चूरमा Mothers Day Special Short Story

Image
Mother's Day Special... Short Story (लघु कथा) चूरमा... क्या बात है यशोदा मौसी,, कल सुबह तो पापड़ सुखा रही थी और आज सुबह निम्बू का अचार भी बना कर तैयार कर दिया तुमने। अपनी झोली को भी कैरी से भर रखा है क्या?? लगता है अब तुम आम पन्ना की तैयारी कर रही हो?? (गीता ने अपने आंगन की दीवार से झाँकते हुए कहा)  यशोदा ने मुस्कुराते हुए गर्दन हिलाई । लेकिन मौसी आज तो मंगलवार है। आज तो घर से चूरमे की मीठी मीठी महक आनी चाहिए और तुम कैरी के व्यंजन बना रही हो। लगता है तुम भूल गई हो कि आज सत्संग का दिन है। अरे नहीं-नहीं, सब याद है मुझे।   तो फिर!! अकेली जान के लिए इतना सारा अचार-पापड़। लगता है आज शाम के सत्संग में आपके हाथ का बना स्वादिष्ट चूरमा नहीं यही अचार और पापड़ मिलेगे। धत्त पगली! "चूरमा नहीं,,,मेरे गोपाल का भोग!!" और सुन आज मै न जा पाउंगी सत्संग में।  क्या हुआ  मौसी?? सब खैरियत तो है। इतने बरसों में आपने कभी भी मंगल का सत्संग नहीं छोड़ा और न ही चूरमे का भोग। सब ठीक तो है न??   सब खैरियत से है गीता रानी, आज तो मै और भी ठीक हो गई हूँ। (यशोदा तो जैसे आज नई ऊर्जा से भर गई थी, ...

क्रिसमस पर हर्षिल (मिनी स्विजेरलैंड) की यात्रा का अनुभव (भाग - २)Experience of Harshil (Mini Switzerland) visit on Christmas (part 2)

पिछले लेख में मैंनें अपनी हर्षिल तक पहुँचने का वर्णन किया था और ये भी कहा था कि असली हर्षिल तो देखना अभी बाकी है। इसीलिए अब आगे बढ़ते हैं कि क्या था हर्षिल में जो हम इतनी दूर चले आये।।।। 

   थकान के कारण काफी देर के बाद नींद आयी थी। इसीलिए बेसुध होकर सो रही थी। अचानक से खिड़की की ओर से कुछ शोर सुनाई दिया, खिड़की पीटने का सा और नींद टूट गई। खिड़की की ओर देखा तो  रोशनी आ रही थी और साथ ही साथ विकास की आवाज भी, " जल्दी बाहर आओ" बस इतना बोलना हुआ कि बच्चे भी उठ गए और खिड़की की ओर चल पड़े। सुस्ताते हुए सोचा कि अब विकास को क्या मिल गया है यहाँ!! तभी तन्नु भी चिल्लाई,"वाऊ " बस उसका 'वाऊ' काफी था मुझे अपनी गर्म रजाई छोड़ने के लिए। खिड़की से बाहर झांका तो विकास और मन्नु दोनों गेस्ट हाउस में टहल रहे थे। सामने से बर्फ से ढ़के पहाड़ दिख रहे थे और सुबह सुबह उस दृश्य को देखने से ही मेरा पूरा दिन बन गया। अभी सिर्फ खिड़की से ही निहार रही थी कि मेरे दोनों बच्चें भी मुझे बाहर नज़र आ गए। 


   उन्हें तो सिर्फ बर्फ से मतलब था, क्योंकि 'स्नोमैन' जो बनाना था। बस जल्दी से टोपा, मोजा, दस्ताने, जैकेट सब कुछ पहना दिया और मेरे अपने बच्चेे मुझे स्नोमैन जैसे दिखाई दे रहे थे। अब बच्चेे अपने पिता जी के हवाले कर दिये गए क्योंकि आखिर कुछ मौका तो मुझे भी मिलना चाहिए इस आनंद को पाने का। अब अपने को रोक नहीं पाई और कमरे के बाहर आ गई।
   बाहर का नज़ारा अब भी आँखों के सामने घूम रहा है, GMVN के गेस्ट हाउस के आंगन में बर्फ जमी हुई थी। और सामने पहाड़ों पर भी, देवदार के वन उसके नीचे हवा से ठिठुर रहे थे, लेकिन मेरा मन ये देखकर नाच रहा था। संभल कर आगे बढ़ी तो देखा कि वही भागीरथी जो रास्ते भर आँख मिचोली कर रही थी, वो अब बिल्कुल नीचे इठलाते हुए लेकिन शांत तरीके से बह रही थी। वाह! इससे सुंदर सुबह शायद ही मैंनें अपने जीवन में कभी देखी हो। ऐसा लग रहा था कि प्रकृति का पूरा यौवन शायद मैंनें इसी सुबह में देख लिया हो। ये दृश्य तो सिर्फ मेरी आँखों के सामने का था, जब बांयी और दांयी तरफ नज़र दौड़ाई तो भी वही मनमोहक पहाड़ मुझे दूर से ही अपनी ओर बुला रहे थे। ये क्षण किसी स्वर्ग को देखने से कम नहीं था।
   अरे! ये क्या, अगले ही क्षण मेरे सभी साथी सिर्फ तन्नु को छोड़कर नदी के पास तट पर टहलते हुए दिखाई दिये। सुबह की बर्फ़ीली ठंड तो थी, और शीतलहर भी चल रही थी, इसलिए थोड़ा अपने शरीर का भी ध्यान रखते हुए फिर से कमरे में जाना ही मुनासिब समझा। उसके बाद हम दोनों ने भी अपने आप को इस ठंड में तैयार कर नदी के पास जाने की तैयारी कर ही ली। नीचे उतर कर बड़े ही संभल-संभल कर पैर रखने पड़ रहे थे, क्योंकि आपको तो पता होगा कि यहाँ जो नदी के किनारे पत्थर मिलते हैं वो गोल, अंडाकार और कुछ चिकने भी होते हैं, इन पत्थरों पर सावधानी के साथ आगे बढ़ना हो रहा था क्योंकि वहाँ पर पत्थरों के बीच में भी बर्फ जमी हुई थी।
       अब जब से एंड्रॉयड फोन आये हैं तब से कैमरे की सुविधा ने सभी को फोटोग्राफर भी बना दिया है। मुझे लगता है बड़े-बड़े लेंस वाले कैमरे का कार्य कुछ कम हो गया है, और आप भी हमारी तरह पिक्चर प्रेमी तो होंगें ही।

हर्षिल की खूबसूरती को हमेशा के लिए कैद करना भला कौन नहीं चाहता होगा सो हमने भी वही किया। जबसे यात्रा आरंभ की थी तब से 24 घंटे बीत चुके थे और इन 24 घंटों में मैंनें बहुत कुछ सोचा भी और किया भी। लेकिन इस क्षण में मैं सोचना, समझना, करना कुछ नहीं चाह रही थी। ये एक ऐसा क्षण था जब मैं अपने आप को बहुत ही हल्का महसूस कर रही थी। उन पहाड़ियों के बीच उड़ना चाह रही थी। रास्ते की थकान तो सो कर खत्म हो चुकी थी। अब तो मैं आजाद और मुक्त हो रही थी अपनी चिंताओं और शंकाओं से भी।। वाह। वो बहुत ही अच्छी वाली भावनाएं थी। मैं अपनी दुनिया में खोयी हुई थी कि तभी फिर से आवाज आई, "माँ! सुनो, मछली वाला काँटा दो मैं फ़िशिंग करूँगा??
        ओह हो! आपको तो ये बताना भूल ही गई कि बच्चों के स्नोमैन बनाने के साथ साथ, दो और भी जरूरी कार्य थे जो उनकी 'वर्क टू  डू लिस्ट' में थे। पहला तो स्नोमैन बनाने के साथ स्कीइंग करना और दूसरा मछली पकड़ने का। फ़िशिंग करने के लिए तो रजोरा सर ने मछली पकड़ने का काँटा भी रख लिया था। वैसे तो भागीरथी नदी में ट्राउट मछली पाई जाती हैं, और सुना ये भी था कि यहाँ एक ताल में रंगीन मछलियां भी रहती हैं लेकिन अभी सुबह मछली पकड़ना संभव नहीं था। सो अपने गेस्ट हाउस वापस लौट गए।
    सभी सुबह के अपने अपने काम में व्यस्त थे और अब ठंड में भूख भी लग रही थी और देखते ही देखते सूरज देव भी अपनी रोशनी बिखेरते हुए दिख ही गए। इस घाटी की एक खासियत ये भी है कि यहाँ सुबह शाम चाहे कितना भी ठंडा हो, दिन में धूप आ ही जाती है।
   नाश्ते का प्रबंध भी हो ही रहा था और हम बड़े आराम से आंगन में धूप सेंकने लगे। जिया और जय वहाँ पड़ी बर्फ के साथ खेल रहे थे, तन्नु मन्नु अपना अलग फोन पर जमे हुए थे और विकास GMVN के कर्मचारियों के साथ बातचीत में व्यस्त थे। बस हमारी पलटन का एक सदस्य गायब था और वो थे रजोरा सर। काफी समय से सर दिखाई नहीं दिये थे। विकास भी परेशान हो गए और हम लोग भी कि आखिर सर कहाँ चले गये हैं। मन्नु पूरे गेस्ट हाउस में ढूंढ आया था लेकिन सर तो बिना बताये कहीं चले गए होंगें ऐसा सोचते हुए विकास भी उन्हें आस पास देखने चले गए। फोन तो वहाँ किसी का भी काम नहीं कर रहा था, वहाँ पर सिर्फ एक नेटवर्क ने काम ही किया और वो है जियो का। देखा, मैंनें पहले भाग में बता दिया था कि अंबानी जी ने उत्तरकाशी को ढंग से समझ लिया है।
   चलो सर की प्रतिक्षा करते करते मेरे बेटे जय ने नंगे हाथों से बर्फ पकड़ ली और अब दर्द और जलन से रोने लगा और इतने में सर भी हमारी टेबल पर प्रकट हो गए और साथ ही साथ गरमा गर्म नाश्ता भी। आपको बता दूँ कि रजोरा सर उम्र में भी और अनुभव में भी हम सभी से बहुत बड़े हैं इसीलिए अपनी सुबह की सैर के साथ ही साथ रात के ठिकाने का प्रबंध भी कर आये। मैंने आपको बताया था न कि यहाँ गढ़वाल मंडल विकास निगम में हमें सिर्फ एक रात का ठिकाना मिला था, जो मैं सुबह उठते ही भूल गई थी क्योंकि इतनी प्यारी सुबह में मैं सब चिंताओं से आजाद और मुक्त थी। 
   ठंड में भूख अधिक लगती है और जब परांठे कोई और बनाये तो शायद मेेरी जैसी महिलाएं (जो दूसरों को तो भरपेट बना के खिलायेंगी और अपने अकेले के लिए बनाने में कंजूसी करेंगीं) एक आधा अधिक ही खा लेती होंगी। इस सुबह किसी ने रसोइये पर किसी भी प्रकार का कोई रहम नहीं किया और नाश्ता खाया नहीं अपितु नाश्ता पेला। अब सोच रही हूँ और हँस भी रही हूँ कि वहाँ का 'किचन स्टाफ' भी सोच रहा होगा कि ये किस देश की भूखमरी यहाँ आ पहुंची है। जैसे ही प्लेट में परांठों के टुकड़े आते वैसे ही गायब। 
    वैसे तो मैं दिल से पूरी पहाड़न हूँ, लेकिन चाय की नहीं। पर यहाँ तो बिना अदरक वाली चाय भी मुझे गर्म अमृत लग रही थी और उन वादियों की गोद में, नीचे नदी और ऊपर चटक धूप में इस अमृत के प्याले के साथ गर्म आलू के परांठे,,,,,वाह वाह वाह!! अब मुझे सच में खुद (याद करना, गढ़वाली भाषा में) आ रही है। 

     बस अब सबने अपना सामान बाँधा और रजोरा सर के पीछे-पीछे चल दिये। अब पता चल रहा था कि हम कल जिस रास्ते से आ रहे थे वहाँ क्या-क्या था। मुख्य सड़क से गेस्ट हाउस के बीच उस संकरी सी राह में नीचे बर्फ जमकर एक सड़क ही बन गई थी इसीलिए कल हमारे पैर भी कभी कभी फिसल रहे थे। आगे चलते हुए हमें एक डाकघर भी दिख गया और इसको देखते ही फिल्म राम तेरी गंगा मैली की याद भी ताजा हो गई। जिसमें अभिनेत्री मंदाकिनी अपने परदेसी बाबू की डाक का इंतज़ार करती है। अब आपको तो पता होगा ही फिल्म राम तेरी गंगा मैली में हर्षिल की खूबसूरती को पर्दे पर दिखाया था। यहाँ बहने वाले एक झरने के नीचे अभिनेत्री मंदाकिनी पर एक गीत भी फिल्माया था, तभी से उस झरने का नाम भी मंदाकिनी झरना पड़ गया। इतने मनमोहक दूधिया झरने को भी देखने की चाह तो है ही लेकिन क्या देख पाऊंगी? इस पर संशय था।
  और आगे बढे तो तब मुझे पता चला कि हरसिल एक कैंट क्षेत्र है तभी यहाँ बहुत से सेना के ट्रक, बुलडोजर और जवान दिखाई दिये थे। सुरक्षा के मानक से यहाँ किसी भी विदेशी पर्यटक को रुकने की अनुमति नहीं है।
   सर के पीछे पीछे चलते हुए हम पहुँच गए एक सुंदर से गेस्ट हाउस में। मौसम साफ होने से धूप अच्छी खिली हुई थी और गेस्ट हाउस का पूरा आंगन साफ सुथरा चमक रहा था। अंदर पहुँचे तो खुशी का ठिकाना नहीं था। इतना आरामदायक और साफ था कि हमें अपने गंदे जूते ले जाते हुए भी सोचना पड़ रहा था। लकड़ी से बने दो बेड रूम, एक लॉबी, एक डाइनिंग हाल और छोटी सी रसोई। हाँ, बड़े बड़े बाथरूम भी। ओह हो! उन बाथरूम को सोचकर ही यहाँ बैठे बैठे ठंडा लग रहा है। (टॉयलेट तो ठीक है लेकिन ये बड़े बाथरूम पता नहीं क्यों बनाय होंगें?) कुल मिला कर उस कॉटज में हमें अपना अलग एकांत मिल गया था। वहाँ पहुँचकर ऐसा लगा कि हम अपने ही घर में पहुँच गए हैं। बता दूं उस घर का नाम था, 'विल्सन हाउस'।
    अब थोड़ी जानकारी विल्सन के बारे में भी देती हूँ। फेडरिक विल्सन जो ईस्ट इंडिया कंपनी में कर्मचारी थे उन्हें ही श्रेय दिया जाता है हर्षिल घाटी को ढूंढने का। उन्हें यहाँ के लोग और संस्कृति बहुत रास आई, यहीं पर खाल, कस्तूरी और बाद में लकड़ी का व्यापार भी किया। स्थानीय लोग उन्हें अपना राजा मानते थे। स्थानीय लोग उन्हें 'राजा हुलसन' कहते थे। (पहाड़ी लोग प्यार से उसी नाम का मिलता जुलता एक नया नाम तो दे ही देते हैं, जैसे, विल्सन का हुलसन, गौरव का गौरूब, नोएडा का नुईडा, फरीदाबाद का फर्दाबाद) विल्सन ने पहले स्थानीय युवती रायमत्ता और बाद में मुखबा गाँव की एक लड़की संग्रामी उर्फ गुलाबी से विवाह भी किया। 
 विल्सन ने यहाँ अपना बंगला भी बनाया था, जो अब जीर्ण हो चुका था और अब नये रूप 'विल्सन हाउस' के रूप में हमारे सामने था। इसे अब जंगलात वाले अपने निरीक्षण में रखते हैं और हम भी अब अपने को यहाँ ठहर कर किसी राजा से कम नहीं समझ रहे थे और साथ ही साथ ईश्वर पर विश्वास भी दुगना हो रहा था कि ईश्वर जो करते हैं अच्छे के लिए ही करते हैं।
     अब जब रहने का प्रबंध हो गया तो घूमने भी चला जाय। एक बड़ी प्लाटून वहाँ से गुजर रही थी और जय सभी से हाथ मिला कर जय हिंद बोले जा रहा था। उसके बाद हम गाड़ी में बैठकर थोड़ा आगे निकले तो आर्मी कैंप लगा हुआ था और उसी के आस पास और ऊपर पहाड़ की ढलान पर बर्फ भी जमी हुई थी जहाँ पर अन्य पर्यटक भी बर्फ का आनंद ले रहे थे। बस फिर क्या था सभी लोग उतर गए बर्फ के साथ खेलने के लिए और ये एक ऐसा क्षण था जहाँ पर हम बच्चों के माँ बाप नहीं बल्कि उन्हीं के साथी बन  गए थे। खूब मस्ती की और जिया ने तो अपना स्नो मैन भी आखिर बना ही दिया। उसकी फोटो भी साझा कर रही हूँ। अब आप चाहे तो इसे 'चुप्फली (सिर पर खड़ी छोटी सी चोटी)वाला स्नोमैन' भी बोल सकते है।    जय बर्फ से खेलने के साथ साथ फ़िशिंग भी करना चाह रहा था क्योंकि वहीं पास में पहाड़ों के बीच से एक धारा भी बह रही थी लेकिन अभी भी ऐसा करना मुश्किल ही था सो फिर से गाड़ी में बैठे और आगे चल दिये लेकिन कुछ ही दूरी में अन्य गाड़ियों को भी वापिस देख कर हमनें भी अपनी गाड़ी को मोड़ दिया, क्योंकि सड़क में बर्फ जमी होने के कारण लोगों की गाड़ी बर्फ में फिसल रही थी।
   हमनें सोचा तो था कि यहाँ से कुछ किलोमीटर दूर गंगोत्री मार्ग पर चला जाए, शायद यहाँ पर ट्रैकिंग करके साताल पहुँच पाएँ। 9000 फीट की ऊँचाई पर पहुँच कर इन तालों की खूबसूरती देखने का मज़ा ही कुछ और होता।  खैर! सबसे जरूरी तो बच्चों की सुरक्षा ही होती है, इसीलिए गाड़ी मोड़कर फिर हर्षिल की ओर चल पड़े। बर्फ में खेल कर अब भूख भी लग गई थी, लेकिन हमें यहाँ खाने के बहुत अधिक विकल्प तो दिखे ही नहीं। बस मैगी, नूडल्स, सूप, मोमो यही सब था। वैसे तो ये गढ़वाली क्षेत्र है लेकिन उनको देखकर ऐसा लग रहा था कि यहाँ के स्थानीय लोग कुछ तिब्बती संस्कृति से भी जुड़े हैं। कोई रेस्टोरेंट, ढाबा या खाने का होटल दिखाई ही नहीं दिये, सो हमनें भी यही सब कचर पचर खा लिया।
   यहीं से आगे मुखबा ग्राम गए, यहाँ गंगोत्री धाम से गंगा जी की डोली को धाम के कपाट बंद होने के बाद में लाकर पूजा जाता है। अब इस समय हम तीर्थाटन पर नहीं थे इसीलिए दूर से ही हाथ जोड़कर अपने पर्यटन पर निकल गए। पहाड़ से पैदल-पैदल उतर कर झूला पुल और फिर नदी को पार करके दूसरी छोर पर पहुँच गए। वहाँ पर सेब के बड़े बड़े बाग थे, लेकिन सारे पेड़ सूखे हुए थे, और उनमें सूखे और मुरझाये सेब अब भी लटके हुए थे। उन्हें ऐसा देखकर निराशा तो जरूर हुई क्योंकि हर्षिल के सेब बहुत ही प्रसिद्ध है यहाँ एक  प्रजाति के सेब को विल्सन सेब भी कहा जाता है, क्योंकि इसकी पौध विल्सन ने ही इंग्लैंड से मंगवाई थी। 
 यहीं से आगे बढ़ते हुए हम गंगोत्री मार्ग पर भी पहुँच गए। वहाँ नदी के किनारे बहुत सी बर्फ थी। वहाँ पर भी बर्फ का आनंद लिया। अब मुझे थोड़ी चिंता हो रही थी क्योंकि सांझ भी साथ साथ हो रही थी और वापस अपनी गाड़ी तक पहुँचने के लिए हमें जय के साथ चढ़ाई भी चढ़नी थी। बार बार आग्रह करने पर भी कोई सुनने के लिए राजी ही नहीं हुआ, वहाँ तो जैसे सभी आजाद अपनी मस्ती में घूम रहे थे। इसलिए मैं अब दूसरी छोर से ऊपर मार्ग की ओर अकेले ही चल पड़ी।
   चलते चलते मेरे पैर कितनी बार बोतलों पर भी अटक रहे थे। वहाँ इतनी काँच की बोतलें बर्फ में दबी हुई थी कि अगर कोई रद्दी पेपर कबाड़ी वाला चला जाए तो लखपति बन कर लौटेगा। इतना स्क्रैप था वहाँ पर की बर्फ में से कभी किसी का ढक्कन तो किसी बोतल की पेंदी नज़र आ रही थी। और मुझे सच में बहुत डर भी लग रहा था, कि कहीं मैं यहाँ पर फिसल कर बर्फ में दबी किसी टूटी बोतल पर न गिर जाऊँ। जब गंगोत्री वाली मुख्य सड़क पर पहुँची तो मेरे साथी और बच्चे अभी भी वहीं जमा थे और मैं अकेले ही मार्ग पर आगे बढ़ गई। वहाँ सड़क पर बर्फ ही जमी हुई थी और सड़क के किनारों पर पिंजरें में वहाँ के कूडे को कैद करने की कोशिश की गई थी, लेकिन पूरी तरह से विफल। उस जगह पॉलीथीन बैग, बोतल, कबाड़ और सबसे अधिक तो मैगी बिस्कुट के रेपर नज़र आ रहे थे जो सब कूडे के ढेर में सड़क किनारे खुले में ही पड़े थे। मुझे बहुत दुख हो रहा था कि इतनी मनमोहक जगह पर इस प्रकार से यहाँ वहाँ बोतलों और कूडे का पड़ा होना हम इंसानों के लिए कितना शर्मनाक है, क्योंकि ये सब कचरा करने वाले तो हम सैलानी ही हैं। अब जब गंगोत्री की यात्रा बंद है तब इतना कूड़ा और जब अप्रैल से नवंबर तक यात्रा रहती होगी तब क्या होता होगा??
     अभी यात्रा बंद है तो शायद शासन भी अभी यहाँ काम न कर रहा हो लेकिन बर्फ में दबी गंदगी की जिम्मेदारी तो हमें ही लेनी होगी। यही सोचते सोचते अब सभी लोग भी ऊपर मार्ग में पहुँच गए और हम सभी आगे बढ़ते रहे। वहाँ बर्फ में तो सभी फिसल ही रहे थे लेकिन मैं तो बीच सड़क पर ही फिसल गई लेकिन अपने फिसलने पर मुझे ऐसी कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं हुई क्योंकि वहाँ कोई देखने वाला जो नहीं था। उस सड़क पर बर्फ जमी थी तो गाड़ी का फिसलना भी संभव ही था।
   जय ने फिर एक बार झूला पुल पार किया और बिना किसी के कंधे और गोद का सहारा लिए अपनी गाड़ी तक पहुँच गया। रास्ते से लकड़ियाँ खरीदी और रात में अपने विल्सन गेस्ट हाउस के आंगन में बढ़िया अलाव के साथ शाम का भी लुत्फ़ उठाया। अब ये ठंड चुभन नहीं दे रही थी बल्कि ठंड के मौसम में ठंडक ही दे रही थी। शायद अब हमारे शरीर ने भी इस ठंड में अपने को ढाल लिया था।उस समय आस पास तो अंधेरा था लेकिन पहाड़ों पर बर्फ के कारण अब भी चांदनी जैसी चमक दिखाई दे रही थी। अब हम लोगों ने रात में बाहर से खाना मंगवाया क्योंकि विल्सन हाउस में आपको स्वयं ही बनाना होता है, जो हम बनाने में अक्षम थे। लेकिन इस रसोई से बच्चों का दूध, अंडे, सूप, चाय का आनंद बारी बारी से लिया जा रहा था। इस रात मुझे बहुत सूकून की नींद आयी थी।
    अगली सुबह हम वापस अपने घर की ओर चल पड़े और हर्षिल कैंट से बाहर आते हुए ही एक और 'एडवेंचर' भी हो गया, गाड़ी के टायर सड़क पर जमी बर्फ और कीचड़ के बने 'स्लश' में फंस गई और इस बार विकास भी अपना हुनर नहीं दिखा पाए, असली हिमालय के ड्राइवर तो वो हैं जो उन रास्तों में रोज अपनी गाड़ी दौड़ाते हैं और जो अभी-अभी हमारे आँखों के सामने से बड़ी आसानी से अपनी टैक्सी उसी रास्ते से ले गए। फिर भी 'मुस्कुराइये, आप अभी हर्षिल में हैं' क्योंकि वहाँ तुरंत ही बिहार रेजिमेंट के जवान गाड़ी को धक्का लगाने पहुँच गए।
   बच्चे फिर से सो गए और मैं अपनी दुनिया में खो गई।
कुछेक जगह जरूर लगा कि कुछ व्यवसायिक गतिविधियां भी होती, जैसे कुछ खाने पीने का, पारंपरिक परिधानों का, आभूषणों का, फोटोग्राफी का या फिर बर्फ में खेलते समय कपड़े और जूतों का व्यवसाय कुछ भी होता तो शायद स्थानीय लोगों को कुछ रोजगार से भी जोड़ा जा सकता था लेकिन अगले ही पल सोचती हूँ कि यहाँ की सबसे अच्छी खूबी ही यहाँ की शांति है। यहाँ पर सब कुछ प्राकृतिक है, सिर्फ मूलभूत सुविधाएं हैं, सीधे साधे लोग हैं और सीधा साधा हिसाब भी। विकास होना तो ठीक है लेकिन अधिक व्यवसायिक होना शायद परोक्ष रूप से प्रकृति के लिए हानिकारक भी हो सकता है और इन्ही सबके बीच रास्ता कब कट गया पता ही नहीं चला। इस समय न ही जिया और न ही जय को कोई परेशानी हुई और न ही किसी वमन की शिकायत। बस हमारे मन्नु भाई थोड़ा बैचैन थे शायद अपने जोश और मस्ती में इस बार अपनी दवाई लेना जो भूल गए थे। चाहे कुछ भी कहो आते समय जो थकान थी वो जाते समय गायब थी, शायद ये हरसिल का ही जादू था। इन पहाड़ों ने लौटते समय किसी तरह की कोई तकलीफ नहीं दी बस जैसे-जैसे हम शहर के नजदीक आते रहे वैसे वैसे गाड़ियों के जाम में जरूर उलझते रहे।
    हमारी यात्रा अब पूरी हो चुकी थी और मुझे खुशी थी कि मेरे दोनों बच्चे माइनस डिग्री वाले तापमान में भी स्वस्थ रहे और इतनी लंबी यात्रा का खूब लुत्फ़ उठाया। मैंने भी हर्षिल के रूप में स्वर्ग को देख लिया। लेकिन अभी बहुत कुछ देखना और करना बाकी रह गया है, जैसे मंदाकिनी वाला झरना देखना, बर्फ में टैंट वाली कैंपिंग करना, साताल को निहराना, मुखबा का मंदिर देखना, हर्षिल के रसभरे सेब को पेड़ों पर देखना, उन जगह पर जाना जहाँ से हर्षिल की खूबसूरती दुगनी दिखाई देती हो और हाँ, विल्सन के जैसी तो नहीं लेकिन एक छोटी सी कुटिया भी बनाना।
    आज राम तेरी गंगा मैली के सारे गीत सुन रही हूँ और साथ- साथ गुनगुना भी रही हूँ। सच बोलूँ तो अपना अनुभव साझा करते हुए मुझे हर्षिल की बहुत 'खुद' (याद) आ रही है। 

  "हुस्न पहाड़ों का, ओ सायबा हुस्न पहाड़ों का।
क्या कहना के बारहों महीने यहाँ मौसम जाड़ों का।।"

छोटी सी जानकारी:
हर्षिल
समुद्र तल से ऊंचाई: 7,860 फीट (2,620 मीटर) 
मार्ग: गंगोत्री मार्ग, उतरकाशी, उत्तराखंड
सबसे अच्छा मौसम: अप्रैल से जून और सितंबर से अक्टूबर (मेरे लिए बारहों महीने )
दूरी: दिल्ली से लगभग 475 km, ऋषिकेश से 235 km, देहरादून से लगभग 219 km
हर्षिल से गंगोत्री : 25 km

  एक-Naari

 



 

  

Comments

  1. So beautiful story and beautifully narrated. Loved it

    ReplyDelete
  2. Reena....I haven't been to Harshil..always dreamt of but after reading this it's like...i have been there...as I was going through line to line I was travelling each road..each spot..each stop... beautifully narrated....👍👍

    ReplyDelete
  3. Wow! That's called an exceptional travelogue. Good photo combined with wonderful text. This is what we need to get motivated to visit places with splendid beauty! Thanks a ton!
    🍁😊🎊👍

    ReplyDelete
  4. I really enjoy reading your work.👌👌👌

    ReplyDelete
  5. After reading ur blog, we wll also plan to visit Harsil soon. Njoyed reading.

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

उत्तराखंडी अनाज.....झंगोरा (Jhangora: Indian Barnyard Millet)

मेरे ब्रदर की दुल्हन (गढ़वाली विवाह के रीति रिवाज)

अहिंसा परमो धर्म: