थोड़ा कुमाऊँ घूम आते हैं...भाग-2

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थोड़ा कुमाऊँ घूम आते हैं...भाग- 2   पिछले लेख में हम हरिद्वार स्थित चंडी देवी के दर्शन करके आगे बढ़ रहे थे यानी कि उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल से अब कुमाऊँ मंडल की सीमाओं में प्रवेश कर रहे थे बता दें कि उत्तराखंड के इस एक मंडल को दूसरे से जोड़ने के लिए बीच में उत्तर प्रदेश की सीमाओं को भी छूना पड़ता है इसलिए आपको अपने आप बोली भाषा या भूगोल या वातावरण की विविधताओं का ज्ञान होता रहेगा।     कुमाऊँ में अल्मोडा, नैनीताल, रानीखेत, मुक्तेश्वर, काशीपुर, रुद्रपुर, पिथौरागढ, पंत नगर, हल्दवानी जैसे बहुत से प्रसिद्ध स्थान हैं लेकिन इस बार हम केवल नैनीताल नगर और नैनीताल जिले में स्थित बाबा नीम करौली के दर्शन करेंगे और साथ ही जिम कार्बेट की सफ़ारी का अनुभव लेंगे।   225 किलोमीटर का सफर हमें लगभग पांच से साढ़े पांच घंटों में पूरा करना था जिसमें दो बच्चों के साथ दो ब्रेक लेने ही थे। अब जैसे जैसे हम आगे बढ़ रहे थे वैसे वैसे बच्चे भी अपनी आपसी खींचतान में थोड़ा ढ़ीले पड़ रहे थे। इसलिए बच्चों की खींचतान से राहत मिलते ही कभी कभी मैं पुरानी यादों के सफर में भी घूम रही थी।     कुमाऊँ की मेरी ये तीसर

सबसे मीठा राम का नाम, उसके बाद बस आम ही आम। भारत के प्रसिद्ध आम। हर आम की अपनी अलग पहचान

सबसे मीठा राम का नाम, उसके बाद बस आम ही आम
भारत के प्रसिद्ध आम। हर आम की अपनी अलग पहचान 

   तीन महीने बाद घर में हमारे सिवा अन्य लोगों की भी आवाजें सुनाई दी। पिछले रविवार को ही पारिवारिक मित्र से बढ़कर हमारे परिवार के ही लोग जो साथ थे। मां बाबू जी का और इस परिवार का साथ पिछले 30 सालों से है तो घर में खूब चहल पहल होना स्वाभाविक था। 
   जय की शैतानियां अपने अवि भईया और शुभी चाचु के साथ चरम सीमा पर थी। जिया की खुशी अपनी क्राफ्ट और पेंटिंग वाली चाची के साथ दुगनी हो गई, मां बाबू जी की टोली अंकल आंटी जी के साथ अलग ही रमी हुई थी और    विकास को तो बस और चाहिए ही क्या था क्योंकि,,अपना बचपन का यार (partner in crime) जो साथ था और इन सबके बीच मुझे तो बस सबको साथ देखकर जो आनंद मिल रहा था उसका अंदाजा तो इस बात से भी लगाया जा सकता है कि खुशी के मारे परोसने वाला एक व्यंजन भी मुझे देखकर फुक गया।
   खैर, जब परिवार बड़ा होता है तो इस प्रकार की बाते साधारणत: हो जाती हैं। असाधारण बात तो तब मानी जाए कि जब परिवार एक साथ बैठा हो और आम के मौसम में भी आम का आनंद न लिया जाए। 
   हमारे घर में मुख्यत: दशहरी और बनारसी आम ही आता है। विकास और पिता जी दशहरी के रसिया हैं तो मां को केवल बनारसी आम ही मनभाता है। बच्चों को सिर्फ अभी आम ही पता है और बाकी बची मैं। मैं तो गाय हूं कुछ भी दे दो खा लेती हूं लेकिन मां तो अपने बनारसी आम खाने के साथ ही संतुष्टि मिलती है। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि इस बनारसी आम को वो अपने मायके की याद के साथ लेती हैं। ऐसा कोई भी वर्ष नहीं बीता होगा जिसमें उन्होंने अपने मायके के बनारसी लंगड़ा, फजली और तोतापुरी आम को याद न किया होगा। हर वर्ष वो बताती हैं कि भाभर, कोटद्वार में हमारे बड़े बड़े आम के बाग थे और जब भी वहां जाना होता था तो वहां का माली रामजनी आम से भरी पूरी बाल्टी ही सामने रख देता था और तब पूरा परिवार गोल घेरे में बैठकर आम को काटकर नहीं अपितु चूसकर बड़े प्रेम से खाता था। 
  खैर, मायके के दिन तो हर औरत याद करती ही है लेकिन आम के साथ यादें हर किसी की भी जुड़ी होती हैं। कोई दादी नानी के आचार या चटनी को याद करता है तो कोई आम के पेड़ से कैरी तोड़ने को याद करता है, किसी को आम चुराने का किस्सा याद आता है तो किसी को पेड़ से गिरना और माली का डंडा भी याद आ जाता है।
  
      चूंकि सभी साथ में आम का आनंद ले रहे थे तो आम की चर्चा होना भी आम बात ही है। वैसे तो आम का फल खाते हुए किसी को फुर्सत नहीं होती कि कोई इतना भी सोचे कि यह किस प्रजाति या किस किस्म का आम है, क्योंकि लोगों को तो बस आम के नाम से ही मोहब्बत है। आम 'बस पका हो और मीठा हो ' बस इतने में ही संतुष्ट हो जाते हैं लेकिन कुछ लोग तो आम के हर प्रकार के नाम और स्वाद को उत्सुकता से लेते हैं और उन्हीं में से कुछ हमारे साथ भी थे क्योंकि जब बनारसी लंगड़ा आम परोसा गया तो पूछा गया कि इसे लंगड़ा क्यों कहा जाता है?? तो बस आज का लेख उन्हीं कुछ आमरसिया पर जो आम का स्वाद आम के नाम और खूबी के साथ दुगुनी करने के इच्छुक हैं। 

       अनगिनत किस्से, अदभुत स्वाद और1400 से अधिक किस्म होने के साथ ही तो आम को फलों का राजा होने का गौरव प्राप्त है। 200 से 250 प्रजातियां तो कृषि विशेषज्ञ या किसान भाइयों को पता होंगी ही लेकिन आम लोगों को तो 10 से15 प्रकार आम के बारे में ही पता हैं क्योंकि ये बहुत प्रचलित हैंं और प्रसिद्ध भी। आम केवल भारत का ही नहीं अपितु पाकिस्तान और फिलीपींस का भी राष्ट्रीय फल आम ही है हालांकि विश्व का सबसे बड़ा आम का उत्पादक देश भारत है और हमारे देश भारत के बाद चीन, मैक्सिको, थाइलैंड और पाकिस्तान भी आम के उत्पादक देश हैं।

    भारत केे प्रसिद्ध आम को रोचक जानकारी के साथ पढ़ते हैं और इस फल की मिठास को दोगुना करते हैं।

हाफूस/हापुस/अलफांसो आम

   हालांकि आम की बहुत सी किस्म हैं जो भारत से लेकर विश्व बाजार में बहुत मांग पर है और हर किस्म के बारे में बताना मेरे लिए भी कठिन है लेकिन हर प्रकार का आम हर जगह उपलब्ध भी नहीं होता है, जैसे महाराष्ट्र के रत्नागिरी का आम अलफांसो जिसे हाफूस कहा जाता है। हाफूस को सबसे उन्नत किस्म का आम माना गया है।कर्नाटक और गुजरात के कुछ हिस्सों में भी यह आम पैदा होता है और सबसे अधिक निर्यात भी यही आम किया जाता है। केवल यूरोपीय देशों में ही 200 करोड़ का अल्फांसो आम निर्यात होता है। 
    बिना रेशे वाला, सुनहरे पीले रंग का गुदा लिए बहुत ही रसीले यह आम पकने के हफ्ते भर बाद भी सड़ता नहीं है। इस का वजन 150 ग्राम से 300 ग्राम तक होता है। 
   आम की श्रेणी में सबसे महंगा आम है, हापुस। शायद यही आम है जो बाजार में 1000 रुपए दर्जन के हिसाब से भी बिकता है हालांकि अन्य प्रदेशों की स्थानीय मंडियों से थोड़ा गायब ही रहता है। कारण शायद इसका कीमती होना या फिर सीधे निर्यात होना लेकिन आजकल ऑनलाइन माध्यम का विकल्प शायद इसे सभी तक पहुंचा दे। अंग्रेजी में हाफूस आम को अलफांसो के नाम से जाना जाता है। 
अल्फांसो एक पुर्तगाली सैनिक की भारत को देन है. ऐसा माना जाता है कि 'अल्फानसो दी अलबुकर्क' नामक एक पुर्तगाली सैनिक था जिसे बागवानी का बहुत शौक था। अलफांसो ने गोवा में एक पौधे पर आम की कई किस्मों को ग्राफ्टिंग के जरिये उगाने की कोशिश की थी और उसी ग्राफ्टिंग के पेड़ से यह रसीला आम मिला जिसे अल्फांसो का नाम दिया गया।


  बनारसी लंगड़ा आम

    गजब का मीठा और अलग ही खुशबू वाला आम पकने पर भी बाहर से हरा ही मिलेगा। बस ये मान लीजिए कि जिस जगह पर जिस आम की उत्पत्ति हुई उस आम का नाम वही पड़ गया। बनारसी लंगड़ा आम की उत्पत्ति भी बनारस शहर में हुई। बनारस के एक गांव चिरईगांव में इस आम की सबसे अधिक पैदावार होती है। यह आम छोटी गुठली, भरपूर रेशेदार गुदा और अपनी मिठास के लिए प्रसिद्ध है किंतु फिर भी इसे लंगड़ा कहा जाता है जिसके पीछे भी एक कहानी है।
  कहा जाता है कि लगभग ढाई सौ साल पहले बनारस के एक शिव मंदिर में एक साधु आए थे जिनके पास आम के दो पौधे थे। मंदिर के पुजारी के आग्रह पर वह साधु कुछ दिन वहीं ठहर गए और उस साधु ने मंदिर परिसर के पीछे आम के पौधे रोप दिए। साधु ने जाते समय पुजारी को उस पेड़ की देखभाल करने और उसका पहला फल शिवजी और गांव में काटकर बाटने के लिए कहा।पुजारी ने उस पेड़ की देखभाल की और ठीक वैसा ही किया। जब उस आम का स्वाद लिया तो अन्य आम से अलग पाया। पुजारी ने हमेशा गुठली हटाकर आम को काटकर दिया, लेकिन बनारस के राजा के अनुरोध पर इस संपूर्ण आम को भेंट कर दिया और फिर राजा ने आम की पौध लगा ली। उस मंदिर के पुजारी लंगड़े थे तो बस पूरे बनारस में लंगड़े पुजारी के आम प्रसिद्ध हो गए। तभी से इस अनूठे आम का नाम लंगड़ा आम हो गया।  

चौसा आम

    चमकदार पीले सुनहरे रंग में जो आम आधी जुलाई के बाद आता है, वह चौसा आम है। 
रेशरहित गुदा और खाने में स्वादिष्ट आम की उत्पत्ति उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले को मानते हैं लेकिन इस आम का नाम बिहार के चौसा जगह के नाम पर है। सोलहवीं सदी में शेरशाह सूरी ने इस आम का परिचय तब कराया था जब वह बिहार के चौसा में हुमायूं ने युद्ध जीता था। कहते हैं कि प्रसिद्ध शायर मिर्ज़ा ग़ालिब के लिए भी यही आम सबसे प्रिय था। 

   मिर्जा गालिब भी शेर ओ शायरी के साथ आम के भी रसिया थे। उन्हीं से संबंधित एक किस्सा बड़ा प्रसिद्ध है। मिर्जा गालिब के एक मित्र थे हकीम रजी उद्दीन खान।हकीम रजी उद्दीन खान को आम अधिक पसंद नहीं थे लेकिन वे जानते थे कि गालिब आम के बड़े शौकीन हैं। एक दिन हकीम साहब मिर्जा गालिब के घर इनके बरामदे में बैठे थे और दोनों दोस्त आपस में बात कर रहे थे। वहीं पास में आम के छिलके पड़े हुए थे और उसी जगह एक गधा वहां से गुजरा। गधे ने आम को सूंघा और बिना किसी हरकत के आगे बढ़ गया। बस हकीम रजी को गालिब साहब को छेड़ने का मौका मिल गया और बोल पड़े, देखिए, आम को तो गधा भी नहीं खाता। इस पर गालिब साहब कहां चुप बैठते, हाजिरजवाब गालिब भी तपाक से बोले- 'बेशक गधा आम नहीं खाता।‘


दशहरी आम

     दशहरी आम उत्तरप्रदेश ही क्या बहुत से लोगों की पहली पसंद है जो मई से जून तक भरपूर मात्रा में मिलती है। उत्तरप्रदेश के मलिहाबाद के दशहरी आम तो विश्‍व प्रसिद्ध हैं। हरे पीले रंग में रेशेदार गुदे के साथ गजब का अनूठा स्वाद और मनभावन खुशबू वाले इस आम की उत्पत्ति लखनऊ के काकोरी स्टेशन के पास बसे दशहरी गांव की है, इसीलिए इस प्रजाति को दशहरी आम कहा जाता है। लंगड़ा आम के बाद इसी आम की मिठास सबसे अधिक मानी जाती है। कहते हैं कि जिस पेड़ पर पहला आम आया वो पेड़ आज भी है और इस 200 साल पुराने पेड़ को 'मदर ऑफ मैंगो ट्री' से जाना जाता है।
    मैंने एक लेख में पढ़ा था कि अवध के नवाब ने जब उस पेड़ के फल खाए, तो उन्हें इसका स्वाद बहुत भाया और उन्होंने इसके और भी पेड़ लगवाए। एतिहासिक दशहरी के पेड़ को लगाने का श्रेय नवाब मोहम्‍मद अंसार अली को जाता है. आज भी उनके परिवार के वशंज इस पेड़ के मालिक हैं. आज भी जब पेड़ पर आम आते हैं तो सबसे पहले नवाब अंसार अली के परिवार को ही भेजा जाता है.
   खैर, अवध में तो अरहर की दाल में भी आम खटाई के तौर पर डाला जाता है। कहते हैं कि 
दाल अरहर की, खटाई आम की, तोले भर घी, रसोई राम की।
       आम के मौसम में आम चोरी से बचाने के लिए नवाब और उनके खानदान वाले आम और पेड़ को ढक देते थे। अवध के नवाबों और उनका खानदान दशहरी आम पर अपना हक समझता था। इसीलिए दशहरी आम किसी को तोहफे में भेजने पर उन आमों पर आर-पार छेद कर दिया जाता था जिससे कि कोई अन्य उसकी गुठली से दशहरी आम का पेड़ न उगा पाए। लेकिन आम तो खास है जिसकी ललक सभी को होती है इसीलिए मलीहाबाद के एक पठान जमींदार ईसा खान ने नवाबों के बाग के माली को साथ में मिलाकर एक पौधा हासिल कर ही लिया और फिर बस दशहरी आम नवाबों की बंदिशों से छूटकर मलिहाबाद का राजा बन गया। 


बायगनपल्‍ली/आम सफेदा

     अप्रैल से ही एक आम जो मंडियों में दिखाई देने लगता है जिसे हम लोग काटकर खाना पसंद करते हैं या फिर शेक बना कर पीते हैं। 
ये वही बैगनपल्ली आम है, जो देखने में अलफांसो की भांति ही होता है इसीलिए इसे अलफांसो का जुड़वा भी कहते हैं लेकिन बस इस आम में छोटे काले धब्बे होते हैं। अंडाकार का यह आम आकार में भी बड़ा होता है और पीले सफेद रंग में रेशा रहित गुदा होता है। दक्षिण भारत में आंध्र प्रदेश के कुरनूर ज़िले में बांगनापल्‍ले जिले के शाही परिवार बंगनपल्ली ने ही इस आम का स्वाद चखाया था। दक्षिण भारतीय तो इसके छिलके को भी बाहर फेंकने के बजाए खाना ही पसंद करते हैं। 
   सफेदा आम यहां उत्तराखंड में भी सबसे पहले मिलने वाला आम है, जिसे हम लोग भी अधिकतर मैंगो शेक बनाने में ही इच्छुक होते हैं क्योंकि यह आम बहुत बार खट्टा मीठा स्वाद लिए आता है कारण शायद व्यवसायिक लाभ के लिए कई बार इसे समय से पहले ही तोड़ कर इसे मंडियों में भेजा जाने लगता है। 


 मालदा / फजली आम 

     फजली आम देर से पकने वाली प्रजाति है इसलिए यह आम जुलाई के बाद तक ही मिल पाता है। यह भी वजनी आम है जो आकार में बड़े और वजन में भी 500 से लेकर 1500 ग्राम तक होते हैं। पकने पर यह आम भी हल्के हरे रंग में ही रहता है और गुदा बिलकुल मीठा रहता है। 
    Pic courtesy from Google

फजली नाम का कारण यह है कि बिहार राज्य के भागलपुर जिला के एक गांव में फजली नाम की एक महिला रहती थी। उसी के घर के एक पेड़ में आम बहुत समय के बाद पके जिनका स्वाद अन्य आम से अलग था। चूंकि इस किस्म का आम फजली के पेड़ पर पैदा हुआ था इसलिए आम की इस विशेष किस्म का नाम फजली आम हो गया। वैसे यह आम पश्चिम बंगाल के मालदा का मुख्य आम है। फजली आम का उत्पादन बिहार, उत्तरप्रदेश के साथ बंगाल में महानंदा और कालिंदी नदी के किनारे के इलाकों मे अधिक होता है। 
   फल कब तोड़ना है उसमें तोड़ना है उसके लिए भी यही पेड़ संकेत देता है जैसे कि जब पेड़ से अपने आप एक दो आम गिर जाएं तो समझ जाएं कि फल तैयार है। 
   कहा जाता है कि एक फजली आम पूरा खाना कठिन होता है, लेकिन ऐसा भी कोई होगा जो एक आम को अधूरा छोड़ दे!! 


हाथीझूल आम

      जैसा कि नाम से ही पता चल जाता है की यह आम हाथी की भांति ही विशाल आम होगा। फजली से भी अधिक वजनी है हाथीझूल आम क्योंकि इसका वजन 3.5 किलोग्राम तक होता है। सहारनपुर में मिलने वाला एक हाथीझूल आम दुनिया का सबसे भारी आम है। 
  इसके नाम के लिए कहा जाता है कि सहारनपुर के एक किसान ने जब इस विशाल आम को पेड़ पर लटकते हुएदेखा तो कहा कि ऐसा लग रहा है कि पेड़ पर हाथी झूल रहा है बस तभी से इस आम को हाथीझूल आम का नाम मिल गया।
      ऐसे ही आम की कई प्रजातियां हैं जो बहुत प्रसिद्ध हैं जैसे तोतापुरी आम जो आकार में तोता पक्षी की चोंच और रंग में भी तोता पक्षी की भांति होता है। यह दक्षिण भारत बैंगलौर का आम है जो स्वाद में खट्टापन लिए होता है। यह आम मुख्यत सलाद, आचार और चटनी में विशेष रूप से लाया जाता है।
    एक प्रजाति हिमसागर आम की है जो खाने में खूब मीठा होता है। यह आम भी बाहर से हल्का हरा लेकिन अंदर से पीला होता है। यह पश्चिम बंगाल और उड़ीसा का एक प्रचलित आम है।
    आम की एक और महंगी किस्म है केसर आम। जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि इसका गुदा केसर जैसे रंग में दिखता है इसीलिए इसे केसर आम कहते हैं। विशेषत: गुजरात और उसके आसपास इसकी खेती की जाती है। इस प्रजाति की खेती पहली बार जूनागढ़ के नवाबों द्वारा की गई थी और उन्होंने ही 1934 में इसे केसर नाम दिया गया था।
   माना जाता है कि आम में शर्करा की मात्रा काफी अधिक होती है लेकिन एक आम ऐसा भी है जिससे शुगर का स्तर नहीं बढ़ता और वो आम है लक्ष्मणभोग आम। मधुमेह के रोगी भी इस आम का मीठा रसीला स्वाद ले सकते हैं वो भी शरीर की शर्करा को नियंत्रण में रखकर।
     बिहार की पहचान बन चुका जरदालू आम भी किसी से कम नहीं है। पीले नारंगी रंग का यह आम रेशाहीन और लालिमा लिए होता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी तो 2007 से जर्दालू आम को न्यायधीश से लेकर राष्ट्रपति तक को इन आम की सौगात भेट करते हैं।

   और भी बहुत सारे आम है जो अपने स्तर पर बहुत प्रसिद्ध हैं जैसे लाल रंग में अंडेनुमा सिंधुरा आम है, महाराष्ट्र में पायरी नाम से जानने वाला दक्षिण भारत का रसीला रसपुरी आम है, मक्खन जैसे गुदा वाले बादामी आम है, आकर में छोटा और खुशबू वाला नीलम आम है, नीलम और दशेरी के संकरण से बना मल्लिका आम है, लखनऊ का प्रसिद्ध चूसकर खाने वाला छोटा डिंगा आम है और भी कई प्रजातियां हैं जिसके बारे में लिखना मेरे लिए कठिन कार्य है लेकिन इतनी संतुष्टि तो है कि भले ही अब किसी भी प्रजाति का आम खाया जाएगा, उसके मिठास का स्वाद उसकी जानकारी के साथ दुगना हो जाएगा।     

     जैसे राम का नाम बार बार लेने में आनंद आता है ठीक उसी प्रकार से कभी फिर मौका मिलेगा तो इस मिठास को फिर से लिखूंगी क्योंकि मुझे तो यही लगता है कि,...

सबसे मीठा राम का नाम उसके बाद तो बस आम ही आम
    
  
एक - Naari














Comments

  1. Waah,, maza a gaya....sach mei aam ka maza double ho gaya

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  2. Waaha आम ka nam sunkar hi maza aagya. Maza aa gaya

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  3. Nice narrative of King of fruits

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