शिव पार्वती: एक आदर्श दंपति

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शिव पार्वती: एक आदर्श दंपति  हिंदू धर्म में कृष्ण और राधा का प्रेम सर्वोपरि माना जाता है किंतु शिव पार्वती का स्थान दाम्पत्य में सर्वश्रेठ है। उनका स्थान सभी देवी देवताओं से ऊपर माना गया है। वैसे तो सभी देवी देवता एक समान है किंतु फिर भी पिता का स्थान तो सबसे ऊँचा होता है और भगवान शिव तो परमपिता हैं और माता पार्वती जगत जननी।    यह तो सभी मानते ही हैं कि हम सभी भगवान की संतान है इसलिए हमारे लिए देवी देवताओं का स्थान हमेशा ही पूजनीय और उच्च होता है किंतु अगर व्यवहारिक रूप से देखा जाए तो एक पुत्र के लिए माता और पिता का स्थान उच्च तभी बनता है जब वह अपने माता पिता को एक आदर्श मानता हो। उनके माता पिता के कर्तव्यों से अलग उन दोनों को एक आदर्श पति पत्नी के रूप में भी देखता हो और उनके गुणों का अनुसरण भी करता हो।     भगवान शिव और माता पार्वती हमारे ईष्ट माता पिता इसीलिए हैं क्योंकि हिंदू धर्म में शिव और पार्वती पति पत्नी के रूप में एक आदर्श दंपति हैं। हमारे पौराणिक कथाएं हो या कोई ग्रंथ शिव पार्वती प्रसंग में भगवान में भी एक सामान्य स्त्री पुरुष जैसा व्यवहार भी दिखाई देगा। जैसे शिव

उत्तराखंड में मकर संक्रांति और पकवान

उत्तराखंड में मकर संक्रांति का खानपान
     नए वर्ष के आरंभ होते ही पहला उत्सव हमें मकर संक्रांति में रूप में मिलता है। इस संक्रति में सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है इसलिए इसे मकर संक्रांति कहते हैं। इसको उत्तरायणी भी कहा जाता है क्योंकि सूर्य दक्षिण दिशा से उत्तर की दिशा की ओर आता है। इसलिए आज से दिन लंबे और रात छोटी होने लगती है। 
मकर संक्रांति का महत्व:
  मकर संक्रांति का महत्व हिंदू शास्त्र में इसलिए भी है क्योंकि सूर्य देव अपने पुत्र जो मकर राशि के स्वामी हैं शनि से मिलते हैं जो ज्योतिषी विद्या में महत्वपूर्ण योग होता है। इसलिए माना जाता है कि इस योग में स्नान, ध्यान और दान से पुण्य मिलता है। वैसे इस दिन भगवान विष्णु की भी पूजा की जाती है क्योंकि कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने इस दिन मधु कैटभ दानवों का अंत किया था। 
  मकर संक्रांति से ही शुभ कार्यों का आरंभ भी हो जाता है क्योंकि उत्तरायण में हम 'देवों के दिन' और दक्षिणायन में हम रात मानते हैं इसलिए मांगलिक कार्यों का आरंभ आज से हो जाता है।
   यहां तक कि माना जाता है कि उत्तरायण में मृत्यु से श्री चरणों में मुक्ति मिलती है। कुरुक्षेत्र के युद्ध में घायल हुए भीष्म पितामह ने भी अपने प्राण उत्तरायण के आने पर ही त्यागे थे। 

मकर संक्रांति में उत्तराखंड का खानपान
  उत्तराखंड के पर्व त्योहार ऋतु परिवर्तन के साथ ही जुड़े हैं। जैसे देश में इसे 'माघी संगरांद'/पोंगल/बिहू के नाम से मनाया जाता है वैसे ही उत्तराखंड में मकर संक्रांति को मकरैणी/उत्तरैणी/ खिचड़ी संग्रांद/घुघुतिया/मरोज के नाम से मनाया जाता है। 
  पर्व चाहे उत्तराखंड के हों या कहीं अन्य क्षेत्र के बिना विशिष्ट खानपान के पर्व फीके हैं इसलिए इस पर्व में भी कुछ पकवानों के नाम पर कहीं पूरी, खीर, हलवा, घुघते बनते हैं तो मांह के दाल की खिचड़ी भी बनाई जाती है। साथ ही गुड़ के पाक से बने चौलाई या तिल के लड्डू या पट्टी भी खूब चाव से बनती है। वैसे जौनसार क्षेत्र में मनाया जाने वाला मारोज में तो बकरे की बलि देकर बांटा (पारिवारिक हिस्सा) भी दिया जाता है। 

कुमाऊं की घुघुतिया में घुघुते
  पारंपरिक पकवानों की बात करें कुमाऊं में विशेष घुघते बनाए जाते हैं। आटे में गुड़ या चीनी मिलाकर गूंथा जाता है और विशेष गोल घुमाकर नीचे से मोड़ा जाता है फिर इनको तेल में तला जाता है साथ ही आटे के तलवार और ढाल भी बनाए जाते हैं। फिर इन घुघतो को धागे में पिरोकर संतरे के साथ एक माला तैयार की जाती है जो घर के बच्चों को पहनाते हैं और फिर कौवों को 'काले कव्वा काले, घुघुती मावा खाले' ऐसा बोलकर आमंत्रित भी करते हैं।
   चलचित्र सौजन्य: श्रीमति भावना पंत

  ऐसा करने के पीछे भी एक लोक मान्यता है...
प्रचलित घुघुति की कहानी
   कुमाऊं वंश के चंद राजा कल्याण चंद की कोई संतान नहीं थी। उसका मंत्री इस कारण अपने को अगला राजा मानने लगा। लेकिन भगवान बागनाथ की कृपा से उसकी एक संतान निर्भय चंद हुई। रानी अपने पुत्र निर्भय को प्यार से घुघुती (Dove Bird) बुलाती थी। रानी ने अपने पुत्र को मोती की माला पहनाई जो उसके पुत्र को बहुत ही भाती थी। 
  जब भी निर्भय किसी बात पर जिद करता तो रानी उससे कहती थी कि अगर उसने जिद न छोड़ी तो उसकी मोती की माला कौवा आ कर खा जायेगा। रानी पुत्र को डराने के लिए कहती 'काले कौवा काले घुघुति माला खा ले' और घुघुती अपनी जिद छोड़ देता। लेकिन कई कौवे वहां आते जिन्हें रानी और घुघुती कुछ न कुछ खाने को देती।
                 (प्यारा हर्षवर्धन पंत)
  एक बार राजा के मंत्री ने राजगद्दी के लिए एक षड्यंत्र रचा और घुघुती का अपहरण कर लिया। जैसे ही मंत्री घुघुती को जंगल की ओर ले जा रहा था एक कौवे ने उसे देख लिया और जोर जोर से कांव कांव करने लगा।
  घुघुती ने अपनी माला उतारकर कौवे को दिखा दी। कौवे ने उसकी माला चोंच में उठाकर महल की ओर उड़ने लगा बाकी ओर भी बहुत से कौवे आकार मंत्री और उसके साथियों को चोंच से मारने लगे और उन्होंने घुघुती को जंगल में छोड़कर भाग गए। उधर उस कौवे ने मोटी की माला महल के पेड़ पर टांगकर जोर जोर से कांव कांव करने लगा जिसे देखकर रानी और राजा समझ गए। राजा और उसके सिपाही कौवे के पीछे पीछे जंगल तक पहुंच गए जहां पर घुघुती था। 
  रानी को अपने पुत्र से मिलकर जान में जान आई और कहा कि अगर मोती की यह माला न होती तो घुघुती आज न होता। घुघुती के मिलने की खुशी में रानी ने कई पकवान बनाए और घुघुती के दोस्त बने सभी कौवों को गीत गाकर 'काले कौवा काले घुघुति माला खा ले' उन्हें बुला बुलाकर खाना खिलाया। इसीलिए कुमाऊं में घुघुत बनाकर कौवों को खिलाने की भी प्रथा है जिससे कि बच्चों के सभी संकट टल जांए।



वैसे कुमाऊं में भी ये घुघुते बनाने का दिन भी अलग अलग होता है। जो बागेश्वर के सरयू नदी के आर पार के क्षेत्र पर निर्भर होती है। कुछ लोग मकरैणी के एक दिन पहले रात को तैयार करते हैं और दूसरे छोर के लोग मकरैणी की रात को। 

 गढ़वाल में खिचड़ी संक्रांद में खिचड़ी के साथ रैतू रैठू 
 वैसे तो खिचड़ी केवल दाल और चावल का मेल है लेकिन इसका स्वाद मिलकर अलग हो जाता है। मकर संक्रांति में केवल खिचड़ी खाने का ही नहीं अपितु दान का महत्व भी है। चावल में उड़द दाल मिलाकर बनी खिचड़ी का धार्मिक महत्व है। मा की काली दाल को शनि से संबंधित माना जाता है। इसलिए इस दाल से बनी खिचड़ी खाने और दान से शनि से संबंधित कष्ट दूर होते हैं।
  गढ़वाल में खिचड़ी के साथ ही दाल के स्वाले और साथ ही मर्सू (चौलाई) का हलवा, पीले कद्दू का रैतु, रैठु और करारे पिंडालू (अरबी) के गुटके भी उत्तरैणी में बनाए जाते हैं। पीले कद्दू को दूध में पकाकर मीठा रैठू और मठ्ठे में मिलाकर रैतू बनाकर खाया जाता है।

मकर संक्रांति में तिल गुड़ का सेवन
  तिल और गुड़ की जुगलबंदी का जो सिलसिला दिवाली से शुरू हुआ वो साल के पहले त्योहार मकर संक्रांति तक अपने चरम पर आ गया है। नए वर्ष के आरंभ होते ही पहला उत्सव चाहे लोहड़ी माने या फिर मकर संक्रांति। इन दोनों ही त्योहार में गुड़ और तिल से बने खाद्य पदार्थ खाने का प्रचलन है। तिल और गुड़ से बने चाहे लड्डू हो, रेवड़ी या गजक या चिकी हो लेकिन इनके सेवन से हम अपने त्योहार को सम्पूर्ण मानते हैं।
 संक्रांति में गुड़ का पाक तैयार करके उसमें भुने हुए तिल को मिश्रित किया जाता है फिर इस मिश्रण को गर्म रहते ही इन लड्डुओं को तैयार कर लिया जाता है।
  आयुर्वेद की दृष्टि से इन दोनों का सम्मिश्रण स्वास्थ्यवर्धक होता है। शरीर को गर्म और मजबूत रखने के लिए तिल और गुड़ में कई पोषक तत्व होते हैं और साथ ही एंटी-इंफ्लामेट्री गुण से तिल और गुड़ वायरल सर्दियों में होने वाले संक्रमण से भी बचाता है इसलिए सर्दियों के इस पर्व में इनका सेवन आवश्यक समझा जाता है।  

जौनसार बावर में माघ के मरोज में बकरा
उत्तराखंड के जौनसार इलाके में मकर संक्रांति को मरोज के नाम से मनाने का चलन है। वैसे ये जनवरी माह के आरंभिक दिनों से ही मनाया जाने लगता है जो पूरे माघ महीने तक चलता है। इस क्षेत्र के हनोल देवता में बकरे की बलि के बाद स्थानीय परिवार अपने घर परिवार की कुशलता हेतु बकरे की बलि देते हैं । खुशहाली एवं सामाजिक भाईचारा के लिए सामूहिक भोज का आयोजन भी रखा जाता है। 
  यहां के लोग अपने को पांडवों के वंशज मानते हैं। पांडवकालीन समय के अनुसरण में इस क्षेत्र विशेष की जनजाति की महिलाएं बकरे को दुश्शासन का प्रतीक मानती हैं। इसलिए उसकी बलि देकर द्रोपदी की प्रतिज्ञा को पूर्ण माना जाता हैं। जैसे द्रोपदी ने अपने केश दुश्शासन की मृत्यु के बाद बांधे थे उसी प्रकार घर की महिलाएं बलि के बाद पूजा अर्चना करके ही अपने बाल गूंथती हैं। इस अवसर पर परंपरागत नृत्य और गीत भी गाए जाते हैं। यहां तक की बकरे का बांटा (हिस्सा) भी किया जाता है जो विवाहित बेटी एवं बहन के घर भी भेजा जाता है। यहां मामा को बकरे का दिल भेंट दिया जाता है वहीं आदमी को बकरे के मगज खाने की मनाही है तो महिलाओं को उसकी जीभ। 

  जीवन चाहे कितना भी कठिन हो लेकिन समय समय पर आने वाले ये पर्व त्योहार हमें आगे बढ़ने का हौंसला देते हैं और इन पर्वों से ही तो जीवन में उल्लास और उमंग बना रहता है इसलिए इन पर्वों से जुड़ी अपनी हर उत्तराखंडी संस्कृति को संभाल के रखें चाहे कौथिग (मेला) हो पारंपरिक नृत्य हो या फिर स्वादिष्ट पकवान।

एक -Naari

Comments

  1. Maza aa gaya padhkar or munh mein pani bhi aa gaya..Very interesting post

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