। ऐसे ही तो आजकल कई लोगों को उत्तराखंड से जुड़े खूब भारी भरकम शब्द भी सुनने को मिल रहे हैं और ऐसा ही एक शब्द इस हफ्ते (27 जुलाई, अमर उजाला) ही एक अखबार में मुझे पढ़ने को मिला,,, उत्तराखंडियत । 
    इससे पहले कभी भी मैंने इस शब्द को नहीं सुना था शायद कभी उत्तराखंड के बारे में ऐसा सोचा ही नहीं होगा। लेकिन सच कहूं तो उत्तराखंडियत सुनकर अच्छा लगा। उत्तराखंड में रहते हुए इसे सुनकर ही लगता है कि कोई वजनदार पहचान मिल रही है। 
     जैसे भारतीय होने पर भारतीयता का गर्व होता है ठीक वैसे ही उत्तराखंड में रहते हुए उत्तराखंडियत की बात करना मतलब की अपनी पहचान को आगे बढाना है। चलो, किसी को तो याद आया कि उत्तराखंड में उत्तराखंडियत का भी कुछ स्थान होना चाहिए, हां, ये बात अलग है कि इस प्रकार के शब्द चुनाव के समय में ही अमूमन याद कर लिए जाते हैं।  
    समय चाहे जो भी हो लेकिन इसी उत्तराखंडियत के लिए यहां के नौजवानों का भू कानून के विषय में मुख्य रूप से आगे आना उनकी जागरूकता का परिचय कराता है। 
     हालांकि बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी समस्याओं से परे भू कानून में जुटे युवा अपनी उत्तराखंडियत बचाने का भिन्न भिन्न तरीकों से अनूठा प्रयास कर रहे हैं जो एक अच्छी पहल है क्योंकि अपनी बोली, भाषा, सभ्यता, संस्कृति और प्राकृतिक संसाधन बचाना भी तो सबसे बड़ा कर्तव्य है।
    यह तो सभी का कर्तव्य बनता है कि जिस खंड को उसकी विशिष्ट बोली भाषा, भौगोलिक परिस्थिति के अनुरूप अलग राज्य बनाया गया उसे संवारने और बचाने की कुछ नैतिक जिम्मेदारी तो सभी की होनी चाहिए। 
      उत्तराखंड में युवा ही नहीं अपितु बहुत बड़ा वर्ग हिमाचल प्रदेश की भांति भू कानून पर जोर दे रहा है जैसे हिमाचल में कृषि भूमि लेना किसी भी गैर हिमाचली के लिए लगभग निषेध है अन्यथा कुछ सीमाओं और शर्तों के साथ ही भूमि पर काम हो सकता है ठीक वैसे ही यहां पर भी लोग ऐसा ही कानून बनाने के लिए आंदोलित है। 
     वैसे तो उत्तराखंड में पहले भी गैर-कृषक बाहरी व्यक्ति के लिए भूमि खरीदने की सीमा 500 वर्ग मीटर थी फिर संशोधन करके 250 वर्ग मीटर की उसके बाद 2018 में एक बार
फिर संशोधन किया गया और औद्योगिक विकास का हवाला देते हुए भूमि की सीमा समाप्त कर दी गई। पहले भूमि में
बंदिश थी अधिनियम की धारा-154 के अनुसार कोई भी किसान 260 नाली (12.5 एकड़) तक भूमि का मालिक ही हो सकता था लेकिन अब ऐसा नहीं है। चाहे भूमि कृषि की हो या गैर कृषि की, कोई भी कितनी भी भूमि खरीद सकता है।
  और अब एक बार फिर से कठोर भू कानून बनाने पर जोर दिया जा रहा है तर्क यह है कि इस कानून से उत्तराखंड को भू माफियाओं और अन्य कुसंस्कृतियों से बचाया जा सकता है और साथ ही पलायन को भी रोका जा सकता है। भू माफियाओं से बचाने पर तो सोचा जा सकता है लेकिन उत्तराखंड से पलायन किस प्रकार से रुकेगा इसपर संशय है! (शायद जब पहाड़ की जमीन पर अन्य लोग होंगे तो वहां के स्थानीय लोगों को तो पलायन करना ही होगा।)
    उत्तराखंड में लगभग 13 से 14% ही भूमि कृषि योग्य बची है। शेष में वन और अन्य भूमि आती है। धरातल की बात तो यह है कि उत्तराखंड में अब कृषि या खेती करना धीरे धीरे कम हो रहा है, कृषि तो छोड़ो अब तो कितने गांव ही खाली हो गए हैं क्योंकि युवा रोजगार की तलाश में मैदानी क्षेत्रों या अन्य राज्यों की ओर जाते हैं। 

    (सच कहूं तो मैदानी क्षेत्र में रहते हुए अपने ही आसपास कितने ऐसे क्षेत्र देखें हैं जहां पहले खूब बड़े बड़े खेत थे उनमें कभी मक्का तो कभी गेंहू या गन्ना लगा दिखता था लेकिन अब वहां अधिकतर बड़े बड़े व्यवसायिक भवन, शादी पार्टी के लिए हाल, होटल या फिर फ्लैट बन चुके हैं। कभी कभी दुख भी होता है कि जीवन की सबसे मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति के बजाय हम लोग आर्थिक पूर्ति की दौड़ में सम्मलित हो जाते हैं।)
    कानून तो हिमाचल जैसा बन भी जाए लेकिन क्या उत्तराखंड सरकार भी हिमाचल की भांति खेतीबाड़ी, बागवानी को प्रोत्साहन देगी? क्योंकि हिमाचल में उद्योग भी हैं तो कृषि भी। हिमाचल में प्रति व्यक्ति आय भी खेतीबाड़ी के कारण उच्च राज्यों के बराबर पहुंचती है। आय का बहुत बड़ा साधन यही कृषि और बागवानी है। हिमाचल में मौसमी फलों से लेकर बेमौसमी सब्जियों तक का कारोबार खूब फलीभूत है और यहां हम लोगों ने कितनी ऐसी योजनाएं देखी जो कृषि को आगे बढ़ाने के लिए लागू की गई हो! कितने प्रशिक्षण ऐसे दिए हैं पहाड़ के किसानों को जो उनको बागवानी करने के लिए प्रोत्साहित की हो! और कितनी गणित समझाई है उनको खेतीबाड़ी के लाभ की!
    उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र का किसान गरीब है और उसके पास अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भूमि बेचने के सिवा कुछ और साधन नहीं रह जाता। ऐसे में अगर कोई भी धन लेकर उसकी भूमि लेने जाता है तो वह खुशी खुशी उसे बेच देता है। भूमि के बदले उसे पैसा भी मिलता है और आश्वासन भी क्योंकि रोजगार के रास्ते भी बन जाते हैं।
    कृषि भूमि को अकृषि भूमि बताना तो उत्तराखंडियत पर ठेस ही होगी। उत्तराखंड की पहचान ही यहां की प्राकृतिक संपदा और सौंदर्य के साथ यहां की संस्कृति और जीवनशैली है। किसी भी असमाजिक या अन्य लोगों के जमावड़े से उस स्थान विशेष की सभ्यता या संस्कृति में कमी तो आती ही है। इसको घटा कर आगे बढ़ेंगे तो उत्तराखंडियत कहां रह जाएगी!!

     उत्तराखंड के युवा को रोजगार भी चाहिए और अपनी उत्तराखंडियत भी। इसीलिए भूकानून पर पुनः विचार करना भी आवश्यक है। कुछ अच्छी नीतियां दूसरे राज्यों या देश से भी ली जा सकती है जैसे हिमाचल की ही भांति अन्य हिमालयी राज्यों में भी सख्त भू कानून है वैसे ही उत्तराखंड में भी भू कानून बने। हां, अकृषि भूमि पर उद्योगों के नए निवेशों को कर मुक्त या विशेष लाभ के साथ बेरोजगारी से राहत मिल सकती है और भू कानून के साथ साथ स्थानीय बागवानी कृषि को भी पूर्ण रूप से आगे बढ़ाए जाने से पहाड़ी क्षेत्रों से पलायन में भी राहत तो मिलेगी ही।

   मैं तो सोचती हूं या फिर ऐसा हो कि जिस प्रकार से दुबई में व्यवसाय आरंभ करने के लिए एक स्थानीय भागीदार को चुना जाता है उसी प्रकार से ही उत्तराखंड में भी व्यवसाय के लिए इस प्रकार की कुछ नीतियां हो, उद्देश्य तय हो, भूमि की सीमा रेखा तय हो और साथ ही समय सीमा भी तय हो जिससे कि स्थानीय किसान को भी लाभ हो।
     अब चाहे बात सामाजिक विकास की हो, या आर्थिक विकास की, औद्योगिक विकास हो या फिर कृषि विकास पहल या चर्चा कोई भी वर्ग विशेष करे लेकिन उत्तराखंडियत के लिए सरकार को अंतिम और स्पष्ट नीति तय तो करनी पड़ेगी। बुद्धिजीवी वर्ग के साथ विचार विमर्श करके ही इससे संबंधित विशेष कानून बनाना होगा जो राजनैतिक स्वार्थ से परे हो।

नोट: यह मेरे निजी विचार हैं। आलेख में संबंधित सूचना और तथ्यों की जानकारी समाचार पत्रों एवं अन्य स्रोतों द्वारा ली गई हैं। किसी भी त्रुटि के लिए क्षमा।

एक - Naari

Comments

  1. So thoughtful... appreciate your point of Dubai

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  2. सटीक विचार हैँ आपके रीना. मुझे लगता है, जब तक उत्तराखंड का हर नागरिक राजनीती से परे अपने प्रदेश के लिए कर्तब्यनिष्ट नहीं बन जाता, तब तक हमारे संसाधनों का दोहन बाहर से आने वाले लोग ही करेंगे. शायद इसके लिए हमें फिर एक आंदोलन की आवश्यकता पड़े

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