ननिहाल का आनंद
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ननिहाल नाम सुनते ही शायद आप भी अपने बचपन के दिन याद करते होंगें। सिर्फ ननिहाल का नाम आते ही कितने सारे रिश्ते जीवंत हो जाते हैं। इस शब्द को सुनते ही नाना, नानी, मौसी, मामा, भाई, बहन सब याद आ जाते हैं। सारी यादें ताजा हो जाती हैं। नाना नानी का दुलार, मामा मौसी का प्यार और भाई बहनों का आपस में खेल और तकरार सब के सब दृश्य आँखों के सामने दौड़ने लगते हैं कि किस प्रकार से धमा चौकड़ी किया करते थे।
वैसे तो सबको पता ही है कि ननिहाल का अर्थ है, नाना का घर, लेकिन बच्चों के लिए तो नाना के घर का मतलब है मौज मस्ती, आजादी, आनंद, शरारत, कहानियाँ, किस्से, लाड और दुलार।
असली ननिहाल तो हम बचपन में ही देखते हैं, जब गर्मियों की छुट्टियों में ननिहाल जाना होता था। जितनी उत्साही माँ अपने मायके जाने के लिए होती थी उससे कहीं अधिक आतुर तो बच्चें अपनी ननिहाल जाने के लिए होते थे। माँ को खुशी तो बस अपने माँ बापू जी और भाई बहन से मिलकर होती थी लेकिन हम बच्चों की खुशी तो नाना नानी से मिलने से अधिक तो ममेरे और मौसेरे भाई बहन से मिलने की होती थी और साथ ही साथ अपनी आजादी और रौब जमाने की गुदगुदी भी होती थी।बच्चे तो आज भी अपने ननिहाल जाने के लिए तैयार रहते हैं और हम जब इतने बड़े हो गये हैं की हमारे स्वयं के बच्चे हो गये हैं तो भी हमें अपने ननिहाल जाने में खुशी ही मिलती हैं भले ही अब नाना जी की जगह मामा ने ले ली हो। वैसे तो दादा दादी के लाड प्यार का कोई सानी नहीं है लेकिन नाना नानी का दुलार भी कभी कम नहीं होता। उनका ये प्यार और दुलार हमें किसी राजा से कम का अनुभव नहीं कराता। सोचने से पहले ही चीज हाजिर हो जाती थी। तरह तरह के पकवान, फल, टॉफी, शीतल पेय समय समय पर मिलना कितना अच्छा अनुभव देता था। ननिहाल में तो माँ की डाँट गायब रहती थी क्योंकि हमें डांटने से पहले ही नानी तो माँ को चुप करा देती थी। ननिहाल में तो बस ऐसा अनुभव होता था कि नानी के अपने पोते से कहीं अधिक तो अपना राज है, अपना ठाठ बाट है और अपना आनंद है।
मेरा ननिहाल तो पौड़ी के एक गांव सिमड़ी में पड़ता है, जो हरियाली से भरपूर है। हरियाली तो गढ़वाल के हर क्षेत्र में ही है, लेकिन मुझे याद है कि नानी के गांव में चीड़ के बहुत पेड़ थे और घर तक पहुँचते हुए भी रास्ते में बहुत चिलगोजे (मेवा) पड़े हुए थे, जिन्हें घर तक पहुँचतें पहुँचतें हम इकट्ठा कर लेते थे। हालांकि अपने जीवन में दो बार ही अपने ननिहाल गई हूँ लेकिन सच मानों बहुत ही अच्छा अनुभव था वहाँ का, क्योंकि मुझे वहाँ पर बहुत सारे दोस्त और सहेली भी मिले जो रिश्तें में तो मामा और मौसी लगते थे लेकिन उम्र में मेरे हमजोली ही थे और हम सब मिलकर ढेर सारी मस्ती किया करते थे। गोर (जानवर) चराने के लिए जंगल जाते थे, गाड़ गदेरे (पानी के प्राकृतिक स्रोत) में जाकर मस्ती करते थे, वहाँ हवा से जो छुईंती (चिलगोजा) नीचे गिरी होती थी उसे इकट्ठा करते थे, चीड़ की सूखी घास पर फिसलपट्टी करते थे, रात को किसी के भी घर में रुककर पहाड़ की अछरि (परी)तो कभी देवी देवता की किवदंतियां सुनते थे और कभी मीठी रोटी तो कभी खीर पकाते थे। सच में बहुत ही आनंद था ननिहाल में। हालांकि नाना-नानी तो स्वर्गवासी हो चुके थे लेकिन मामा मामी के प्रेम और स्नेह में कभी किसी प्रकार की कमी नहीं आयी थी जो आज भी वैसी ही है, बस अब दिल्ली और रूड़की जाकर ही ननिहाल का अनुभव लिया जाता है। समय की कमी और परिवार की व्यसतता के कारण अब ननिहाल जाना तो दूर की बात है अब तो मामा लोगों से मिलने के लिए भी कोई उचित कारण ढूँढ़ना पड़ता है।
अरे! आपको ये बताना ही भूल गई की, ये लेख मैं इसलिए लिख रही हूँ क्योंकि अभी हाल की मकर संक्रांति में मैं ननिहाल गई थी, लेकिन अपने नहीं, विकास के। मतलब कि अपने 'ननिहाल वाले ससुराल' में। अब इसको व्यवहारिक भाषा में क्या कहेंगें इसका मुझे बोध नहीं है बस ये मेरी सास जी का मायका है और विकास का ननिहाल। इसीलिए मुझे भी अपने ननिहाल की याद आ गई। चलो ये भी तो अच्छा ही हुआ कि इसी बहाने शायद मुझे भी कुछ याद करने का मौका मिल गया। मायके की याद तो बनी रहती है लेकिन अब उम्र बढ़ने के साथ साथ ननिहाल को याद करना तो भूल ही जाती हूँ। इसीलिए ये एक अच्छा अवसर था अपने ननिहाल की याद ताजा करने का।
विकास का ननिहाल कोटद्वार भाबर स्थित जशोधरपुर में है। जशोधरपुर में वैसे तो कुछ औद्योगिक इकाइयां भी हैं लेकिन कहा जशोधरपुर ग्राम ही जाता है। हालांकि अब सभी जगह विकास तो हो रहा है फिर भी कहीं कहीं ग्रामीण परिवेश तो दिखाई दे ही देता है। प्रसिद्ध कण्वाश्रम भी यहाँ से कुछ ही दूरी पर है। ये वही आश्रम है जिसका उल्लेख महाकवि कालिदास द्वारा रचित "अभिज्ञान शाकुन्तलम" में किया गया है। इसी आश्रम में महर्षि कण्व और मेनका की पुत्री शकुंतला का विवाह राजा दुष्यंत के साथ हुआ था और उन्हीं के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम भी भारत पड़ा। वहाँ पर जाना तो इस अवसर पर नहीं हुआ बस वहाँ के बारे में सुनकर ही संतोष करना पड़ा। विकास का ननिहाल तो मेरे लिए एक पुरानी हवेली जैसा ही है क्योंकि मेरा ननिहाल तो पहाड़ में बने लकड़ी और पत्थर का कच्चा घर था जहाँ छोटे-छोटे कमरे थे। लेकिन यहाँ तो एक पुराना राजसी भाव आ रहा था क्योंकि ये एक भव्य भवन था, जिसकी चौखटें मोटी मोटी लकड़ियों से बनी थी, कमरों के कुछ दरवाजे बिल्कुल मेरे ननिहाल के जैसे थे इनमें भी दो फट्टे लगे थे जिन्हें एक मोटी जंजीर से बंद करते थे। हाँ! ये अवश्य है कि अब बहुत जगह नवीनीकरण हो चुका है और बहुत कुछ बदल भी गया है।
कमरों की छत भी थोड़ी नीचे ही थी, जैसे गांव के घर में होती है बस मेरे ननिहाल में पंखा नहीं था और यहाँ पर सारी व्यवस्थाएं हैं। भवन के बीच में गैलरी और दोनों ओर कमरें हैं, जिनके चारों ओर है, खुला आंगन। अब इसे हवेली ही तो कहेंगें क्योंकि इसे बनाया भी 'रेंजर साहब' ने था। जी हाँ! विकास के नाना जी स्वर्गीय 'पंडित हरिदत्त नैथानी' जी भाबर क्षेत्र में जंगलात के अधिकारी थे।
खैर! अब नाना नानी तो नहीं रहे और ना ही नाना नानी जैसा रुआब। लेकिन विकास के लिए ननिहाल तो अभी भी वैसा ही है जैसा बचपन में था, जितना लाड प्यार नानी देती थी उतना ही स्नेह अपने छोटे मामा-मामी से भी मिलता है। समय के साथ साथ सभी भाई बहनों का अब एक साथ मिलना कम ही होता है, लेकिन इस बार भाबर में सभी लोग मिले। कभी आंगन में अलाव जलाकर तो कभी कमरे में दुबक कर सभी ने अपने अपने बचपन के दिन याद किये, कोई नज़र लगाने वाली बुढ़िया की बात कर रहा था तो कोई बचपन में की गई शरारतों को तो कोई अपने बचपन के साथियों को याद कर रहा था और कोई बसंत पंचमी के मेले में की गई मस्ती को बता रहा था और कोई खाने पीने के साथ सिर्फ सुनने का आनंद ले रहा था, जैसे कि मैं।
कहने को तो भाबर मेरा ससुराल ही था लेकिन मेरे लिए भी ये ननिहाल जैसा ही है। ननदें और देवर अपने भाई बहन जैसे तो देवरानी जेठानी भी सहेलियों से कम नहीं लगते। सभी लोग अपनी मस्ती में थे, विकास अपने ननिहाल में बिलकुल आज़ाद थे, न ऑफिस की चिंता थी और न ही किसी प्रकार का दबाव था। बस अपने भाई और बहनोईयों के साथ मिलकर शायद अपना बचपन वाला ननिहाल जी रहे थे इसीलिए अपना स्वयं का परिवार को कभी- कभी नज़रंदाज़ करके सिर्फ अपनी मस्ती में थे और मैं दूर से ही देखकर तसल्ली कर रही थी कि चलो विकास के लिए ये दिन 'ननिहाल के आनंद' वाले दिन है और हमारे लिए ये दिन एक प्रकार का ' रूरल टूरिज्म'। इसीलिए सभी नें अपने-अपने तरीके से ननिहाल का आनंद लिया।
(Pic courtesy: Animesh Dhyani)
एक- Naari
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Comments
Vary nice article 👍
ReplyDeleteGolden days...
ReplyDeleteWonderful
ReplyDeleteMy all time favorite place to visit...Bhabar
ReplyDeleteBeautiful story really गाऊँ की याद आ गयी।
ReplyDeleteVery nice and informative
ReplyDeleteWha bahut he majedaar.
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteNani ka ghar sunte he, we all end up getting in that vacation mood ❤️ Also Nani ka pyaar ❤️❤️
ReplyDeleteBahot achcha Reena. Maza aa gaya padd kar.
ReplyDeleteReminded my childhood
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