थोड़ा कुमाऊँ घूम आते हैं...भाग-2

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थोड़ा कुमाऊँ घूम आते हैं...भाग- 2   पिछले लेख में हम हरिद्वार स्थित चंडी देवी के दर्शन करके आगे बढ़ रहे थे यानी कि उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल से अब कुमाऊँ मंडल की सीमाओं में प्रवेश कर रहे थे बता दें कि उत्तराखंड के इस एक मंडल को दूसरे से जोड़ने के लिए बीच में उत्तर प्रदेश की सीमाओं को भी छूना पड़ता है इसलिए आपको अपने आप बोली भाषा या भूगोल या वातावरण की विविधताओं का ज्ञान होता रहेगा।     कुमाऊँ में अल्मोडा, नैनीताल, रानीखेत, मुक्तेश्वर, काशीपुर, रुद्रपुर, पिथौरागढ, पंत नगर, हल्दवानी जैसे बहुत से प्रसिद्ध स्थान हैं लेकिन इस बार हम केवल नैनीताल नगर और नैनीताल जिले में स्थित बाबा नीम करौली के दर्शन करेंगे और साथ ही जिम कार्बेट की सफ़ारी का अनुभव लेंगे।   225 किलोमीटर का सफर हमें लगभग पांच से साढ़े पांच घंटों में पूरा करना था जिसमें दो बच्चों के साथ दो ब्रेक लेने ही थे। अब जैसे जैसे हम आगे बढ़ रहे थे वैसे वैसे बच्चे भी अपनी आपसी खींचतान में थोड़ा ढ़ीले पड़ रहे थे। इसलिए बच्चों की खींचतान से राहत मिलते ही कभी कभी मैं पुरानी यादों के सफर में भी घूम रही थी।     कुमाऊँ की मेरी ये तीसर

चेतावनी...(प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदा)

   

     पहाड़ यूं ही नहीं बनें है, इनकों बनने में समय लगता है। ये एक ऐसी भूवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसमें वर्षों लग जाते हैं। पृथ्वी के अंदर तो हलचल होती ही रहती है, कभी ज्वालामुखी से तो कभी पृथ्वी की प्लेटों के आपस के टकराव से ही पहाड़ बनते हैं। ये सभी कारक मिलकर पहाड़ को कई फीट ऊँचा तो बना देते हैं लेकिन मौसम और आसपास की जलवायु के कारणों से इनकी ऊँचाईयां घटती भी है।
   हम तो अपनी आम जिंदगी में यही मानते हैं कि जो शक्तिशाली हो, कठिन हो, स्थिर हो, विशाल और भारी हो पहाड़ है। तभी तो हम अपनी दिनचर्या में भी कितनी बार पहाड़ की संज्ञा दे देते हैं, जैसे, पहाड़ टूटना, पहाड़ उठाना, पहाड़ से टक्कर लेना, पहाड़ खोदना इत्यादि। अब जब हमें ये पता है कि पहाड़ अपने आप में कितना जटिल और कठिन है तब हमें यह भी मानना होगा कि इन पहाड़ों पर रहने वाले लोगों का जीवन कितना कठिन होता होगा। पहले तो चुनौती सिर्फ जीवनयापन के लिए होती थी लेकिन आज के समय में ये लोग तो जीवनरक्षा का जोखिम भी उठाय हुए हैं।
यहाँ के लोगों के लिए जीवन सच में पहाड़ जैसा कठिन ही है। कभी भूस्खलन, कभी अतिवृष्टि, कभी बाढ़ तो कभी बादल फटने जैसी घटनाएं कभी भी हो जाती हैं। इसी 7 फरवरी को उत्तराखंड के चमोली जिले में हुई दुर्घटना को हम क्या कहेंगें? ये भी तो आपदा ही थी। कहा गया कि जोशीमठ में ग्लेशियर टूटा जिससे नदी ने आक्रामक रूप ले लिया। उसकी आक्रमकता इतनी भयंकर थी कि जो हाइड्रो प्रोजेक्ट चल रहे थे उन बांधों का तो पता निकालना ही मुश्किल है। सब नष्ट हो चुके हैं, सभी प्राकृतिक आपदा की भेंट चढ़ चुके हैं। ऋषिगंगा हाइड्रो प्रोजेक्ट की आपदा में लगभग 200 से अधिक लोगों का कुछ पता नहीं चल पाया है। मलबे में दबे और पानी में बहे बहुत से लोगों का अभी भी कुछ पता नहीं चल पाया है। किसी के घर का इकलौता चिराग बुझ गया तो किसी के घर का अकेला कमाने वाला प्राणी तो कहीं बहनों का इकलौता भाई इस आपदा में जान गवां चुका है। इस मलबे में लोग गायब हैं, पानी में शव कहाँ से कहाँ तैर गए कुछ पता नहीं। कुछ शव तो कुछ मानव अंगों के साथ ही लापता लोगों के मिलने की आस भी खत्म होती जा रही है।
      वैसे तो किसी की भी जिंदगी का कुछ भरोसा नहीं है, लेकिन जो लोग पहाड़ों पर रह रहे हैं और काम कर रहे हैं उनके लिए तो यहाँ रहना सच में जान हथेली में लेना ही है। कब क्या हो जाए कुछ पता नहीं। कभी तो लगता है कि ये प्राकृतिक आपदा नहीं हैं, ये मानव निर्मित आपदाएं है। ऐसा लगता है कि हम प्रकृति को चुनौती दे रहे हैं, हम नवीन तकनीक लाकर अपनी सुविधाओं का बंदोबस्त तो कर रहे हैं लेकिन साथ में प्राकृतिक संपदाओं का ह्रास भी कर रहे है।
    जब भी कभी इस प्रकार की आपदा आती है तो हम तुम आपस में ही मामला शांत कर देते हैं कि,,,क्या करें, ये तो दैवीय आपदा है या ये प्राकृतिक आपदा है! लेकिन मैं तो ऐसी आपदाओं का दोषी प्रकृति नहीं अपितु हम तुम लोगों को ही मानती हूँ। हम यह क्यों नहीं मान लेते कि परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से प्रकृति अपने नुकसान की भरपाई इसी प्रकार से करती है।  बिजली हमें चाहिए, सड़क हमें चाहिए, पानी का स्रोत चाहिए, घर चाहिए, आधुनिक सुख सुविधायें चाहिए, नवीनीकरण चाहिए और वह सभी चीजें चाहिए जो हमारे जीवन को सरल बनाय लेकिन क्या कभी यह भी सोचा है कि यह सब कुछ हमें किससे मिलता है?? कहने को तो तकनीकी और मानवीय स्रोतों से हमें सब मिल रहा है और साथ ही साथ नये नये प्रयोग भी हो ही रहे हैं लेकिन हम ये क्यों अनदेखा कर रहे हैं कि इन सभी विकास के लिए हम अपनी प्रकृति का दोहन भी कर रहे हैं।
   मुझे याद आता है कि हमनें अपनी कक्षा में खाद्य श्रंखला और पारिस्थितिकी तंत्र (food chain & ecosystem) पढ़ा था, जिसमें  कोई भी जीव भोजन के लिए सदैव किसी दूसरे जीव पर निर्भर होता है।
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सभी जीव भोजन के लिए वनस्पतियों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर होते हैं। उसी आधार पर जंतु जाति का वातावरण के साथ अनुकूलन बन पाता है और सभी एक दूसरे के साथ एक तंत्र के रूप में जुड़े होते हैं। उसी की भाँति पहाड़ की जलवायु में भी एक तंत्र तो काम करता ही है जिसमें वहाँ की वनस्पति, मिट्टी, पेड़, नदी, जंतु सभी आपस में एक दूसरे से जुड़े होते हैं, इनका अगर कहीँ से भी किसी प्रकार से असंतुलन होता है तो यहाँ के पहाड़ों पर भी इसका प्रभाव तो पड़ेगा ही। फिर भले ही ये हमारे सामने कभी अतिवृष्टि, बाढ़ या भूस्खलन के रूप में हमारे सामने आये और यही हो भी रहा है। बिजली के लिए बांध बने, यातायात के लिए सड़कें बनी, सुविधाओं के नाम पर जंगल कटे, अब जब इतना सब कुछ चल रहा है तो क्या पहाड़ में पारिस्थितिकी तंत्र सही कार्य करेगा?? चलिए ये सभी काम तो पहाड़ पर हो रहे हैं तो इनका सीधा प्रभाव तो पहाड़ों और पर्वतों पर दिखाई दे रहा है लेकिन जो कार्य मैदानी क्षेत्रों में हो रहे हैं वे भी उतने ही जिम्मेदार है क्योंकि अंधाधुंध प्रदूषण से जलवायु में निरंतर परिवर्तन हो रहा है।       
     'ग्लोबल वार्मिंग' तो सबको पता ही है, इसके कारण हमारे ग्लेशियर का तापमान भी बढ़ रहा है और हमारे ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। कुछ वैज्ञानिक जो देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीटयूट और आईआईटी कानपुर से हैं इस विषय पर शोध कर रहे हैं और यह अनुमान लगा रहे हैं कि अगर ऐसी ही स्थिति रही तो ग्लोबल वार्मिंग की वजह से सदी के अंत तक हिमालय के एक तिहाई ग्लेशि‍यर खत्म हो जाएंगे जो एक चिंता का विषय है।
     हिमालय तो वैसे ही बहुत संवेदनशील है और उस पर इसके आसपास के क्षेत्रों में इतनी हलचल खतरे का घंटी है। इन्हीं वैज्ञानिकों ने अध्ययन से बताया था कि 1980 से लेकर 2017 के बीच नंदादेवी क्षेत्र जहाँ से पानी का सैलाब आया वहाँ का करीब 26 वर्ग किलोमीटर एरिया यानी दस फीसदी ग्लेशियर का हिस्सा तो पिघल चुका है। यह एक प्रकार की चेतावनी है कि भविष्य में भी इस प्रकार की आपदाएं आ सकती हैं। चमोली के क्षेत्र में आई आपदा का कारण चाहे भूस्खलन हो या झील का बनना लेकिन इसका प्रमुख कारण तो पर्यावरण में असंतुलन ही है और इसके कारण सिर्फ हिमालय ही नहीं अपितु दुनिया भर के ग्लेशियर पर भी प्रभाव पड़ा है।
      हम और हमारे भाई बंधु भी इसी हिमालय क्षेत्र के आसपास अपना जीवन जी रहे हैं।  विकास के नाम पर प्रकृति के साथ इतना छेड़छाड़ बहुत भारी है और इसका सबसे पहले प्रभाव तो पहाड़ पर बसे लोगों पर पड़ रहा है। हमें विकास के साथ सुविधा तो चाहिए लेकिन अपनी प्रकृति और अपने भाई बंधुओं की जान के बदले नहीं।
   भले ही इस घटना को ,10 दिन से अधिक समय हो चुका है और जैसे जैसे समय आगे बढ़ता है, हम लोग भी समय के साथ आगे बढ़ते रहते हैं और एक समय के बाद ऐसी घटनाओं को भूल जाते हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस प्रकार की त्रासदी में पहाड़ के साथ साथ बहुतों का जीवन भी उजड़ जाता है। पहाड़ जब तक शांत है तब तक स्थिर है और तभी तक उसमें जीव भी सुरक्षित है अगर बाहरी कारकों द्वारा कुछ हलचल पैदा होती है तो यही शांत और स्थिर दिखने वाले पहाड़ कब अपनी चट्टानें, पत्थर, ग्लेशियर, मलबा, झील, पेड़ गिराने लग जाए हमें पता भी नहीं चलेगा और हम लोग एक बार पुन: प्राकृतिक आपदा समझकर अफसोस करते रह जायेंगें। इसीलिए अफसोस से पहले चेतावनी की चेतना अति आवश्यक है और इसके लिए पर्यावरणविदों के साथ हमें भी एक राय बनानी होगी और नियम कानून के साथ सरकार और प्रशासन को भी इस गंभीर विषय पर सोचना होगा क्योंकि 2013 में आई केदारनाथ आपदा के बाद भी हमनें शायद सबक नहीं सीखा है जबकि सुप्रीम कोर्ट में सौंपी एक रिपोर्ट में उत्‍तराखंड में आपदाओं को लेकर पहले ही चेतावनी दे दी गई थी। 

एक - Naari

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