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Showing posts from August, 2020

दिवाली: मन के दीप

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दिवाली: मन के दीप   दिवाली एक ऐसा उत्सव है जब घर ही क्या हर गली मोहल्ले का कोना कोना जगमगा रहा होता है। ऐसा लगता है कि पूरा शहर ही रोशनी में डूबा हुआ है। लड़ियों की जगमगाहट हो या दीपों की टिमटिमाहट हर एक जगह सुंदर दिखाई देती है और हो भी क्यों न! जब त्यौहार ही रोशनी का है तो अंधेरे का क्या काम।         असल में दिवाली की सुंदरता तो हमारे मन की खुशियों से है क्योंकि रोशनी की ये किरणें केवल बाहर ही नहीं अपितु मन के कोने कोने में पहुंच कर मन के अंधेरों को दूर कर रही होती है। तभी तो दिवाली के दीपक मन के दीप होते हैं जो त्यौहार के आने पर स्वयं ही जल उठते है। दिवाली का समय ही ऐसा होता है कि जहां हम केवल दिवाली की तैयारी के लिए उत्सुक रहते है। यह तो त्योहारों का एक गुच्छा है जिसका आरंभ धनतेरस पर्व से होकर भाई दूज तक चलता है। ऐसे में हर दिन एक नई उमंग के साथ दिवाली के दीप जलते हैं।     ये दीपक नकारात्मकताओं को दूर कर हमें एक ऐसी राह दिखा रहे होते हैं जो सकारात्मकताओं से भरा हुआ होता है, जहां हम आशा और विश्वास की लौ जलाते हैं कि आने व...

कोरोना से डर नहीं लगता साहब, लोगों के खौफ से लगता है"

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"कोरोना से डर नहीं लगता साहब, लोगों के खौफ से लगता है"        मुझे पता है कि "दबंग" फिल्म के डाएलॉग से मेल खाता हुआ ये शीर्षक इस फिल्म की तरह ख्याति प्राप्त नही कर सकता। क्योंकि आज के समय मे ये विषय बहुत ही "बोरिंग टाइप" है। कारण:-पिछले छः महीनों से हम अपने चारों ओर इसी का नाम सुन ही नही बल्कि इसके घातक प्रभाव को देख भी रहे हैं।  वैसे तो जैसे जैसे शहर में अनलॉक हो रहा है वैसे वैसे हमारे दिमाग से भी कोरोना का डर अनलॉक हो रहा है। लेकिन कोरोना के पीड़ित दिनों दिन बढ़ रहे हैं।       अब जिंदगी फिर से पटरी पर आने की कोशिश कर रही है। फिर भी इस समय में जो कुछ भी दिखा, उसे सोचे और लिखे बिना नही रहा गया, शायद कहीं न कहीं आप भी इसके बारे में कुछ ऐसा ही सोचते होंगे।      पहले बीमारी के नाम ने डराया फिर उससे होने वाली मौत ने, उसके बाद नौकरी छूटी और बाद में धंधा पानी भी चौपट हो गया। सभी जानते हैं इसके पीछे की वजह सिर्फ कोविड है। ये तो वो मुद्दे हैं जो हमे दिख रहे है एक मुद्दा है लोगो के डर का जो अंदर है लेकिन कहीं दुबका बैठा है। ये डर है हमा...

खोया पाया ... मेरा तौलिया

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बरसात के दिन हैं और मैं इस सुस्ती भरे दिन मे भी व्यस्त हूँ .. लकड़ी की अलमारी मे उथल पुथल कर दी पर कहीं दिखाई नहीं दिया , साथ पड़ी सेटी में भी टटोला ,लेकिन गायब था , फिर अपनी लोहे की विशाल अलमारी को भी ढंग से छान मारा , पर कहीं नहीं मिला, मेरा सुबह का साथी, मेरी नमी को सोखने वाला मेरा अपना प्यारा तौलिया ...  तीन दिन गुजर गए , मैंने उसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट घर में किसी से नहीं की... मुझे लगा की बारिश के दिन है तो शायद अभी इसे भी अपनी नमी का साथ छोड़ने मे वक़्त लगेगा । इसलिए दो रोज की सुबह तो मैंने अपने शरीर को एक पतले लेकिन कड़क गमछे के हवाले किया और तीसरे दिन फटे हालातों वाले भिखारी जैसे कपडे के ... लेकिन आज तो अपने मखमली यार को पा के ही रहूंगी, यही सोचकर सारे घर की तलाशी लिए जा रही हू कि तभी माँ ने देख लिया और पूछ ही लिया की "तू आज ऐसा क्या खोज" .,.. तो मैंने भी तपाक से बोला ... "मेरा तौलिया"फिर तो सब जैसे खोजी ही बन गए ... पीछे के गैलरी में देखा,,नहीं मिला, घर के आंगन में देखा नहीं मिला, बगल वाली गैलरी में झाँका तो कुछ उम्मीद स...

मेरी बेटी,,,, पगलाई सी

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मेरी बेटी,,,, पगलाई सी मेरी बेटी आज घबराई हुई सी लग रही है, ऑनलाइन के क्लास लेते लेते कुछ पगलाई लग रही है हंसती मुस्कुराती नाचती गाती थी जो मेरी गुड़िया आज लैपटॉप ओर मोबाइल के फेर में उलझाई लग रही है बैटरी प्रॉब्लम, नेटवर्क प्रॉब्लम कभी कभी माइक प्रॉब्लम, ऐ सी रुकावटों की परेशानियां अपनी मैडम को भी समझाए जा रही है हिस्ट्री जियोग्राफी साइंस अब तो खुद ही पढ़ती है एनक लगाकर कठिन प्रश्नों के उत्तर भी तो अब स्वयं बनाए जा रही है खुश रहूं मैं या अब मैं करूं चिंता ये पता नहीं मुझको साथी सहेली छूट गए अब गूगल ही से खेल रही है वर्चुअल होती दुनिया में मेरी बेटी अपने ही बचपन से पराई हो रही है ऑनलाइन के क्लास लेते लेते कुछ पगलाई लग रही है